“समाज में बदलाव चाहिए? तो शुरुआत करनी ही पड़ेगी”

 प्रो. हेमलता श्रीवास्तव | Navpravah.com

सामाजिक परिवर्तन या सुधार तभी सम्भव हो पाते हैं, जब सम्बंधित समाज ये स्वीकार करे कि “अमुक बुराई” हममें है । सती प्रथा समाप्त हो गई लेकिन कानून और विधान के बावजूद दहेज़ प्रथा और अस्पृश्यता का दंश आज भी हिन्दू समाज को ज़बरदस्त ढंग से भीतर तक सालता है  सोचिये क्यों ? क्योंकि हम अभी भी कुछ कारणों से उन्हें पूरी तरह त्याग नही पाए हैं ।

बीए में पढ़ते समय सारिका पत्रिका में मेहरुन्निसा परवेज़ की कहानी “हलाला” पढ़ी। रूह काँप गई। प्रिंसिपल, टीचर्स, मुस्लिम सहेलियों और माँ से भी बात की; दो ही जवाब मिले पहला  कि, कहानी है , सच नहीं और दूसरा कि, फ़ालतू चीज़ें न पढ़ा करो ।

नब्बे के दशक में जब गूगल बहुत प्रचलित नहीं था,  डॉ नवल अल सादवी की आत्मकथा पढ़ी ” The Hidden Face of Eve “. रोंगटे खड़े हो गए । इसी बीच NIP और दैनिक जागरण में भी उस क्रूर परंपरा के विषय में पढ़ा जिसमे अरब देश सहित विश्व के अनेकों देशों में मुस्लिम लड़कियों को 7-12 की आयु के बीच महिला-खतना (Female-Circumcision) से गुजरना पड़ता था। विनी मंडेला और नवल अल सादवी प्रमुख महिलाएं थीं जिन्होंने इसका विरोध किया था।

वुमेन सेल की अध्यक्ष होने के नाते मैंने तमाम महिला शिक्षकों को वे कागज़ात, अध्ययन और आंकड़े बताए कि कैसे लगभग प्रत्येक वर्ष हज़ारों लड़कियाँ इन्फेक्शन के कारण या  पहले प्रजनन में ही मृत्यु को प्राप्त होती हैं । दो को छोड़कर बाकी सब कागज़ात भी वही छोड़ गईं और मुस्लिम टीचर्स ने तो यहाँ तक कहा कि हमारे धर्म को हेमलता बदनाम कर रही है। ये अलग बात है कि अब गूगल मेरे सत्य को प्रमाणित करता है, लेकिन अपना समाजशास्त्रीय अध्ययन भी मेरी उपेक्षा का कारण बन गया ।

परिवर्तन और सुधार की पहली शर्त होती है, ” हाँ हममें कुछ कमियाँ हैं …. हम इन्हें समाप्त करेंगे … दूसरों को भी समझाएँगे …. सब मिलकर समाज और समुदाय को सुधारेंगे ” । रूढ़िवादी परंपराओं का विरोध करने के लिए आत्म विश्वास भी होना चाहिए कि “हम गलत नहीं हैं ” । मासिक धर्म आने के बाद भी मैंने नृत्य किये, NCC में परेड की, टेबल टेनिस खेली (वह भी तब, जब Spasmindon खाकर मासिक धर्म को स्थगित करने की जानकारी हमें नहीं थी)। पूजा-पाठ भी किये, मंदिर भी गई और अचार-पापड़ भी बनाए ।  सब समझाते थे कि भगवान नाराज़ हो जाएँगे। मेरा मानना था कि देवी-देवताओं के बच्चे भी तो इसी जैविक प्रक्रिया के माध्यम से जन्म लिए होंगे ! जो देवियों और माता रानी के साथ भी होता हो ;  वो मासिक धर्म भला अपवित्र कैसे हो सकता था ?

पारम्परिक वेशभूषा में भारतीय स्त्री (प्रतीकात्मक चित्र)

प्रथाएँ, परम्पराएँ और रीति-रिवाजों के सामने खड़े हो सकने के लिए …. आपके पास अकाट्य तर्क होने चाहिए ।  1977 में विवाह के पश्चात फाफामऊ (इलाहाबाद) पहुँची। यहाँ का अलिखित कानून है कि दूल्हा-दुल्हन आलोपी देवी के दर्शन करेंगे । सजा धजा कर मुझे तैयार किया गया। टेम्पो बुलवाई गई। चलते समय मेरी नज़र अरुण जी पर पड़ी ; अरुण जी घरेलू कपड़ों में थे। ननद से पूछा “तुम्हारे दद्दा ?” झट चचिया सास बोल पड़ीं “अरुण न जइहैं ।”  मैंने पूछा “काहे ?”   अबकी सासु माँ बोलीं  “अरुण क़ब्बउ पूजा पाठ नै किहें ।“   मेरा पारा चढ़ गया – ” तो हमार का दूसर बियाह बा ? हमहू कबहू नै कियें । “

सन्नाटा पसरा गया, बुआ सास समझाने लगीं, “अईसन नै होत दुल्हिन । पूजा तो करै कै पड़ी । ”  मैंने अब अपनी ममिया सास से पूछा, ” मामी ! जो पूजा पति-पत्नी द्वारा गाँठ बांधकर की जाती है, वह अरुणजी के बिना कैसे होगी ?”  एक शानदार सुझाव कही पीछे से मारवाड़ी चाची द्वारा सुझाया गया, ” अरे! अरुण केर पट्टा (शादी का गुलाबी स्टोल) बा न? पूजा होय जाई । ” मैं रुकी, मुड़ी और अपनी ओढ़नी उतारकर मारवाड़ी चाची से बोली, ” चाची ! अब कै लिहू पूजा , ई रहा अरुणजी केर पट्टा अउर ई रहा हेम केर दुपटटा । ” न अरुणजी गए न वो पूजा हुई।  क्या पूजा पाठ केवल स्त्रियों का कर्म क्षेत्र है?

प्रो.हेमलता श्रीवास्तव

विवाह के पहले ही सास-ससुर से घूँघट न करवाने का वादा ले चुकी थी। एक ताया ससुर, दो चचिया ससुर, एक फुफिया ससुर और एक ममिया ससुर के अतिरिक्त उनकी पत्नियों ने भी मेरे ससुर जी के सम्मुख आपत्ति की। उन्होंने मुझे 10 लोगों की सभा के बीच बैठा दिया। मैंने एक ही प्रश्न किया, ” आपने लक्ष्मी, सरस्वती, पार्वती, कौशल्या, कैकेयी, सुमित्रा, सीता, रिद्धि, सिद्धि, सन्तोषी माता को कभी घूँघट में देखा है ?  पता है क्या हुआ?  मेरे बाद परिवार में आनेवाली हर दूर दराज की दुल्हन का भी घूँघट हट गया ।

सत्य केवल इतना होता है कि शुतुरमुर्ग की तरह रेत में मुँह छिपा लेने से आँधी से बचाव नहीं हो सकता । मुस्लिम बहनों ने तीन तलाक़ झेला , आर्थिक अधिकार गँवाए, हलाला की पीड़ा झेली और अंततः डटकर सामने आ गईं । इसलिए बदलाव हो पाएगा ।

(लेखिका, प्रो.हेमलता श्रीवास्तव, इलाहाबाद विश्वविद्यालय (सीएमपीडीसी) के समाजशास्त्र विभाग की पूर्व विभागाध्यक्ष, व वरिष्ठ समाजशास्त्री हैं ।)

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