डॉ० कुमार विमलेन्दु सिंह | Navpravah Desk
कहते हैं रात को अपनी ख़ूबसूरती बताने के लिए, अल्फ़ाज़ नहीं लगते, एक चांद काफ़ी होता है और चांद को ऐतबार होता है कि उससे दूर रह कर भी, उससे ज़्यादा रौशन हो कर भी, सितारे, उसे संवारेंगे। ठीक ऐसा ही होता है ज़िंदगी में भी, हर कामयाबी,किसी के होने भर से असरदार बनती है, कुछ नाम ख़ामोशी से चले जाते हैं और कुछ बख़ूबी इफ़्तेख़ार कहलाते हैं।
सैदना इफ़्तेख़ार अहमद शरीफ़ ख़ान, यही नाम था इनका इफ़्तेख़ार कहलाने के पहले। इनकी पैदाइश, 1920 में जलंधर में हुई और पंजाब की रूमानी आब-ओ-हवा में तरबियत पा कर जब ये जवान हुए, तो ख़ुद में, तरन्नुम सा महसूस किया और गाने में इनकी दिलचस्पी हुई। ये लखनऊ गए, वहाँ पेंटिंग भी सीखी, लेकिन गायक बनने का सपना न छोड़ सके। इनके आस पास के लोग अकसर इन्हें सुनते और सराहते थे। इन्हें के०एल० सहगल बहुत पसंद थे और ये उन्हीं के अंदाज़ में गाते थे। शौक़, इस हद तक था कि एक बार इन्होंने, किसी इश्तिहार में देखा कि HMV, कलकत्ते में कोई ऑडिशन रख रही थी, गायकों के लिए। जवानी का जोश और पुरज़ोर शौक़, इफ़्तेख़ार, अगले ही कुछ दिनों में कलकत्ते में थे। ऑडिशन में, इनकी आवाज़ को सराहा गया और कमल दासगुप्ता, जो HMV के मुलाज़िम थे, उन्होंने इनकी शख़्सियत की ख़ूब तारीफ़ कर दी, एक प्रोडक्शन हाउस में। बात ही बात में, इफ़्तेख़ार को उनकी पहली फ़िल्म, बहैसियत ऐक्टर मिल गई। ये साल था 1944 और फ़िल्म थी “तक़रार”।
1947 में मुल्क़ के तक़सीम होने के बाद, इनके सारे रिश्तेदार उस तरफ़ के हो रहे, लेकिन ये यहीं रहे। इन्होंने हाना जोसफ़ नाम की यहूदी महिला से शादी कर ली थी और उस वक़्त के मुश्किल हालात में, कलकत्ते रहना ठीक नहीं था, सो ये परिवार के साथ मुंबई चले गए। कलकत्ते में रह चुके होने की वजह से, और वहाँ फ़िल्मों में काम करने की वजह से, इनकी जान पहचान अनिल बिस्वास (म्यूज़िक डायरेक्टर) और उनके दोस्त अशोक कुमार से थी।
“उस दौर में जान पहचान होते हुए भी, अशोक कुमार से मिल पाना ज़रा मुश्किल सा था। बात 1949 की है, फ़िल्म “महल” की शूटिंग में अशोक कुमार और मधुबाला, जी जान से लगे हुए थे और इफ़्तेख़ार भी ये शूटिंग देखने पहुंचे थे। इन्होंने अनूप कुमार जो कि अशोक कुमार के छोटे भाई थे, उनके हाथों एक पुर्ज़ा भेजा। अशोक कुमार ने उसे पढ़ा, उसमें मदद की मांग थी। इसके बाद इफ़्तेख़ारकी ख़ूब मदद हुई।”
50 के दशक में, “मिर्ज़ा ग़ालिब”, “श्री 420” और “देवदास” जैसी बड़ी फ़िल्मों का ये हिस्सा रहे और इनके अलावा भी कई फ़िल्में इन्होंने की। ये मशहूर हो चुके थे और 60 के दशक के शुरुआत में ही, बिमल रॉय की “बंदिनी” में ये दिखे और फिर इन्हें फ़ुर्सत न मिली। 1969 में एक फ़िल्म आई, “इत्तेफाक”, इसमें ये एक कड़क पुलिस इंस्पेक्टर का किरदार निभा रहे थे, बस यहीं से ये पुलिस की वर्दी, इनके साथ चस्पा हो गई। इसके बाद तो ये “डॉन”, “ज़ंजीर”, “विश्वनाथ”, “बेशरम” जैसी कई फ़िल्मों में पुलिस ही बने, हालाकि बाद की फ़िल्मों में इनकी तरक़्की, इंस्पेक्टर से कमिश्नर के ओहदे तक हुई।
इन्होंने 400 से ज़्यादा फ़िल्मों में काम किया। हिन्दी के अलावा अंग्रेज़ी टीवी सीरियल, “माया” और डॉमिनिक लैपिएर के उपन्यास पर आधारित, “City of Joy” में भी, इन्होंने काम किया।
1995 में 75 साल की उम्र में ये गुज़र गए और क़ानून के लंबे हाथों की बारहा याद दिलाने वाला अज़ीम अदाकार चला गया। ये अपने ही जैसे उन सितारों में से एक थे, जो सिनेमा के फ़लक पर चांद को सजाने के लिए लाज़िम होते हैं।
(लेखक जाने-माने साहित्यकार, स्तंभकार, व शिक्षाविद हैं.)