भूली हुई यादें- “चन्द्रशेखर दुबे”

डॉ. कुमार विमलेन्दु सिंह | Navpravah Desk

1942 का साल था, दूसरी जंग-ए-अज़ीम के शोलों से, दुनिया जल रही थी और हिन्दुस्तान में क्रिप्स मिशन नाकामयाब हो चुका था, लगभग सभी बड़े नेता जेलों में बंद कर दिए गए थे और “भारत छोड़ो” के नारे से हर गली गूंज रही थी| ऐसा कहा जा सकता है कि तारीख़ के हर पन्ने पर कभी न मिटने वाले अफ़साने लिखे जा रहे थे| कुछ लोग इन अफ़साना बन चुकी बातों को अपने सामने देख रहे थे| ऐसे ही एक शख़्स थे, चन्द्रशेखर दूबे, जो मध्य प्रदेश के देवास ज़िले में, न केवल ये सब होता देख रहे थे बल्कि भारत छोड़ो आंदोलन में अपनी हाज़िरी भी दर्ज़ करा रहे थे| नतीजतन, इन्हें भी गिरफ़तार कर लिया गया|

चंद्रशेखर दुबे (PC-Youtube)

1924 में पैदा हुए चन्द्रशेखर दूबे, 18 साल की उम्र में देश के लिए, जेल गए| वहाँ से रिहा होते ही, ये सीधा मुंबई चले गए और वहाँ एक्टिंग के काम की खोज के साथ समाज सेवा भी करने लगे|

“ये पढ़ाई लिखाई का महत्व जानते थे इसलिए पढ़ाई करने वाले नौजवानों की मदद भी करते थे| मुंबई में कुछ ही सालों बाद इन्होंने अमीय चक्रवर्ती के यहाँ, बतौर असिस्टेंट नौकरी कर ली| अमीय चक्रवर्ती बहुत बड़े निर्माता, निर्देशक थे| दूबे इनके साथ ही फ़िल्में बनाने के काम को सीखने लगे.”

1953 में आई फ़िल्म, “पतिता” में अमीय चक्रवर्ती ने इन्हें एक छोटा सा रोल दिया और यहीं से इनका सफ़र शुरू हो गया| इस फ़िल्म में इनका रोल बहुत छोटा था, लेकिन इन्होंने अपनी पहचान बना ली थी| 1955 में आई “मि०&मिसेज़ 55” में इन्हें महान गुरुदत्त ने मौक़ा दिया और इसके बाद इन्होंने लगातार काम करते हुए, लगभग 200 फ़िल्मों में काम किया|

एक फ़िल्म के दृश्य में संजीव कुमार और अन्य कलाकारों के साथ बतौर मुनीम, चंद्रशेखर दुबे

इनके किरदार ज़्यादातर मुनीम, साहुकार जैसे लालच से भरे इंसान के हुआ करते थे और निगेटिव शेड्स के होते थे| देश के तमाम बड़े अभिनेताओं और निर्देशकों के साथ इन्होंने काम किया और इनके द्वारा की गई फ़िल्मों की फ़ेहरिस्त बहुत लंबी है|

चन्द्रशेखर दूबे जी ने अभी फ़िल्मों के लिए काम शुरू ही किया था कि हमारे देश में, 1957 में, “विविध भारती सेवा” की शुरूआत हुई और इसका मोटो रखा गया, “देश की सुरीली धड़कन”, जो आगे के सालों में सच भी साबित हुआ| इसी विविध भारती पर एक कार्यक्रम बहुत मशहूर हुआ, “हवा महल”, जिसमें नाटककारों के नाटकों को डायलॉग के माध्यम से रेडियो पर ही प्रस्तुत किया जाता था| इसमें कई सालों तक, कई नाटकों में इनकी आवाज़ गूंजती रही| एक और मशहूर रेडियो कार्यक्रम, “फ़ौजी भाईयों” में भी इनकी आवाज़ का जादू बहुत दिनों तक चला|

चन्द्रशेखर दूबे हमेशा ही एक चरित्र अभिनेता रहे और इनका स्क्रीन प्रेज़ेस भी इतना असरदार होता था कि ये दर्शकों को याद रह जाते थे| इनके ज़िंदा रहते इनकी आख़िरी फ़िल्म थी, 1993 में आई, “दलाल”, इसी साल सितंबर के महीने में, 69 साल की उम्र में वे गुज़र गए|

चन्द्रशेखर दूबे को मुनीम या साहुकार के अलावा, उनके अपने नाम से भी जाना जाए और याद किया जाता रहे, यही दुआ है|

(लेखक जाने-माने साहित्यकार, स्तंभकार, व शिक्षाविद हैं.)

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