लेखक: डॉ. धीरेन्द्रनाथ मिश्र
नेविगेशन प्रणाली उस प्रणाली को कहते हैं जिसके द्वारा किसी पोत, वाहन आदि के बीच ध्वनियों या संकेतों के माध्यम से संचार होता है। नेविगेशन प्रणाली कार्यो के आधार पर विभिन्न प्रकार की होती है। उपग्रह नेविगेशन सिस्टम कृत्रिम उपग्रहो की एक ऐसी प्रणाली होती है जो इलेक्ट्रानिक रिसीवर द्वारा वस्तु की स्थिति का पता उसकी अक्षांशीय और देशान्तरीय स्थितियों के आधार पर ज्ञात की जाती है। ये इलेक्ट्रानिक रिसीवर वर्तमान स्थानीय समय की गणना कर देते हैं। जबकि ऑटोमाटिव नेविगेशन सिस्टम का प्रयोग गाडि़यों में किया जाता है। सर्जिकल नेविगेशन का प्रयोग सी टी स्कैन या एम आर आई स्कैन में किया जाता है। वर्तमान में नेविगेशन का प्रयोग आर्टिफिशियल इन्टीलिजेन्स के क्षेत्र में रोबोटस की मैपिंग में भी किया जाने लगा है। नौसेना के जहाजों, पनडुब्बियों आदि का पता लगाने के लिए मैरिन नेविगेशन सिस्टम का प्रयोग किया जाता है।
विभिन्न देशों ने अपनी अपनी नेविगेशन प्रणाली का विकास किया है। कुछ मुख्य देशों द्वारा विकसित प्रणाली निम्न प्रकार है- ग्लोबल पोजीशनिंग सिस्टम – यह संयुक्त राज्य अमेरिका के रक्षा विभाग द्वारा विकसित वैश्विक नौवहन उपग्रह प्रणाली है। आरम्भ में इसका प्रयोग सेना के कार्यो में ही होता था, परन्तु वर्तमान में नागरिक कार्यों में भी ग्लोबल पोजीशनिंग सिस्टम का प्रयोग किया जाने लगाहै। अमेरिका में इसकी शुरुआत 1960 से मानी जाती है। ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टत तीन क्षेत्रों से मिलकर बनता है- स्पेस सेगमेंट, कंट्रोल सेगमेंट और यूजर सेगमेंट। इस प्रणाली के द्वारा गति, देरी, टैªक या किसी स्थान के सूर्योदय- सूर्यास्त आदि अन्य भौगोलिक स्थितियों तथा आपदाओं का पता लगाया जा सकता है।
गैलीलियो- 28 दिसम्बर 2005 को यूरोपीय कजाकिस्तान के बैकानूर प्रक्षेपण केन्द्र से उपग्रह निर्देशन प्रणाली उपग्रह का सफल प्रक्षेपण कर उपग्रह नेविगेशन के क्षेत्र में नये युग का सूत्रपात किया। इस परीक्षण का नाम जियोव-ए रखा गया। यह एकमात्र प्रणाली है जो गाड़ी चालक को रास्ता दिखने से लेकर तलाशी और राहत सहायता के लिए इस्तेमाल की जाती है। 4.27 अरब डॉलर की गैलीलियो परियोजना के तहत अेतरिक्ष में 30 उपग्रहों को स्थापित किसे जाने के बाद नेविगेशन के मामले में यूरोप आत्मनिर्भर हो जाएगा जो अमेरिकी सेना द्वारा संचालित इस प्रणाली का वाणिज्यिक विकल्प बनकर सामने आएगा।
ग्लोनैस- रुस के ग्लोनैस सैटेलाइट सिस्टम के सिग्नल लेने के लिए भारत ने सहयोग समझौता किया है उसका भारत के सैनिक इस्तेमाल कर सकते हैं, जबकि अमेरिकी जीपीएस से यह सुविधा उपलब्ध नही थी। ग्लोबल नेविगेशन सैटेलाइट सिस्टम के पूरी तरह सक्रिय हो जाने के बाद भारतीय लड़ाकू विमानों, युद्धपोतों और अन्य जमीनी हथिसार जैसे टैंकरों को पोर्टेर्बल हैंडसेट से कोई सैनिक एक मीटर के अनुमान से सीमा पार दुश्मन की स्थिति का पता लगा सकता है।
कम्पास – यह चीन द्वारा निर्मित नेविगेशन प्रणाली है। यह ठमपक्वन की अगली जेन्रेशन है। इसमें वर्ष 2020 तक 35 उपग्रह शामिल किये जाने की सम्भावना है।
भारतीय क्षेत्रीय नेविगेशन उपग्रह प्रणाली- यह भारत द्वारा विकसित नेविगेशन प्रणाली है। यह एक स्वायत्तशासी क्षेत्रीय प्रणाली तंत्र है जिसका निर्माण भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान द्वारा किया गया है। यह पूर्णतया भारत सरकार के नियन्त्रण वाली प्रणाली है। वर्ष 1999 में कारगिल में पाकिस्तानी घुसपैठ और युद्ध के समय भारत द्वारा अमेंरिका से ग्लोबल पोजिशनिंग प्रणाली के माध्यम से त्वरित सूचना प्रदान करने की मॉंग की गयी, परन्तु युद्ध की संकट कालीन स्थितियों में अमेरिका द्वारा नकारात्मक सहयोग प्राप्त हुआ। इस घटना से प्ररित होकर भारत नेविगेशन क्षेत्र में अपनी प्रणाली विकसित करने के लिए संकल्पबद्ध हुआ। भारत ने नेविगेशन के क्षेत्र में प्रयास करने तभी शुरु कर दिये थे परन्तु उसे वास्तविक सफलता 2006 में मिली।
इसरो तथा भारतीय विमानपत्तन द्वारा संयुक्त रुप से विकास किए जाने वाले स्वदेशी उपग्रह आधारित जीपीएस आगमैटेशन तंत्र को गगन नाम दिया गया है। इस परियोजना को मई 2006 में स्वीकृत किया गया था जिस पर लगभग 16000 करोड़ रुपये खर्च होने का अनुमान है। इसके विकास का मूल आधार भारत की वैश्विक उपग्रह संचालन प्रणालियों पर से निर्भरता कम करना है। इसके विकास से भारत की उपग्रह आधारित संचार व नेविगेशन प्रणाली मजबूत होगी।
भुवन भारतीय क्षेत्र के आईआरएस चित्रों को महसूस करने उनकी खोज करने तथा उन्हें देखने का आसान तरीका प्रदान करता है। सह उपग्रह सफलतापूर्वक नीति निर्माण, प्राकृतिक संसाधन प्रबन्धन आपदा सहायता तथा समाज के विभिन्न वर्गों में जीवन की गुणवत्ता में सुधार लाने जैसे प्रमुख क्षेत्रों में अपनी पहचान बना चुका है।
IRNSS-1 A भारत का पहला नेविगेशनल उपग्रह था। 125 करोड़ लागत वाले उपग्रह को इसरो सेटैलाइट सेंटर, बंगलुरु से 1 जुलाई 2013 को प्रक्षेपित किया गया। इस उपग्रह को पीएसएलवी- सी 22 के द्वारा जियो सिन्क्रोनस ऑर्बिट में स्थापित किया गया-IRNSS-1 उपग्रह के सफल प्रक्षेपण के उपरान्त 4 अप्रैल 2014 को पीएसएलवी-सी 24 द्वारा IRNSS-1 B को उसकी कक्षा में स्थापित कर दिया गया। IRNSS योजना के तीसरे उपग्रह IRNSS-1 C का प्रक्षेपण 16 अक्टुबर 2014 को किया गया।
विकास की ओर, एक कदम और…
भारतीय नियन्त्रण और स्वामित्व वाली नौवहन उपग्रह प्रणाली के बारे में जब पूरी दुनिया को चला तब इसने तकनीक में बेहतर विश्व के बड़े देशों को आश्चर्यचकित कर दिया। भारतीय वैज्ञानिक अपनी सफलता की कहानी लिखने के लिए तत्पर हैं जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण हाल ही में देखने को मिला, जब भारत द्वारा नेविगेशन उपग्रह IRNSS-1D का प्रक्षेपण ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान पीएसएलवी-27 के द्वारा श्रीहरिकोटा सतीश धवन अंतरिक्ष केन्द्र से 28 मार्च 2015 को किया गया।
भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान ने IRNSS के गठन के लिए नौ उपग्रहों की योजना बनायी थी। पूरी प्रणाली में सात उपग्रह कक्षा में और दो भूतल पर स्थापित किये जाएॅगें। कक्षा में स्थापित सात उपग्रहों में से IRNSS के तीन उपग्रह जीयोस्टेशनरी ऑर्बिट के लिए और चार उपग्रह जीयो सिनक्रोनस ऑर्बिट के लिए हैं। 1425 किलोग्राम भार वाला IRNSS-1 D के नेविगेशन, टैकिंग और मानचित्र सेवा मुहैया कराएगा और समय सीमा 10 वर्ष की होगी। पीएसएलवी का 29 वॉं मिशन है। भारत के पास अब अपना सशक्त नेविगेशन सिस्टम है। आने वाले समय में भारत IRNSS-1 E और IRNSS-1 F उपग्रह स्थापित करने के लिए तत्पर है, जिससे भारतीय नौवहन प्रणाली क्षेत्र में नये कीर्तिमान स्थापित कर लेगा।
IRNSS प्रणाली का उपयोग देश की सीमा से 1500 किलोमीटर के हिस्से में उपयोगकर्ता को सूचना प्रदान करने में किया जाता है। नक्शा तैयार करने, जियोडेटिक ऑंकड़ें जुटाना, चालकों के लिए दृश्य और ध्वनि के जरिये नौवहन की जानकारी उपलब्ध कराना, भू-भागीय हवाई व समुद्री नौवहन में सहायता प्रदान करना, ऑकड़ों के विश्लेषण से आपदा प्रबन्धन जैसे कार्यों में मदद प्राप्त कराना आदि IRNSS उपग्रह श्रृंखला के प्रमुख कार्य हैं।
भारतीय नौवहन प्रणाली के पूर्ण रुप से काम प्रारम्भ करने के बाद हमारी निर्भरता अन्य देशों पर की हो जाएगी। साथ ही भारतीय मुद्रा की बचत भी होगी। देश के अंतरिक्ष कार्यक्रम देश के सामाजिक आर्थिक विकास में उत्तरोत्तर महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है।
वर्तमान में भारत जीपीएस प्रणाली का प्रयोग भी कर रहा है। रेलवे तथा अन्य परिवहन साधनों को अत्याधुनिक जीपीएस से जोड़ा जा रहा है। इसके माध्यम से जनहित तथा यात्री सुरक्षा से सम्बद्ध सन्देशों को समय समय पर प्रेषित किया जाता है। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन, अहमदाबाद के द्वारा अलॉर्म ट्रांसमीटर नामक चेतावनी यंत्र विकसित किया गया है। यह जीपीएस पर आधारित प्रणाली है। इसके द्वारा कम्प्यूटर पर वाहनों की स्थिति को जाना जा सकता है।
भविष्य में नेविगेशन के क्षेत्र में अपार सम्भावनाएॅं छिपी हैं। पृथ्वी की कक्षा में स्थापित छोटे छोटे उपग्रह हमारे जीवन की छोटी छोटी जरुरतों से जुड़े हैं। भविष्य में इनका दायरा और अधिक बढे़गा। उच्च प्रौद्योगिकी सम्पन्न देशों के बीच खड़े होने के लिए हमें अपने अंतरिक्ष कार्यक्रमों को अधिक सटीक बनाना जरुरी था। भविष्य में जब नेविगेशन प्रणाली से जुड़े अन्य महत्वपूर्ण मिशन पर शोध होगा तो निश्चित ही भारत वैश्विक समुदाय का हिस्सा होगा। भारत के बढ़ते कदम अब अंतरिक्ष भी नापने लगे हैं। भारत ने अंतरिक्ष के क्षेत्र में नये इतिहास को रचते हुए विभिन्न अभियानों को सफलतापूर्वक अंजाम दिया है।
भारत अपनी नेविगेशन प्रणाली की पूर्ण सफलता के न सिर्फ अत्यन्त निकट पहुॅंच चुका है बल्कि विश्व समुदाय को अपनी तकनीक और काबिलियत की ओर आकर्षित भी किया है।
(लेखक परिचय : डॉ. धीरेन्द्रनाथ मिश्र (स्वतंत्र पत्रकार )
प्रयाग में जन्म, देश के प्रतिष्ठित मिडिया समूहों को सेवाएं प्रदान की। २००३ से लगभग सभी मुद्दों पर पत्र-पत्रिकाओं में लेखन ।)