समाजवाद पर भारी पड़ा ‘परिवार’वाद!

अनुज हनुमत,

समाजवादी विचारधारा के पोषक और भारतीय राजनीति के मजबूत स्तम्भों में से एक डॉ राम मनोहर लोहिया भारत के प्रमुख समाजवादी विचारक, राजनीतिज्ञ और स्वतंत्रता सेनानी थे। संसद में सरकार के अपव्यय पर की गयी उनकी बहस “तीन आना-पंद्रह आना” आज भी प्रसिद्ध है! उनका जीवन प्रत्येक राजनीतिज्ञ के लिए आदर्श है किन्तु दुःख कि बात है कि आज उन जैसा एक भी राजनीतिज्ञ नहीं दिख रहा है खासकर उस पार्टी में भी, जिसने लोहिया के समाजवाद को आगे करके राजनीति के सर्वोच्च शिखर को प्राप्त किया।

जी हां, हम बात कर रहे हैं देश की सबसे मजबूत क्षेत्रीय पार्टियों में से एक समाजवादी पार्टी की जो आज अपने मूल्यों और सिद्धांतों से भटकती नजर आ रही है। पिछले कुछ महीनों से पार्टी के अंदर ही जबर्दस्त आपसी नूराकुश्ती हो रही थी, जिसका अंत आखिरकार कल सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव ने प्रेस कांफ्रेंस करके कर दिया। उन्होंने राष्ट्रीय महासचिव रामगोपाल यादव और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को पार्टी से 6 वर्ष के निकाल दिया। इस पूरे प्रकरण में सबसे खास बात नेता जी का अपने बेटे को पार्टी से निकालना था, जिसने ये साबित कर दिया कि वो महाभारत के धृतराष्ट्र नहीं, जो पुत्रमोह से कभी ऊपर उठकर सोच न पाएँ, बल्कि आज के वह पिता हैं जो राजनीति से ऊपर अपने बेटे को भी स्थान नहीं देते।

बहरहाल इस पूरे प्रकरण के बाद अखिलेश यादव का भी बयान आया। उन्होंने कहा मुझे पिता जी ने पार्टी से निकाला है न कि दिल से। मैं पुनः चुनाव में जीत दर्ज करके उन्हें समर्पित करूँगा । हालाँकि कल अखिलेश यादव के यूएस सलाहकार स्टीव जार्डिन का एक मेल भी लीक हो गया जिसमें उन्होंने पार्टी को ऐसे ही ड्रामे की सलाह दी थी। उन्होंने कहा था कि इस तरह पार्टी को भावनात्मक रूप से अखिलेश के विकास कार्यों का वोट मिलेगा। लीक हुए इस मेल की सच्चाई कुछ भी हो लेकिन एक प्रश्न इस वक्त सबके सामने है कि क्या वाकई समाजवाद पर परिवारवाद भारी पड़ गया! लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी सिर्फ परिवार तक सिमट कर रह गई और नेताजी एक बार फिर पीएम की दावेदारी करने से चूक गए। उधर, यूपी में सत्ता का केंद्र मुलायम-शिवपाल के हाथ से निकलकर अखिलेश के हाथ पहुंच चुका था।

अखिलेश ने पिता और चाचा की इच्छाओं का सम्मान भी किया, लेकिन ढाई साल पूरे होने तक अखिलेश, ‘गिफ्ट में मिली कुर्सी’ और ‘साढ़े चार मुख्यमंत्री’ वाले तानों के बीच अपना वजूद स्थापित करने में जुट गए। दरअसल, दरार सिर्फ पार्टी में ही नहीं परिवार में भी पड़ चुकी है। कुलमिलाकर मौजूदा समाजवाद पर परिवारवाद का गाढ़ा रंग चढ़ते हुए साफ नजर आ रहा है।

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