सौम्या केसरवानी । Navpravah.com
एक समय था जब हिंदी साहित्यकारों के लिये इलाहाबाद की मोहरबंदी खास वजूद रखती थी। बिना प्रयाग के साहित्यकारों की सम्मति के किसी लेखक या कवि के लिए साहित्यिक पहचान बनाना आसान नहीं था। यह सिर्फ इसलिए था, क्योंकि हिंदी भाषा के आंदोलनों की जननी रहा ये शहर, साहित्य सृजन के कई युगों और धाराओं को आगे बढ़ाने वाला रहा है।
हिंदी के महान सर्जक इस मिटटी में जन्मे, पले-बढ़े और हिंदी को देश-दुनिया में पहचान दिलाई। जब भी हिंदी भाषा के सामने कोई संकट आया, तो देशभर की निगाह बड़ी उम्मीद के साथ इलाहाबाद की ओर टिक गई और इस शहर में सभी की उम्मीदों को पूरा भी किया। एक समय था जब दूर-दूर से लोग इलाहाबाद के साहित्यकारों से मिलने और अपनी रचनायें जंचवाने आते थे। देश भर की साहित्य बिरादरी में यह मान्यता रही है कि अगर साहित्य की पाठशाला में लेखन या रचना पर प्रयाग की मोहरबंदी है, तो उस साहित्यकार में रचने और गढऩे की क्षमता है।
छायावाद के लिए तो यहां तक कहा जाता था कि यह पूरा प्रयोग इलाहाबाद ही था। पंत, महादेवी, निराला जैसे इस युग के रचनाकार इसी माटी पर सृजन की बगिया सजाते थे। धर्मवीर भारती, रवीन्द्र कालिया, ममता कालिया की रचना तो आज भी प्रयाग वासियों के दिल में बसे हैं। यह तो सच है कि समय बदला जरूरतें बदली हैं। साहित्य और लेखन की विधा अब त्याग और निष्ठा से ज्यादा जीवनयापन का विषय बन गई है। साहित्य में प्रेम और तपस्या के स्थान पर बाजार हावी हो गया है। समय के साथ स्थान में भी परिवर्तन हुआ। गंगा की धारा की तरह लेखनी ने रुख बदला और प्रयाग से महानगर शिफ्ट हो गई।
लेकिन हम अभी भी देखें, तो यहां इस शहर में चार पीढिय़ां एक साथ साहित्य सृजन कर रही हैं। आज भी प्रयाग की नगरी में एक से एक कवि व रचनाकार निकल रहे हैं, जो प्रयाग के मान्य को बढ़ाये हुए हैं। आज की नई खेप जो बहुत समझी हुई लेखनी की ओर बढ़ रही है। इस मिटटी ने निराला, पन्त, हरिवंश बच्चन, जगदीश गुप्त जैसे कई सरस्वती साधकों को अपनी गोद में जगह दी, जिन्होंने इस शहर की कीर्ति में चार चांद लगाए। अपनी विधा, शैली और विचारों के साथ दुनिया भर में अपनी छाप छोड़ी। यहां जो भी रहा, उसने समाज को एक दिशा दी, यहां रचना कभी भी व्यापार नहीं थी, स्वाभिमान थी। दुनिया के साहित्यिक पैरामीटर पर इस शहर को रखें तो यहीं से निराला ने लिखा, वह तोड़ती पत्थर, इलाहाबाद के पथ पर, यह रचना कानपुर और मुंबई के पथ के लिए नहीं हो सकी। यहां का सृजन, समाज और देश को दिशा देने वाला रहा है।
…लेकिन इलाहाबादियत नहीं बदली-
इन सबके बावजूद परिवर्तन प्रकृति का नियम है। लेकिन यह ऐसी नगरी है कि इसे कोई छोड़ नहीं पाया। जो आया यहीं का होकर रह गया, आशियाना बदल गया शहर बदला लेकिन इलाहाबादियत नहीं बदली। धरमवीर भारती कहते थे कि कैलाश गौतम की कविता इसलिए अच्छी लगती है,क्योंकि वे शब्दों में शहर की तस्वीर उतार देते हैं, शहर से रूबरू करा देते हैं। डॉ. हरिवंशराय बच्चन ने कहा था कि, इलाहाबाद को साहित्य का कारखाना कहना गलत नहीं होगा।
बदलाव के इस दौर में अब सृजन कुछ कम हुआ लगता है, लेकिन जो लिखा जा रहा है उम्दा और बेहतरीन है। कुछ कमी आई है लेकिन हमारी पीढ़ी अतीत की ओर लौट रही है, सुंदर लेखन के साथ इलाहाबाद साहित्यकारों की नक्षत्रशाला की तरह है। प्रयाग की आबोहवा में सम्पूर्ण अतीत का गीत गूंजता है, धर्मवीर भारती की गुनाहों का देवता यहीं रची गई, अमरकांत की कहानियाँ यहाँ हर पत्ते पर लिखी हैं। महादेवी के गीतों से आंगन गूजता है। फिराक़ गोरखपुरी की गुले-नगमा यहां की फिजाओं में रची-बसी है, यहां कभी प्रतिभाएं खत्म नहीं होंगी।