“आत्मवत् सर्वभूतेषु” भारतीय संस्कृति का मूल स्वर है। वेद इसके प्रतिष्ठाता हैं। अपने स्वार्थवश हिंसा को वेदों से जोड़ना भारतीय अस्मिता पर गहरी चोट है। ये मानवजाति की अनमोल धरोहर हैं। नितांत वैज्ञानिक और तथ्यपूर्ण। इनके गूढ़ार्थ में वैश्विक समस्याओं का हल है। आवश्यकता है इन पर उच्च स्तरीय शोधकार्य करवाया जाय ताकि वैदिक युग की कल्पना को यथार्थ रूप मिले।
Dr.JitendraPandey @Navpravah.com
वेद सभी सत्य विद्याओं की पुस्तक हैं। वेद का अर्थ ही “ज्ञान” है और ज्ञान सत्य से जुड़ा होता है। अतः इनका सार्वदेशिक व सर्वकालिक होना स्वाभाविक है। वेदों के सन्दर्भ में तमाम भ्रांतियां समाज में फैली हैं। विशेषकर उस समय, जब सामाजिक सौहार्द खतरे में हो। वेदों का साक्ष्य प्रासंगिक माना जाता है। इन्हीं साक्ष्यों के आधार पर जीव-हिंसा को जायज़ ठहराया गया। यह निर्विवाद है कि मध्यकाल में वेदों की तमाम ऋचाओं पर गलत टीकाएं लिखी गईं। उदाहरण स्वरूप सायण, महीधर आदि आचार्यों के भाष्य पढ़े जा सकते हैं। उन्होंने बताया कि वेदों में गौ-बलि, नर-बलि, अश्व-बलि, गज-बलि आदि का उल्लेख किया गया है। परिणामतः यज्ञादि अनुष्ठानों में बलियां दी जाने लगीं।
निरीह प्राणियों के कत्लेआम से क्षुब्ध होकर महात्मा बुद्ध और महावीर स्वामी ने वेदों का बहिष्कार करना प्रारम्भ किया। आचार्यों की इन्हीं मिथ्या धारणाओं को मैक्समूलर, विल्सन, ग्रिफिथ आदि पाश्चात्य विद्वानों ने पूरी दुनिया में फैला दिया। इतिहास-लेखकों ने भी इस सन्दर्भ में काफी लीपा-पोती की। वेदों के शब्दों पर गलत प्रकाश डाला गया। अर्थ को अनर्थ में बदलने का षड्यंत्र अक्षम्य था।
वेदों में अश्वमेध ,नरमेध, अजमेध, गोमेध की चर्चा की गई है। भाष्यकारों ने इन शब्दों को अश्वबलि, नरबलि, बकरीबलि और गौबलि से जोड़कर बताया जबकि “मेध” का अर्थ “बुद्धि” से है। अब आसानी से “बुद्धि” के आलोक में उपरोक्त शब्दों को अनर्थ में परिवर्तित होने से बचाया जा सकता है। शतपथ ब्राह्मण (13.1.6.3) में इन शब्दों की सम्यक व्याख्या की गई है। यजुर्वेद (30/3) में देवताओं और पूर्वजों को “मेधावी” कहा गया है। उसी मेधा शक्ति की प्राप्ति की उपासना करते हुए कहा गया है –
“यां मेधां देवगणाः पितरश्चोपासते।
तया मामद्य मेधयाग्ने मेधाविनं कुरु।”
इसी तरह “माष” शब्द को “मांस” शब्द से जोड़कर देखा गया जबकि इसका अर्थ “एक प्रकार की दाल” है। आयुर्वेद में तो इसका अर्थ “गूदा” बताया गया है। जैसे – आम्रमांसं, खजूरमांसं आदि। तैतरीय संहिता (2,23,8) में दही, शहद और धान को मांस कहा गया है। वेदों में किसी भी प्रकार की हिंसा को स्थान नहीं है।
ईश्वर की प्रार्थना में आयु, प्राण, सुयोग्य नागरिक और कीर्ति के साथ-साथ गाय, घोड़ा, ऊंट जैसे पशुओं को प्रदान करने को कहा गया है-
“स्तुता मया वरदावेदमाता प्रचोदयन्ताम् पावमानी द्विजानाम्।
आयुः प्राणं प्रजां पशुं कीर्तिम् द्रविणं ब्रह्म वर्चसं मह्यं दत्त्वा ब्रजत ब्रह्मलोकम्।”
रही बात गाय की तो इसे यजुर्वेद (3/20) में पूज्या माना गया है। इनके गुणों के आधार पर अदिति, विश्रुति, रन्ता, हव्या, काम्या, इडा, चंद्रा, ज्योति, अधन्या आदि नामों का उल्लेख मिलता है।
ऋग्वेद (8/101/16) में स्पष्ट आदेश है – “उस देवी गौ को अल्प बुद्धिवश मानव नहीँ काटे-मारे” तथा “गौए वधशाला में न जाएं।” यजुर्वेद में बेजुबान जानवरों की हत्या को भयंकर बताया गया है। इसके बावजूद यह शंका व्यक्त की जाती है कि वेदों में “गोघ्न” अर्थात् गायों को मारने का आदेश है। हमें समझना होगा कि ” गोघ्न” के दो अर्थ होते हैं-“हिंसा” और “गति”। मन्त्र के संदर्भ में अर्थ लिया जाएगा -“जो गौ की हत्या करने वाला है, नीच पुरुष है। वह तुमसे दूर रहे।”