आनंद रूप द्विवेदी,
मशहूर फिल्मकार विवेक अग्निहोत्री ने गोवा में “इंडिया आइडियाज कॉन्क्लेव-2016” को संबोधित करते हुए पत्रकारिता जगत पर अपने विचार व्यक्त किए। अपनी बेबाक छवि के लिए प्रसिद्द विवेक अग्निहोत्री ने बेहद संजीदगी से “मीडिया, फिल्म जगत और समाज के हित में इनके योगदान” से सम्बंधित कुछ सवालिया निशान खड़े किये।
पत्रकारों और फिल्म जगत के सामाजिक सरोकार पर बोलते हुए विवेक ने अपनी बात की शुरुआत बेहद दिलचस्प अंदाज़ में कॉलेज के दिनों से की। उन्होंने बताया कि अपने छात्र जीवनकाल में कैसे कॉलेज प्रशासन द्वारा नेताओं की जी हुजूरी किये जाने की खिलाफत करने पर उन्हें “नक्सल” करार दे दिया गया था।
मीडिया और फ़िल्मी जगत के रवैये का जिक्र करते हुए विवेक ने कहा कि, “2014 में नरेंद्र मोदी की चुनावी दौड़ के विरोध में नामचीन फ़िल्मी हस्तियों और विद्वानों द्वारा एक कैम्पेन चलाया गया था। एक लेटर लिखा गया, जिसमें फासीवादी सरकार चुनी जाए इसका विरोध करना चाहिए ये मूल मुद्दा था।
सबके पास इसमें हस्ताक्षर किये जाने के लिए भेजा गया, लेकिन जब मेरे पास ये लेटर आया तो मैंने हस्ताक्षर करने से मना कर दिया और ऐसा करने वाला मैं पहला व्यक्ति था।
एक चैनल ndtv जो बरखा द्वारा संचालित है, उन्होंने मुझे 9 बजे एक शो में आमंत्रित किया, जिसके पैनल में नंदिता दास, आनंद पटवर्धन, जैसे दिग्गज मौजूद थे जोकि बीसियों सालों से मोदी विरोधी, आरएसएस विरोधी बातें करने के लिए जाने जाते हैं। मेरा राजनीति से कोई लेना देना नहीं और मैं केवल ऐसा व्यक्ति था, जिसने उपरोक्त लेटर में हस्ताक्षर किये थे बाकी सब पहले ही हस्ताक्षर कर चुके थे। चूंकि मैं ऐसे टीवी डिशकशन के लिए एकदम नया था और सभी ने मुझपर अचानक अपने शब्दों से हमला शुरू कर दिया। ऐसे में मैंने एक पलटवार किया और बरखा से कहा, “आप सभी किसी इंटेलेक्चुअल माफिया जैसा बर्ताव क्यों कर रहे हैं?” और वो अंतिम दिन था जब मैं ndtv में गया और अगले 30 मिनट तक किसी ने मुझे बोलने के लिए माइक तक नहीं दिया।”
आगे अपने अनुभवों के बारे में बात करते हुए विवेक ने कहा कि, “कुछ वर्षों के बाद पिछले वर्ष ही जब कन्हैया एपिसोड शुरू हुआ मैंने उन्ही बरखा दत्त को ये चिल्लाते हुए सुना कि “सभ्यता के लिए स्थान का संकुचन हो रहा है।” ये सुनकर मैंने अनायास कहा, “वाह, ये बेहद प्रतिभाशाली बात है।” इसीलिए मैं कहता हूँ कि मेरी मतभिन्नता आपकी मतभिन्नता से कहीं बेहतर है। मेरी इन्ही बातों की वजह से फिल्म जगत में काम करने के मेरे अवसरों में कमी हो गई। सोशल मीडिया पर किसी ने मुझे “इन्टरनेट हिन्दू” करार दे दिया। उस दिन से मैं नक्सल से इंटरनेट हिन्दू हो गया।
जब देश में असहिष्णुता और अवार्ड वापसी का दौर चला, तब अनुपम खेर ने मुझे अपने कैम्पेन में शामिल होने के लिए कहा लेकिन राजनीति में मेरी अरुचि के कारण कैने मन कर दिया। मैंने टीवी में देखा अवार्ड वापसी की अगुवाई शीर्ष विद्वान अशोक बाजपेई कर रहे हैं। मुझे अचानक याद आया 1974- 75 में अशोक बाजपेई, जिन्होंने स्वयं शरद जोशी और दुष्यंत कुमार जैसे साहित्यकारों को सस्पेंड कर दिया था, क्योंकि इन दोनों ने एक समारोह में सम्मिलित होने से मना कर दिया था। समारोह में इंदिरा आने वाली थीं। ये इमरजेंसी के कुछ महीनों पहले की बात है। 1975 में दुष्यंत कुमार की हार्ट अटैक के कारण मृत्यु हो गई, और शरद जोशी जी मृत्यु अभाव के चलते हो गई। ये असली चेहरा है, इमरजेंसी का जब रचनात्मक लोग इस तरह मारे जाते हैं। जब अशोक बाजपेई को मैंने अवार्ड वापसी की अगुवाई करते हुए देखा तो फिर मेरे मुह से निकला, “वाह”। तब मैंने अनुपम खेर से उनके कैम्पेन में शामिल होने के लिए कहा। उस दिन से सबने मुझे “संघी” कहना शुरू कर दिया और मैं एक संघी हो गया।
मेरी तथाकथित फिल्म “बुद्धा इन द ट्रैफिक जाम” जिसे JNU के मीडिया स्टडी सेंटर के डीन ने प्रदर्शित करने से मना कर दिया। ये कन्हैया वाली घटना का समय था, जब देश के सभी दिग्गज पत्रकार चिल्ला रहे थे कि देश में मतभिन्नता के लिए स्थान संकुचित हो रहा है। उसी समय एक बेहद आवश्यक फिल्म आई, आवश्यक इसलिए नहीं क्योंकि ये मेरी फिल्म थी बल्कि इसलिए, क्योंकि ये पहली ऐसी फिल्म है जिसमें इस सम्भावना का जिक्र किया गया है कि मीडिया, NGOs, और नक्सलवाद (नक्सल-अकादमिया-इंटेलेक्चुअल-मीडिया नेक्सस) के बीच में सम्बन्ध है, ये सत्य हैकि सम्बन्ध है। कोई एक पत्रकार भी सामने नहीं आया, जिसने फिल्म को सपोर्ट किया हो। जादवपुर विश्वविद्यालय में मेरी कार पर हमला हुआ, मेरा कन्धा टूट गया, मैं मदद की गुहार लगाता रह गया, लेकिन आपको जानकार आश्चर्य होगा कि मेरी मदद के लिए कौन सामने आया, ये भारत के साधारण छात्र थे।”
विवेक अग्निहोत्री मीडिया की सहभागिता पर बात करते हुए कहते हैं, “जब मैं इन छात्रों-पत्रकारों से बात करता हूँ, तो वो पूछते हैं कि हम इतनी मेहनत करते हैं, जिसका उचित पारिश्रमिक भी नहीं मिलता फिर भी हमें “prestitutes” जैसे शब्दों का सामना क्यों करना पड़ता है? मेरे मत में आज का बड़े से बड़ा पत्रकार स्वयं को सही साबित करने में लिप्त रहता है।
अगर आप फिल्मों की ही बात करें तो साठ के दशक तक की फिल्मों का पत्रकार समाज के हित के लिए लड़ता हुआ दिखाया जाता था। वहीं आज के समय में इस परिस्थिति में भारी परिवर्तन आया है, जब वही पत्रकार एक शहरी व्यक्ति हो चुका है, जो जींस पहनता है और लड़कियों के साथ कभी कभार गाना भी गा लेता है, लेकिन समाज के हित से उसका अब कोई सरोकार नहीं रहा। वो अब समाज के लिए नहीं बल्कि अपने लोगों के लिए लड़ता है। आज फिल्मों में पत्रकार को भ्रष्ट, अमीर, गंदगी से भरे हुए व्यक्ति के रूप में प्रदर्शित किया जाता है। आज के मीडिया ने सभ्य होने की पात्रता को खो दिया है। अब पत्रकार केवल TRP का भूखा होता है। ऐसे में कोई एलियन आकर ही उसे समझा सकता है कि आम आदमी और समाज के हित की पत्रकारिता का क्या महत्त्व है।