को कहि सकइ प्रयाग प्रभाऊ

को कहि सकइ प्रयाग प्रभाऊ
को कहि सकइ प्रयाग प्रभाऊ
डॉ. जीतेन्द्र पाण्डेय । Navpravah.com
                   
लगभग डेढ़ दसक पहले की बात है। इंटरमीडिएट करने के बाद  मैं मुम्बई चला आया और मेरा भतीजा बरुण, इलाहाबाद। चिट्ठियां एक दूसरे की खैरियत जानने का माध्यम बनीं। जहां तक मुझे याद है,  बरुण ने धर्मवीर भारती की इन पंक्तियों को अपने दूसरे पत्र में कुछ यूँ उद्धृत किया था, “अगर पुराने जमाने की नगर-देवता की और ग्राम-देवता की कल्पनाएं आज भी मान्य होतीं तो मैं कहता कि इलाहाबाद का नगर-देवता जरूर कोई रोमैन्टिक कलाकार है। ऐसा लगता है कि इस शहर की बनावट, गठन, जिंदगी और रहन-सहन में कोई बंधे-बंधाए नियम नहीं, कहीं कोई कसाव नहीं, हर जगह एक स्वच्छंद खुलाव, एक बिखरी हुई-सी अनियमितता। बनारस की गलियों से भी पतली गलियां और लखनऊ की सड़कों से चौड़ी सड़कें । यार्कशायर और ब्राइटन के उपनगरों का मुकाबला करने वाले सिविल लाइन्स और दलदलों की गंदगी को मात करने वाले मुहल्ले । मौसम में भी कहीं कोई सम नहीं, कोई संतुलन नहीं । सुबहें मलयजी, दोपहरें अंगारी, तो शामें रेशमी ! धरती ऐसी कि सहारा के रेगिस्तान की तरह बालू भी मिले, मालवा की तरह हरे-भरे खेत भी मिले और ऊसर और परती की भी कमी नहीं । सचमुच लगता है कि प्रयाग का नगर-देवता स्वर्ग-कुंजों से निर्वासित कोई मनमौजी कलाकार है जिसके सृजन में हर रंग के डोरे हैं ।” जादू-सा असर छोड़ने वाली इन पंक्तियों को मैंने कई बार दोहराया ।पढ़ते-पढ़ते इस अल्हड़ शहर के लिए एक आकर्षण-सा पैदा हो गया । इलाहाबाद को देखने की इच्छा हिलोरें लेने लगीं । कहते हैं प्रबल इच्छाएं अवश्य पूरी होती हैं । मेरी भी हुई । वह भी, थोक के भाव में । 
                      जितनी बार भी इलाहाबाद गया, प्रयाग के नज़दीक आता गया । याज्ञीक अनुष्ठानों की आर्य भूमि की उर्वरता अपनी ओर खींचती गई । प्रजापति सहित देवों की प्रिय भूमि प्रयाग का महात्म्य अनेक ग्रन्थों ने गाया है । ‘याज्ञेभ्यः प्रकृष्टः’ अर्थात् ‘यज्ञों से बढ़कर’ कहकर स्कंद पुराण में प्रयाग का अर्थ-विस्तार किया गया है । यदि मत्स्यपुराण सभी तीर्थों की तुलना में इसे अधिक प्रभावशाली मानता है तो ब्रह्मपुराण प्रकृष्टता के कारण प्रयाग को ‘तीर्थराज’ घोषित करता है – ‘प्रकृष्टत्वात्प्रयागोसौ प्राषान्याद्राजशब्दवान् ।’ कूर्मपुराण, मत्स्यपुराण तथा महाभारत के वनपर्व में प्रयाग के भौगोलिक विस्तार की विधिवत चर्चा की गई है । इनमें तीन कूपों (प्रयाग, प्रतिष्ठानपुर और अलर्कपुर) की संगम से दूरी बताई गई है । तीन अग्निकुंडों से घिरी गंगा  की बात इस प्रकार स्वीकार की गई है –
“तत्र त्रीण्यग्निकुंडानि येषां मध्ये जाह्नवी” अर्थात् वहां तीन कुंडों के बीच गंगा हैं । 
महाभारत, वनपर्व (87/73)
                 पौराणिक साक्ष्यों के अनुसार प्रयाग में त्रिदेवों का वास है । प्रतिष्ठान के उत्तर में ब्रह्माजी का वास है, भगवान विष्णु वेणीमाधव के रूप में विराजते हैं और जटाधारी शिव अक्षयवट रूप धारण किए हैं । इनके अलावा देवतागण, गंधर्व, ऋषियों और मुनियों की अदृश्य उपस्थिति मौजूद रहती है अथवा ये इस पवित्र स्थल पर आते-जाते रहते हैं । माघ महीने में तो सारे तीर्थों का संगम प्रयाग क्षेत्र में होता है । अतः कल्पवास के लिए यह महीना महत्त्वपूर्ण माना जाता है । प्रत्येक 12 वर्ष में आयोजित कुंभ मेले में मात्र मनुष्य ही नहीं बल्कि अदृश्य शक्तियां भी इस अवसर का लाभ उठाती हैं । गौरा गंगा और श्यामा यमुना के संधि क्षेत्र को ‘संगम’ के नाम से पुकारा जाता है । ऋग्वेद में इसकी चर्चा की गई है कि कृष्ण और श्वेत जल वाली सरिताओं में स्नान करने वाला मनुष्य स्वर्गाधिकारी होता है । प्रयाग का संगम  ‘त्रिवेणी’ के नाम से विख्यात है । गंगा-यमुना के अलावा ‘सरस्वती’ भी यहां प्रवाहित हैं किंतु इनकी धारा दिखाई नहीं देती । इस संदर्भ में कई मान्यताएं हैं । कुछ विद्वानों का कहना है कि ‘सरस्वती’ कोई जलपूरिता नदी नहीं बल्कि विज्ञों के मुख से निसृत “ज्ञान-धारा” है । उनकी इस ज्ञान-धारा को श्रवण करना सबसे उत्तम कोटि का स्नान है । अन्य जानकारों का मानना है कि सरस्वती ‘पाताल-प्रवाहिता’ हैं । इस बात की चर्चा कई ग्रन्थों में भी की गई है । ऋग्वेद में तो सरस्वती नदी को ‘नदीतमा’, ‘सर्वश्रेष्ठ माँ’, ‘सर्वश्रेष्ठ देवी’ आदि सम्मानसूचक शब्दों से संबोधित किया गया है । पारसियों के धार्मिक ग्रन्थ ‘अवेस्ता’ में सरस्वती का नाम ‘हरहवती’ है । इस नदी के वाह्य अस्तित्व की चर्चा होती रही है । राष्ट्रीय परिदृश्य में इसे तब नोट किया गया जब यमुनानगर, कुरुक्षेत्र और फतेहाबाद जनपद के कुछ क्षेत्रों को ओएनजीसी (तेल और प्राकृतिक गैस निगम लिमिटेड) द्वारा ‘जल-स्रोत’ के रूप में चिन्हित किया गया ।
                महाभारत के वनपर्व (87|18-19)  में  गंगा-यमुना के लोक प्रसिद्ध संगम का उल्लेख इस प्रकार है – “गंगायमुनयोर्वीर संगमं लोकविश्रुतम् ।” अपना अस्तित्त्व बनाए रखते हुए भी गंगा-यमुना का घुलनशील स्वभाव चमत्कारिक है । मिश्रण की यही परंपरा “गंगा-जमुनी” तहज़ीब है । ऐसी  संस्कृति जिसमें “सहनाववतु और सहनौभुनक्तु” की विराट भावना छिपी है । यदि सौंदर्य की बात करें , तो अद्भुत ! स्वयं महाकवि कालिदास “रघुवंशम्” में लिखते हैं –
            “क्वचिश्च कृष्णोरगभूषणेव भस्मांगरागा तनुरीश्वरस्य ।
             पश्यानवद्यांगि ! विभाति गंगा भिन्नप्रवाहा यमुना तरंगै: ।।”
                               (रघुवंशम्, 13/57)
             अर्थात् कहीं काले सर्प के भूषण वाले भस्म के अंगरागयुक्त शिवजी के शरीर के समान यमुना के तरंगों के प्रवाह से पृथक् हुई शोभायमान गंगा को देख । गोस्वामी तुलसीदास  तो गंगा और यमुना को तीर्थराज का चंवर घोषित करते हुए लिखते हैं –
              “संगम सिंहासनु सुठि सोहा । छत्रु अखयबटु मुनि मन मोहा ।।
               चंवर जमुन अरु गंग तरंगा । देखि होहिं दुख दारिद भंगा ।।”
                          (रामचरितमानस, अयोध्याकांड)
                अर्थात् (गंगा, यमुना और सरस्वती) संगम ही उसका अत्यंत सुशोभित सिंहासन है । अक्षयवट छत्र है, जो मुनियों के भी मन को मोहित कर लेता है । यमुनाजी और गंगाजी की तरंगें उसके (श्याम और श्वेत) चंवर हैं, जिनको देखकर ही दुःख और दरिद्रता नष्ट हो जाती है । 
                     जो शालीनता और पवित्रता संगम की है उससे कहीं अधिक प्रयाग की है । अनेकानेक संस्कृतियों को आत्मस्थ करने वाले इस शहर का आकर्षण इतना कि  चंद दिनों तक रहने वाला भी, यहां का होकर रह जाय । शरीर जहां भी हो, आत्मा से अटूट जुड़ाव होता है । यहां आकर तृप्ति और सुरक्षा का आभास होने लगता है । यहां के निवासियों और पर्यटकों को दुनिया के हर कोने की झलक प्रयाग में देखने को मिल जाती  है । इलाहाबाद का रंग-रूप और मौसम सभी बेजोड़ । इस संदर्भ में ‘कविता कोश’ के लिए लिखी गई जयकृष्ण राय तुषार की ‘हो गया इलाहाबाद, पेरिस, अबू धाबी’ शीर्षक कविता प्रासंगिक बन पड़ी है –
                “शरद में
                 ठिठुरा  हुआ मौसम
                 लगा होने गुलाबी ।
                 हो गया
                 अपना इलाहाबाद
                 पेरिस, अबू धाबी ।
                 
                 देह से 
                 उतरे गुलाबी –
                 कत्थई, नीले पुलोवर,
                 गुनगुनाने लगे 
                 घण्टों तक
                 घरों के बंद शावर,
                 लॉन में
                 आराम कुर्सी पर
                 हुए ये दिन किताबी ।”
            इलाहाबाद का लोकजीवन अलबेला है । यहां सदा जीवनोत्सव होता है । यहां के लोग राग-विराग, संयोग-वियोग और दुःख- सुख में समानधर्मा हैं । दुःख तो ईश्वर के वरदान के रूप में शिरोधार्य  है । दर्शन और ज्योतिष लोगों की धमनियों में दौड़ता है । द्वैत का आनंदोत्सव मनाता हुआ प्रयाग अद्वैत की ओर सदैव अग्रसर रहता है । महत्त्वाकांक्षाएं यथार्थ की जमीन से अंकुरित होती हैं । अभाव और गरीबी को अभिशाप नहीं बल्कि चंद दिनों का मेहमान समझा जाता है । दिल्ली में अर्थशास्त्र के प्रवक्ता डॉ. सत्येंद्र पूजन प्रताप त्रिपाठी इलाहाबाद के अपने एक दसकीय जीवनानुभव बताते हैं – “यहां महानगरों वाली आपाधापी लोगों में देखने को नहीं मिलती । धनार्जन की ललक में लोग अंधे नहीं हैं । संवेदनाएं जीवित हैं । आप किसी भी दुकान पर 500 की नोट लेकर चले जाइए । दुकानदार के पास यदि फुटकर नहीं है तो कहीं दूसरी जगह से व्यवस्था कर देगा, आपको निराश नहीं करेगा । समान भी देगा और छुट्टा भी । लोगों में सहयोग और प्यार की भावना भरी होती है । मेरा ही उदाहरण ले लीजिए । जब मैंने इस शहर में एक छात्र के रूप में कदम रखा तो मकान मालिक से लेकर संगी-साथियों ने भरपूर सहयोग दिया । मुझे तो इलाहबाद ने सदैव पितृवत सुरक्षा और मातृवत स्नेह दिया है । कदम-कदम पर ग्रामीण संस्कृति की खुशबू बिखरी पड़ी है ।” 
                अतीत को बयां करते-करते डॉ. त्रिपाठी की आंखें चमकने लगीं । चर्चा विश्वविद्यालयीन परिवेश की होने लगी । उन्होंने बताया कि हमारे प्रोफेसर ‘गुरु’ के भारी-भरकम पद से अपने को हल्का किए रहते हैं । शिष्यों के दुःख-सुख में इतनी पैठ बना लेते कि ज़िगरी हो जाते हैं । यहां तक कि सड़क पर चलती लड़की पर दोनों एक साथ कमेंट करेंगे (हलांकि यह बात उन्होंने हंसी में उदाहरण के तौर पर कही ) । हाँ, आरक्षण और गंदी राजनीति के कारण आजकल का अकादमिक स्तर ज़रूर गिरा है ।”
                      अमीर हो या गरीब, राजा हो या रंक, सभी अपने कर्म के मर्म को समझते हैं । महाप्राण निराला की निम्न पंक्तियां इसी रहस्य का उद्घाटन करती हैं –
           “वह तोड़ती पत्थर ;
            देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर
            वह तोड़ती पत्थर ।
             ×              ×                ×            
            देखते देखा मुझे तो एक बार
            उस भवन की ओर देखा, छिन्नतार ;
            देखकर कोई नहीं,
            देखा मुझे उस दृष्टि से
            जो मार खा रोई नहीं,
            सजा सहज सितार,
            सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार
            एक क्षण के बाद वह कांपी सुघर,
            ढुलक माथे से गिरी सीकर,
            लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा –
            मैं तोड़ती पत्थर ।
         (अंतिम दूसरी पंक्ति इस संदर्भ में महत्त्वपूर्ण है)
            वर्तमान इलाहाबाद में सब शुभ ही शुभ नहीं है । कई यात्राओं में मैंने यहां के श्यामल पक्ष को नजदीक से देखा है । आस्था और आचरण में भिन्नता पाई  है । रविप्रकाश की ‘इलाहाबाद’ शीर्षक कविता में भी कुछ इसी तरह की बात हुई है –
             “लेकिन जब-जब इस दरबे से बाहर निकलने की कोशिश करता हूँ
              और सोचता हूँ कि
              ये खाई में पड़े हुए लोग
              मेरे साथ खड़े होंगे
              लेकिन तभी बजता है एक शंख
              मंदिर का घड़ियाल
              और लोग खड़े हो जाते हैं
              लेकर मेरी अस्थियों का कलस ।”
           इन सबके बावजूद प्रयाग की भूमि उर्वर है । अनेकों महापुरुषों ने यहां जन्म लेकर दुनिया को ज्ञान-विज्ञान का पाठ पढ़ाया । लगातार प्रतिभाओं का स्फुरण और प्रसरण हो रहा है । वेदों और पुराणों द्वारा यहां की महिमा का बखान अपार  है । दुनिया के सारे विद्वान यदि एक साथ ‘प्रयाग-महात्म्य’ लिखें तो भी पार न पाएं और मैं दो टके का आदमी, चला  यात्रा वृत्तांत लिखने ! मुझे अपनी औकात में रहकर मानना चाहिए था – “को कहि सकइ प्रयाग प्रभाऊ ।”

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