डॉ० कुमार विमलेन्दु सिंह | Navpravah Desk
क़ायनात की फ़ितरत ही नहीं ख़ुद-ब-ख़ुद चलना, कोई चलाता है इसे नज़र की हदों के बाहर से, हंसाता है, रुलाता है, ठहराता है और जब नचाता भी है ज़ोर से, कुछ चल नहीं पाता दिल या दिमाग़ का और एक खामोश मंज़ूरी के साथ, एक ही सदा गूंजती है कहकशां में, “मी रक़्सम, मी रक़्सम (मैं नाचता/नाचती हूं, मैं नाचूंगा/नाचूंगी)।” कुक्कु मोरे भी नाचीं, पहले फ़िल्मों में और फिर क़िस्मत के इशारों पर।
कुक्कु मोरे का जन्म, 1928 में, एक ऐंग्लो इंडियन परिवार में हुआ और बचपन से ही नाचना इन्हें पसंद था। परिवार का माहौल भी बहुत ख़ुशनुमा था और आए दिन किसी न किसी बहाने इन्हें अपनी कला दिखाने का मौक़ा मिलता ही रहता था। इससे इन्हें ख़ुशी तो मिलती थी लेकिन मन ही मन ये ठान चुकी थीं कि ये फ़िल्मों में काम ज़रूर करेंगी। अभी इनकी उम्र 18 साल की ही थी, कि इनकी ख़्वाहिश पूरी हो गई।
1946 में आई फ़िल्म, “अरब का सितारा”, इसमें इनके डांस की इतनी तारीफ़ हुई कि इनके पास बड़ी फ़िल्मों के काम आने लगे। 1948 में आई फ़िल्म, “अनोखी अदा”, महबूब ख़ान बना रहे थे और इसमें एक डांस सीक्वेंस, कुक्कु मोरे का भी रखा गया। इसके बाद इन्हें कामयाब फ़िल्मों का फ़ार्मुला मान लिया गया।
“1949 की फ़िल्म, “बरसात” का गीत, ” पतली कमर है, तिरछी नज़र है”, इतना मक़बूल हुआ कि कुक्कु मोरे, ख़ूबसूरती का मिसाल बन गईं। इन्होंने ख़ूब काम किया, ख़ूब दौलत कमाई।”
कुक्कु बहुत मेहमाननवाज़ थीं और दोस्ती निभाना जानती थीं। जब हेलेन का परिवार मुंबई में मुफ़लिसी का दौर काट रहा था, तब इन्होंने ही 13 साल की हेलेन को पहली बार फ़िल्मों में काम दिलवाया था और आगे भी कई साल तक मदद करती रहीं। शुरुआत के दिनों में जब प्राण बमुश्किल अपने दिन गुज़ार रहे थे, उनकी भी मदद कुक्कु ने की थी। इनका एक आलीशान बंगला था और तीन मोटर कारें थीं, रोज़ जलसे होते थे, रोशनी होती थी।
हेलेन को ये बहुत मानती थीं। 1958 में आई “यहूदी” और “चलती का नाम गाड़ी” में दोनों को साथ नाचते देखा जा सकता है और आसानी से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि कौन बेहतर है। 1963 में आई “मुझे जीने दो” इनकी आख़िरी फ़िल्म साबित हुई, क्योंकि इसके बाद फ़िल्मों ने मीठी ज़ुबान और ज़मीर का ज़्यादा ख़याल न रखने वाले नए सितारे खोज लिए थे।
अब कुक्कु के बंगले पर जलसे भी बंद हो गए, मोटर कारें भी न रहीं और इन्हें कैंसर भी हो गया। कोई हमसफ़र भी न था। कुक्कु इतनी ग़रीब हो चुकी थीं कि सड़ी गली सब्जियां मांग कर खाना पकाना पड़ता था उनको।
1981 में कुक्कु गुज़र गईं और कोई नहीं आया उनकी उस रौशन दुनिया से, जहाँ होना उनका ख़्वाब था।
” ख़ामोशी पे ही हक़ रहा किया अपना
हम चिराग़ थे, कहते भी क्या बुझने के पहले”
-डॉ० कुमार विमलेन्दु सिंह ‘विमल’
(लेखक जाने-माने साहित्यकार, स्तंभकार, व शिक्षाविद हैं.)