भूली हुई यादें- “नाज़िर हुसैन”

डॉ० कुमार विमलेन्दु सिंह | Navpravah Desk

हर शख़्स बुलबुला है, इस फ़ानी दुनिया में, हस्ती बस बनने और ग़ायब होने के बीच के वक़्फ़े में है। इन्हीं थोड़े से लम्हात में कुछ कर गुज़रना होता है। कुछ शख़्स ये जानते हैं और असर पैदा कर के रुख़सत होते हैं यहां से। उनके जाने के बाद भी उनकी यादें आती हैं और किसी मशहूर क़िस्से के किरदार की तरह हमारे ख़यालों की किताबों में, उनका आना जाना लगा रहता है। नाज़िर हुसैन भी ऐसे ही एक किरदार का नाम है, जो कई बार हमें ज़िंदगी के रंग दिखाता रहा। कभी ज़ुबान बदली, तो कभी लिबास और हर वो रंग बांट कर गया, जो उसे ज़िंदगी ने दिए थे।

नाज़िर हुसैन (PC-Cinestaan)

1922 में, ऊसिया गांव, जो कि ग़ाज़ीपुर में है, दिलदारनगर से थोड़ी दूर पर, नाज़िर हुसैन, साहबज़ाद ख़ान के यहां पैदा हुए। ग़ाज़ीपुर की महान धरती से, अदब और अदाकारी की दुनिया की अज़ीम शख़्सियतों का राबता रहा है और चाहे डॉ० राही मासूम रज़ा हों, युनुस परवेज़ हों या कुबेरनाथ राय हों या और भी कई नामों में से कोई हो, सबने संस्कारों की पताका और मिट्टी की ख़ुशबू को साथ ही रखा है और पूरी दुनिया में अमन और तरक्क़ी का पैग़ाम पहुंचाया है।  नाज़िर हुसैन के वालिद, रेलवे में गार्ड की नौकरी करते थे और उनका ज़्यादातर समय लखनऊ में बीता, सो इन्होंने भी अवध की चाशनी में अल्फ़ाज़ों को डुबाना, वहाँ सीख लिया। थोड़े बड़े हुए तो रेलवे में नौकरी भी लग गई नाज़िर हुसैन साहब की, बतौर फ़ायरमैन। लेकिन ये सिलसिला लंबा न चला। ज़िंदगी और भी तजुर्बे देना चाहती थी इन्हें। दूसरा जंग-ए-अज़ीम दुनिया पर क़हर बन कर टूटा था और ब्रिटिश सेना, जंग के मैदान में जो ख़ून बहा रही थी, उनमें से ज़्यादातर, हिंदुस्तानी सैनिकों का था। नाज़िर भी सेना में भर्ती हुए और इन्हें मलेशिया और सिंगापुर में लड़ाई के लिए भेज दिया गया। वहाँ ये बंदी बना लिए गए, और भी कई सैनिकों के साथ। जब आज़ाद हुए वहाँ से, तो आंखों में आज़ाद हिन्दुस्तान के सपने लिए, नेता जी के आज़ाद हिन्द फ़ौज में भर्ती हो गए।

फ़िल्म ‘आया सावन झूम के’ में धर्मेन्द्र,बिंदु के साथ नाज़िर हुसैन (PC-Cinestaan)

आज़ाद हिन्द फ़ौज और नेता जी के साथ यहाँ के सियासतदानों ने क्या किया, ये एक अलग कहानी है, लेकिन जिस देश के लिए, उस फ़ौज के साथ नाज़िर लड़े, उसी देश में एक अदद नौकरी को तरस गए, क्योंकि, उस दौर में, आज़ाद हिन्द फ़ौज से किसी भी सूरत में जुड़े रहे लोगों से दूरी बना कर रहते थे। नाज़िर हुसैन के लिए, ये सूरत-ए-हाल, सितारों की एक ख़ूबसूरत साज़िश साबित हुई और इन्होंने बी०एन० सरकार के साथ मिलकर नाटक करना शुरू किया। यहीं उनकी मुलाक़ात, महान बिमल रॉय से हुई।

“50 का दशक शुरू हो चुका था और जंग के बाद फिर से दुनिया अपने ऊपर लगे धूल को झाड़कर उठ जाने को बेचैन थी। ये बेचैनी, नाज़िर हुसैन के दिल में भी थी। वे सब कुछ बताना चाहते थे, उस फ़ौज के बारे में, उस आज़ादी की दीवानगी के बारे में, जिसे इन्होंने जीया था। बिमल रॉय के साथ, 1950 में, इन्होंने एक फ़िल्म बनाई, जिसका नाम था, “पहला आदमी”। इस फ़िल्म में न केवल ऐक्टिंग की, पटकथा और डायलॉग भी लिखे नाज़िर हुसैन ने। “

इसके बाद नाज़िर हुसैन, बिमल रॉय की, “दो बीघा ज़मीन” और “देवदास” में भी नज़र आए। सुबोध मुखर्जी, जो कि उस ज़माने के बड़े निर्माता थे, उनके साथ देव आनंद की फ़िल्म, “मुनीम”, में भी ये नज़र आए। देव आनंद की कई फ़िल्मों में इन्होंने काम किया। नाज़िर हुसैन ने अपने दौर के हर बड़े सितारे के साथ काम किया। इन्होंने न केवल ऐक्टिंग की, निर्देशन भी किया, लेखन भी किया।

फ़िल्म ‘ज्वेल थीफ़’ के एक दृश्य में देवानंद और नाज़िर हुसैन (PC-Cinestaan)

इनकी अदाकारी, इतनी सहल अंदाज़ थी कि चाहे गांव का मजबूर किसान बनना हो, चाहे रिक्शा खींचने वाला या अमीर ज़मींदार, हर किरदार में ये ज़बरदस्त दिखते थे। इनके चेहरे पर जो भाव उभरते थे, वो इतने सच्चे दिखते थे कि ये तुरंत दर्शकों से जुड़ जाते थे। इन्होंने 500 से ज़्यादा फ़िल्मों में काम किया।

तत्कालीन राष्ट्रपति, डॉ० राजेन्द्र प्रसाद से कई बार चर्चा कर के, इन्होंने भोजपुरी फ़िल्म उद्योग की रूप रेखा बनाई और इस सपने को साकार भी किया। 1962 में आई पहली भोजपुरी फ़िल्म, “गंगा मैया तोहे पियरी चढ़इबो”, इन्होंने ने ही लिखी थी। इसके बाद भी, “हमार संसार” और “बलम परदेसिया”, जैसी फ़िल्मों के निर्माण, निर्देशन और लेखन में, ये सक्रिय रहे। इसी कारण इन्हें, भोजपुरी फ़िल्मों का “पितामह” भी कहा जाता है।

पार्श्वगायक मो.रफ़ी और नाज़िर हुसैन

नाज़िर हुसैन ने भोजपुरी फ़िल्मों को वो मुक़ाम दिया था कि मो० रफ़ी और लता मंगेशकर जैसे महान कलाकार भी भोजपुरी फ़िल्मों में ख़ुशी से गाते थे। “लिपस्टिक” वाले गाने से भोजपुरी को जोड़कर पूरी दुनिया में इसकी मानहानि कराने वाले लोग, “ठीक है” और “बगलवाली” को पूरी भोजपुरी कला मानने वाले लोग, भिखारी ठाकुर और महेन्द्र मिश्रा की विरासत को भूल जाने वाले लोग, बहुत पीछे धकेल चुके हैं उस सपने को जो नाज़िर हुसैन ने देखा था। आज भोजपुरी, पिछड़ेपन और मज़ाक वाली भाषा बनकर रह गई है। नाज़िर हुसैन को सच्ची श्रद्धांजलि के रूप में हम ये वादा दे सकते हैं कि हम फिर से याद दिलाएंगे दुनिया को कि हमारी बोली में जादू है, जो एक पल में किसी को अपना बना लेती है।

1987 में नाज़िर हुसैन साहब चल बसे, आज अगर वे होते तो भोजपुरी फ़िल्म उद्योग फूहड़पन से काफ़ी दूर पूरी दुनिया में बहुत ऊंचे मुक़ाम पर होता।

नाज़िर साहब, आप हमारी यादों में ज़िंदा रहेंगे।

(लेखक जाने-माने साहित्यकार, स्तंभकार, व शिक्षाविद हैं.)

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