(यात्रावृत्त)
डॉ. जितेन्द्र पांडेय,
मुंबई का ‘गेट वे ऑफ इंडिया’ महाराष्ट्र के व्यस्ततम पर्यटन स्थलों में से एक है। गुब्बारे वाले, दूरबीन वाले, खिलौने वाले और अपनी बीन पर सांप का करतब दिखाते सपेरे। सभी टूटी-फूटी अंग्रेजी बोलकर विदेशी सैलानियों का ध्यान अपनी ओर खींचना चाहते हैं। भारत की विरासत कहा जाने वाला ताज होटल भी बड़ी शान से अपनी लाल गुम्बद के साथ यहीं मौजूद है। तुरंत फोटो मुहैया कराने वाले फोटोग्राफर्स एकदम व्यस्त और मस्त। दूर उठती ऊंची-ऊंची लहरें सीमा बंध से टकराकर सैलानियों को भिगोती रहती हैं। पत्थर की दीवार से बंधे दर्ज़नों स्टीमर लहरों पर हिचकोले खाते अपने ग्राहकों के लिए पलक- पांवड़े बिछाए रहते हैं। गर्जना भरती लहरों को देखकर ऐसा लगता है कि किसी ने बब्बर शेर को पिंजरे में कैद कर रखा है। वरुण देवता के प्रकोप को सोचकर मन सिहर उठता है।
भोग को केंद्र में रखकर समुद्र से खिलवाड़ करता मानव आखिर किस हद तक जाएगा ? समुद्री तटों को पाटकर अत्याधुनिक इमारतों के निर्माण में मशगूल इंसान शायद 26 जुलाई के जल-प्लावन को भूल गया। चराचर को विस्मृत कर मानव का स्वयं में सीमित होना कितना त्रासद हो सकता है , जयशंकर प्रसाद की निम्न पंक्तियों से समझा जा सकता है -“अपने में सीमित रह कैसे/ व्यक्ति विकास करेगा/यह एकांत स्वार्थ भीषण है/अपना नाश करेगा /” प्रकृति के श्यामल पक्ष की इसी दुश्चिंता में डूबा बनारस के दोनों प्रफेसरों (डॉ. श्रीनिवास पाण्डेय और डॉ.रंगनाथ ) की उपस्थिति से मैं अंजान था। इन्हीं दोनों महाशयों को एलीफेण्टा केव्स दिखाने की जिम्मेदारी मुम्बई विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग की तरफ से मुझे सौंपी गई थी। तब तक श्रीनिवास जी ने टिप्पणी की -“अभी तक समुद्र नहीं देखे हो पाण्डेय जी ?” अचकचाते हुए मैंने कहा -“ऐसी बात नहीं है सर। आप जैसे अतिथियों के सानिध्य में आज सागर भी विशेष है।” …तो चलो करते हैं समुद्री यात्रा।” उत्साह ज़ाहिर करते हुए डॉ. रंगनाथ ने टिकट मेरे हाथ में थमा दिया।
एलीफेण्टा के लिए यह मेरी पहली यात्रा थी। कल्पनाओं ने मानो पंख लगा लिए हों या यूं कहें कि स्वप्न के ऐसे अनोखे लोक में उतर आए हों जहां चारों ओर मात्र जल ही जल हो। हमारा स्टीमर समुद्र की लहरों को चीरता आगे बढ़ रहा था। इसी बीच सूर का पद भी स्मरण हो आया -“मेरो मन अनत कहां सुख पावै/जिमि जहाज का पंछी/उड़ि जहाज पे आवै/” यह लघु यात्रा सूर के वृहद् सामुद्रिक ज्ञान और आध्यात्मिक शक्ति का सहज ही भान करा रही थी। कुछेक घण्टों में हम एलीफेण्टा की धरती पर थे।
गेट वे ऑफ इंडिया से 10 किलोमीटर दूर एलीफैंट के आकार के इस द्वीप को एलीफेण्टा के नाम से जाना जाता है। यह ऐतिहासिक स्थल सात गुफाओं से निर्मित है। इनका प्राचीन नाम “घारापुरी की गुफाएं” है।” घारापुरी” शब्द की उत्पत्ति “अग्रहारपुरी” से मानी जाती है। 1987 में यूनेस्को ने इन गुफाओं को ‘विश्व धरोहर’ का दर्ज़ा दिया था। गुफाओं का निर्माण काल नौवीं से तेरहवीं शताब्दी के मध्य माना जाता है। सर्वप्रथम राष्ट्रकूट राजाओं द्वारा इन गुफाओं की खोज की गई। कुछ हद तक इन राजाओं ने कठोर पाषाणों को तराश कर दक्षिण भारतीय शिल्प को जगह-जगह उकेरा भी है। कुल मिलाकर दक्षिण वंशीय राजाओं की कई पीढ़ियां इसे सजाने-संवारने में खप गईँ। दूसरी तरफ उन आतताइयों का ख्याल आया जिनकी क्रूरता के साक्ष्य चारों तरफ बिखरे मिले। शांत और सौम्य मूर्तियों पर जमकर कुंठा बरपी थी। वज्राघात से अधिकांश मूर्तियों का अधोभाग क्षत-विक्षत था।
ध्वंस-राग गूँजने के बावजूद ध्यानस्थ मूर्तियों की चिर समाधि यथावत है। भग्नावशेष एक समृद्ध संस्कृति का एहसास कराते हैं। सदियां बोलती हैं यहां। इनके बीच खड़ा होकर माथा गर्व से ऊंचा हो रहा था। अनायास ही जिह्वा पर आ गया, “कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी / सदियों रहा है दुश्मन दौर-ए-जहां हमारा/” खम्भों और दीवारों की पच्चीकारी अप्रतिम है। भगवान शिव और शक्ति कई रूपों में यहां मौजूद हैं। यदि सिंह और द्वारपाल को छोड़ दिया जाय तो लगभग सभी मूर्तियों में शिव-लीला अपने सर्वोत्तम एवं दुर्लभ रूप में मौजूद है। महेश मूर्ति गुफा सर्वाधिक आकर्षक एवं मिथकीय रहस्य समेटे हुए है। कई प्रकोष्ठों में विभाजित ये गुफाएं पर्यटकों के लिए आकर्षण की केंद्र हैं।पर्यटकों की तादात बढ़ाने के लिए महाराष्ट्र टूरिज्म डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन की तरफ से प्रतिवर्ष फरवरी महीने में द्विदिवसीय महोत्सव का आयोजन किया जाता है। नृत्य, संगीत और नाटक से सजा यह महोत्सव अनूठा होता है। इस उत्सव की शुरुआत 1989 से की गई थी।
अर्धनारीश्वर शिव की विशाल मूर्ति देखकर मन में ख्याल आया, “जहां शक्ति, शिव से मिलती हैं, वहीं सुंदरता आ पाती है। एक दूसरे से विलगाव विनाश और तांडव का कारण बन जाता है। सही मायने में जीवन और सृष्टि का सन्तुलन भी इसी सूत्र पर आधारित है।” इसी प्रकार हम शैव दर्शन पर चर्चा करते हुए त्रिमूर्ति शिव, शिवलिंग, नटराज की मुद्रा धारण किए हुए रूद्र, कैलाश पर विराजमान सपत्नीक चन्द्रशेखर, कैलाश पर्वत को उठाने की असफल कोशिश करता रावण, शिव-विवाह आदि मूर्तियों की शैल्पिक बुनावट को भी समझने और बूझने का प्रयत्न कर रहे थे। कार्तिकेय, गणेश, सिंह और द्वारपाल की पाषाण प्रतिमाएं दक्ष मूर्तिकारों की छैनी और हथौड़ी से सजीव हो उठी थीं। इसी बीच श्लीलता और अश्लीलता की भी बात उठी। “कला की परख पर आम समझ” विषय पर स्वस्थ व संतुलित चर्चा सुखकर लग रही थी।
जल्दी ही लौटने का वक़्त भी हो गया। अनचाहे मन से हम पगडंडीनुमा रास्ते से नीचे उतर रहे थे। रुद्राक्ष, शंख, पुस्तक और छोटी-छोटी वस्तुओं के खोमचे दोनों ओर लगे थे। डॉ. श्रीनिवास की नज़र स्टॉल के एक पुस्तक पर पड़ी। लगभग उछलते हुए उन्होंने कहा , “आज हमें “मारा बालि राम तब, हृदय माझि सर तानि” का रहस्य समझ में आ गया। मैं किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पा रहा था कि मल्ल युद्ध के दौरान आखिर वह कौन-सी स्थिति बनी होगी , जब प्रभु राम का बाण बालि का वक्षस्थल विदीर्ण कर गया ? बालि को चिन्हित करके भी मारना असंभव था क्योंकि सुग्रीव और बालि का लगातार तेजी से पैंतरा बदल रहे थे। देखिए, पुस्तक के ऊपर का चित्र। सब समझ में आ जाएगा।” हम लोगों की नज़रें पुस्तक के कवर पर छपे चित्र की तरफ उठी ही थी कि डॉ. साहब उसे व्याख्यायित करने लगे- ” ध्यान दें चित्र पर। सुग्रीव पेट के बल जमीन पर पड़ा है। बालि का दाहिना पैर सुग्रीव की पीठ पर। एक तरफ वह सुग्रीव का दोनों हाथ अपनी ओर खींच रहा है दूसरी ओर अपने पैर का दबाव बढ़ा रहा है। ऐसे में राम के लिए सर-संधान ज़रूरी हो जाता है अन्यथा सुग्रीव की मृत्यु निश्चित थी। यही वह स्थिति बनती है जब बालि का मुख राम की तरफ होता है और बाण सीधे उसके हृदय में प्रवेश कर जाता है।” मान गए सर, आप की तरल जिज्ञासा ‘सुंदरकांड’ के मधुसागर से रिसकर मानस में प्लावित हो रही है।” डॉ. रंगनाथ ने बड़े ही सधे शब्दों में गंभीर टिप्पणी की। मैं मन ही मन प्रसन्न था। सोचने लगा “कबीर का सुप्रसिद्ध दोहा ‘बरस्या बादल प्रेम का, भीजि गया सब अंग’ आज भी कितना खरा और सच्चा है।”
उधर सूरज का लाल गोला जल-समाधि ले रहा था। इधर हम भी भारी मन से प्रस्तर- कानन की तरफ रवाना हुए।