डॉ० कुमार विमलेन्दु सिंह | Navpravah Desk
नादुरुस्त, कुछ भी नहीं रहता ज़िंदगी में, या तो वक़्त ठीक कर देता है सब या बुन देता है ऐसा वहम, कि जिसमें पड़ के, सब ठीक लगने लगता है। वहम भी उम्रदराज़ नहीं होते, सो टूटते, बनते, ज़िंदगी को ख़ुशी और ग़म के रंगों से भरते रहते हैं। वहम टूटे, तो ग़म, बने तो ख़ुशी, लेकिन एक बात कभी नहीं बदलती, और वो है ज़िंदगी का चलते रहना। जो शख़्स किसी ख़ुशी या ग़म के मोहल्ले में ज़्यादा देर रुक जाता है, ज़िंदगी उसे छोड़, आगे बढ़ जाती है और जो बेफ़िक़्र बढ़ता चला जाता है, वो ज़िंदगी के बाद भी महफ़िलों में गुफ़्तगू का सबब बना रहता है। ऐसे ही चलीं, दुर्गा खोटे।
दुर्गा खोटे का जन्म, एक कोंकणी परिवार में, 1905 में, मुंबई में हुआ। इनके पिता पांडुरंग श्यामराव लाड और माता मंजुलाबाई, एक बड़े और अमीर परिवार के सदस्य थे। इनका नाम, वीटा लाड रखा गया और अपने बाक़ी के भाई बहनों की तरह इनकी पढ़ाई लिखाई भी, बहुत अच्छे ढंग से हुई।
अभी ये कॉलेज में पढ़ ही रही थीं कि इनकी शादी, विश्वनाथ खोटे से हो गई, जो उन दिनों BHU से इंजीनियरिंग कर के लौटे थे। इसके कुछ दिनों बाद इनकी बहन शालिनी की शादी हुई और उस शादी में जे० एच० वाडिया भी आए थे, जो उन दिनों मोहन भगनानी के साथ फ़िल्में बनाया करते थे। उन्होंने शालिनी को फ़िल्मों में काम करने के लिए पूछा। शालिनी ने साफ़ मना कर दिया और कहा कि उनकी बहन काम कर सकती हैं।
यहाँ दुर्गा खोटे को, उनकी पहली फ़िल्म, “फ़रेब जाल” मिली, जो 1931 में आई। ये फ़िल्म ज़बरदस्त फ़्लॉप हुई। दुर्गा का मज़ाक उड़ने लगा, लेकिन उनके पति ने उन्हें हौसला दिया। इस फ़िल्म में उनकी अदाकारी पर महान वी० शांताराम की नज़र पड़ी। उन्होंने आपनी फ़िल्म, “माया मछिन्द्रनाथ” के लिए, दुर्गा के साथ क़रार कर लिया। ये फ़िल्म ज़बरदस्त कामयाब रही और फिर “आयोध्याचे राजा”, जो कि पहली सवाक् मराठी फ़िल्म थी, इसमें भी दुर्गा खोटे, अहम किरदार में दिखीं। ये दोनों फ़िल्में 1932 में आईं। अब दुर्गा खोटे हर तरह से कामयाब हो रही थीं। उनके दो बेटे भी हो चुके थे। लेकिन इसी साल, इनके शौहर गुज़र गए। ऐसा लगा, जैसे सब ख़त्म हो गया।
दुर्गा खोटे इसके बाद भी चलती रहीं। 1936 में आई “अमर ज्योति” में इन्होंने सौदामिनी का किरदार निभाया जिसे बहुत पसंद किया गया। इन्होंने अपने दौर के सभी बड़े अदाकारों के साथ काम किया। उस दौर में फ़िल्म कंपनियां, अपने कलाकारों को हर महीने तनख़्वाह दिया करती थी, लेकिन दुर्गा खोटे कहीं बंध कर तनख़्वाह पर नहीं रहीं और लगभग सभी बड़ी कंपनियों के लिए काम किया।
सफ़र चलता रहा और इन्होंने इतनी शोहरत और नाम कमा लिया कि 1937 में “साथी” नाम की फ़िल्म का निर्माण और निर्देशन किया। इसके बाद 1941 और 1942 में इन्हें प्रतिष्ठित Bengal Film Journalists’ Association के द्वारा सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का इनाम भी मिला। 1943 में IPTA बनी, ये इसकी भी सदस्या रहीं।
“मुग़ल-ए-आज़म” में जोधाबाई का किरदार, इन्होंने निभाया और उसके बाद तो, “आनंद”, “अभिमान”, “बॉबी”, “कर्ज़”, “बावरची” और ऐसी कई मशहूर फ़िल्मों समेत 200 फ़िल्मों में काम किया। 1983 में इन्हें दादा साहब फाल्के आवार्ड दिया गया। “
इनके पति के बड़े भाई, नंदू खोटे, मराठी रंगमंच के बहुत बड़े कलाकार थे जिनके बेटे, विजू खोटे (शोले के कालिया) और बेटी शोभा खोटे (गोलमाल की कालिंदी) मशहूर चरित्र अभिनेता बने। शोभा की बेटी भावना बलसावर ने भी “देख भाई देख” और “ज़बान संभाल के” जैसे मशहूर टीवी धारावाहिकों में काम किया। पूरा परिवार अभिनय की साधना में लगा रहा।
दुर्गा खोटे ने “दुर्गा खोटे प्रोडक्शन्स” भी शुरू किया और बेहद मशहूर टीवी धारावाहिक, “वागले की दुनिया” बनाई। दुर्गा के पोते, देवेन खोटे, UTV के संस्थापकों में से एक हैं।
लड़खड़ा चुकी ज़िंदगी को, दुर्गा खोटे ने, न केवल संभाला बल्कि रफ़्तार भी दी और एक बेहद सुहाना सफ़र करते हुए, कई मील के पत्थर पीछे छोड़ते हुए, 86 साल की उम्र में, 1991 में, इस दुनिया से चल बसीं।
सन् 2000 में, जब इंडिया टुडे ने अपना मिलेनियम अंक निकाला, तो उसमें उन सौ लोगों की फ़ेहरिस्त जारी की, जिन्होंने हिंदुस्तान को आकार दिया था। दुर्गा खोटे का भी नाम उसमें था। इनका नाम इसलिए था क्योंकि इनके पहले, किसी बहुत बड़े परिवार की लड़की, फ़िल्मों में काम नहीं करती थीं। इन्होंने ही बतौर महिला डायरेक्टर काम शुरू किया था फ़िल्मों में।
दुर्गा खोटे लगातार चलीं और उनके पीछे इबारतें लिखी जाती रहीं। इनके जज़्बे ने भारतीय सिनेमा को बहुत कुछ दिया, इन्हें हमेशा याद किया जाएगा।
(लेखक जाने-माने साहित्यकार, स्तंभकार, व शिक्षाविद हैं.)