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मानव रूप में जीवन बड़े ही सौभाग्य की बात है। आज संपूर्ण विश्व का आधिपत्य मानव के ही हाथ में है। मनुष्य का एक प्रबल पक्ष यह है कि वह अपनी अनुभूतियों को प्रत्यक्ष रूप से प्रकट कर सकता है। इस प्रकटीकरण का एक अत्यंत सशक्त माध्यम है – ‘कविता’। ‘कविता’ को समझने के लिए एक संवेदनशील हृदय होना अति आवश्यक है।
आज समाज की व्यवस्था में भारी बदलाव आया है। जाति-व्यवस्था अब भले ही समाप्ति की ओर हो, किंतु एक और ही व्यवस्था का उद्भव हुआ है, वह है – वित्तवादी व्यवस्था; जिसके प्रभाव से शायद ही कोई व्यक्तिविशेष बच पाया हो। जीवन व जगत की अनुभूतियाँ रचनाकार को रचना – विशेष के लिए प्रेरित करती हैं। ऐसे में उसकी अनुभूतियों का प्रकाशन उसकी रचना-धर्मिता के द्वारा जागतिक धरातल पर अनायास ही हो जाता है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि वह अपनी चिंतनशक्ति के द्वारा मन में उमड़ते हुए अनुभूतिगत भावों को सृजन के रूप में साकार कर देता है। समाज परिवर्तन की सबसे पहली सूचना कविता ही पाठकों को देती है।
डाॅ. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी एक बहुआयामी साहित्यिक व्यक्तित्व के धनी हैं। वे एक लोकप्रिय कवि, समर्थ आलोचक, गंभीर वक्ता तथा एक सफल प्राध्यापक हैं। इसके अतिरिक्त उनके व्यक्तित्व का एक बहुत बड़ा पक्ष उनके संपादक रूप का भी है, जिसने उन्हें हिंदी साहित्य जगत में अभूतपूर्व यश प्रदान किया।
डाॅ.तिवारी ने गाँव की गरीबी और अभाव को नजदीक से देखा था। अन्याय और शोषण के शिकार निरीह जनता की कराह उन्हें बचपन में ही व्यथित करती थी। इनके अलावा ग्रामीणांचल की प्रकृति का सौंदर्य कहीं-न-कहीं तिवारीजी के संवेदनशील हृदय को कल्पना की एक नई उड़ान दे रहा था। कल्पना की इसी उड़ान ने उन्हें काव्यसृजन के लिए बाध्य किया व उनके अंदर का कवि व्यक्तित्व फूट पड़ा। वे लिखते हैं –
“कहीं सृजन के क्षण निकल न जायें
हमारे तुम्हारे देखते-देखते
और हम पानी की लकीर होकर रह जायँ
यह अपने को सार्थक करने की घड़ी है
क्योंकि सृजन में ही हम सार्थक हैं
शायद इसीलिए हैं कि स्रष्टा है।”
उनकी कविताएँ अत्याचार व अँधेरे के खिलाफ पूरी ईमानदारी से लड़ती हैं। डाॅ. तिवारी युवा कवियों को सर्जनात्मकता का आंमत्रण देते हैं। वे समझाते हैं कि अपनी संतान के मरते और घरौंदों को ध्वस्त होते देखकर पछताने का समय नहीं है।हमारी पीढ़ी ने स्वयं के तर्कों से अपने को पराजित कर लिया है। यह समय घबराने का नहीं, अपितु सृजन का है।