आनंद द्विवेदी
सामाजिक न्याय और संविधान के प्रणेता कहे जाने वाले डॉ भीमराव अम्बेडकर ऐसे महापुरुष थे जिन्होंने सामाजिक समरसता पर अधिक जोर देते हुए न्याय व्यवस्था की कल्पना की। संविधान निर्मात्री सभा का ख़ास चेहरा माने जाने वाले डॉ अम्बेडकर ने आजीवन शोषित समाज के उत्थान की बात कही और उनके अगुवाई में बने संविधान में इस बात की पुष्टि होती है।
तत्कालीन भारतीय समाज की सनातनी व्यवस्था जिसमें भारतीय दीन-दलित समाज अज्ञानांधकार में लिप्त तथा चातुर्वर्ण्य की व्यवस्था में पिसने के साथ दरिद्रता की आग में जल रहा था, इसका कारण यह था कि हमारी व्यवस्था के सिद्धान्त सदियों से ईश्वरकृत, अपौरूषेय एवं प्रश्नों से परे माने जाते रहे। क्योंकि इन सिद्धान्तों की जड़ें इन लोगों के मस्तिष्क में इतनी गहरी कर दी गयीं थीं, जिसका कोई अकाट्य प्रमाण तत्कालीन समय में नहीं था।
गौतम बुद्ध और महात्मा गाँधी के पश्चात समरसता पर यदि किसी ने जोर दिया, तो वो थे डॉ अम्बेडकर। हजारों वर्षों से जिन्हें अछूत मानकर समाज के हाशिये में रखा गया उनके मर्म को हृदय से लगा डॉ अम्बेडकर ने कुरीतियों का मुखर विरोध किया। डॉ अम्बेडकर ने दीन-दलित को समाज में सर ऊंचा कर परम्परागत सोच से ऊपर उठ चलना सिखाया।
राजनीतिक मौकापरस्तों ने डॉ अम्बेडकर के विचारों को आजकल अपना कॉपीराइट बना रखा है, जबकि सबसे असामाजिक आचरण उन्ही राजनीतिक सत्तालोलुप नेताओं का है जिसके विरुद्ध आजीवन डॉ अम्बेडकर लड़ते रहे। डॉ अम्बेडकर न केवल दलित उत्थान पर केन्द्रित थे बल्कि समाज के अन्य विषयों पर भी उनकी पैनी नजर होती थी। उन्होंने भारत विभाजन पर भी बहुत गहराई से विचार विमर्श किया।
रुपये की समस्या पर भी डॉ साहब ने लम्बे आलेख लिखे और वक्तव्य दिए। डॉ अम्बेडकर एक महान सामजिक चिन्तक थे, जिन्हें अब कुछेक राजनीतिक दलों ने केवल दलित चिन्तक का तमगा दे रखा है। इन सभी नेतागणों की सोच सत्ता तक ही सीमित है, जबकि डॉ अम्बेडकर एक ऐसे भारतदेश की कल्पना करते थे, जिसमें सभी को समान न्याय और अधिकार मिलें और किसी भी प्रकार की सामाजिक विषमता के लिए जहां कोई स्थान न हो। इसीलिए संविधान ड्राफ्टिंग कमेटी की अगुवाई में जब किसी का नाम सामने आया तो वो थे डॉ भीमराव अम्बेडकर। कांग्रेस के कुछ नेतागण ये दावा करते हैं कि वो डॉ अम्बेडकर के प्रति पूर्ण निष्ठा रखते आये हैं, जबकि इसी कांग्रेस ने संसद में डॉ अम्बेडकर को दो बार दबाया। कांग्रेस पार्टी ये भी दावा करती आयी है कि डॉ अम्बेडकर को संविधान ड्राफ्टिंग कमेटी की अगुवाई कांग्रेस की वजह से मिली जबकि सत्य ये है कि डॉ भीमराव अम्बेडकर का नाम मुस्लिम लीग द्वारा प्रस्तावित किया गया था।
संविधान देश की आत्मा है, जिसके हित में ही सर्वजन हित संभव है। ये एक ऐसा दस्तावेज है जिसके प्रति सम्पूर्ण निष्ठा ही हमें सभ्य सामाजिक जीव के रूप में स्थापित कर सकती है। आज दलित चिंतकों ने डॉ अम्बेडकर की सोच को केवल विरोध और बहिष्कार के स्वरों में गूंथ दिया है, जबकि डॉ अम्बेडकर की सोच इन सभी विषयों से कहीं ऊपर थी। डॉ अम्बेडकर यदि दलित विचारक ही होते तो तत्कालीन संसद में उन्हें कानून मंत्री का दर्जा कैसे मिल सकता था?
डॉ अम्बेडकर का संविधान सभा में दिया हुआ भाषण इस बात का साक्षी है- ‘हमने कानून द्वारा राजनीतिक समानता की नींव रख दी है पर यह समानता तभी पूरी तरह से चरितार्थ होगी जब आर्थिक समानता भी देश में स्थापित होगी। यह चुनौती न केवल बनी हुई है बल्कि और तीव्र हो रही है।’
देश की तत्कालीन स्थिति वैसी ही थी जैसी कभी नस्लभेदी अमेरिका की हुआ करती थी, जहां मार्टिन लूथर किंग जैसे महान प्रणेताओं ने सामाजिक समरसता व अधिकारों के लिए अपने प्राणों की भी परवाह नहीं की। राजनीतिक स्वार्थों से इतर आज समाज को जरूरत है एकात्मता के स्वर की। एक ऐसा स्वर जिसमें विधिक धर्म की स्थापना हो और प्राणी मात्र को श्रेष्ठ समझा जाय। समय समय पर धार्मिक रीतियों में परिवर्तन होता रहा है। ये ऐतिहासिक तथ्य है और यही परिवर्तनशीलता धर्म की विशेषता होती है।
धर्म का अर्थ किसी पंथ या सम्प्रदाय से नहीं लगाया जाना चाहिए। इसके व्यापक और वृहद् मायने हैं। “धार्यते इति धर्मः” अर्थात् “जो धारण किया जाय वही धर्म है”। हम जिस भी चीज़ पर विश्वास करेंगे वह हमारा धर्म हो जाएगा। इसीलिए जिन्होंने अस्पृश्यता पर विश्वास किया वो उनका धर्म हो गया, जिन्होंने सामाजिक समरसता पर यकीन किया और प्राणिमात्र पर विश्वास रखा उनका धर्म वही हो गया। यही कारण है कि जो धर्म को बुरा कहते हैं वो दरअसल अपनी कमियों को दूर करने की बजाय धर्म की आड़ में महज पाखण्ड कर रहे होते है।
सद्कर्मों से यदि धर्म न बनता तो कबीर, रहीम, मीरा,तुलसी, दादू जैसे संतों की समाज को आवश्यकता ही क्यों पड़ती? जरूरी नहीं कि हम सब स्वीकार कर लें। ये भी जरूरी नहीं कि डॉ अम्बेडकर की कही हर बात में हम अंधविश्वास करें किन्तु तर्क जिसे स्वीकार करे वही श्रेष्ठ है। प्राणीमात्र के हित की जो बात हो वो श्रेष्ठ है। फिर वही बात डॉ अम्बेडकर करें, महात्मा गांधी करें, या कोई भी महापुरुष करे।
डॉ अम्बेडकर ने दलितों को पूजा-पाठ इत्यादि से दूर रहने को कहा और अपने उत्थान की ओर अग्रसर रहने की सीख दी। इसका अर्थ यह बिलकुल नहीं है कि वो पूरे संसार को नास्तिकता की ओर विमुख कर रहे हैं। जिसका कल्याण पूजा पाठ से न हो वो यदि उसे न करें तो इसमें ईश्वर को क्या आपत्ति हो सकती है। परमात्मा तो हर जीव को बराबर स्थान देते हैं, उनकी पूजा करने से यदि किसी को सुख मिले तो अच्छा और यदि पूजा न करने से किसी का हित होता है तो उसमे भी कुछ बुरा नहीं।
सबको अपने रास्ते चुन लेने का बराबर अधिकार स्वयं परमसत्ता दे चुकी है। जन और मानहानि ही यदि इस धर्म विरोधी आडम्बर का लक्ष्य है, तो इसे भी सिरे से अस्वीकार कर देना चाहिए जैसा कि आजकल अमूमन नेता और उनके पिछलग्गू करते हैं। ये भी बेहद छोटी बात है कि डॉ अम्बेडकर ने दलितों को हिंदुत्व का विरोध करना सिखाया बल्कि दलितों द्वारा दुसरे धर्मों को अपनाए जाने का पूर्ण रूप से विरोध डॉ अम्बेडकर ने ही किया।
डॉ अम्बेडकर को ये बात भी व्यथित करती थी कि उन्हें जातिवादी और दलितवादी कहा जाता है। एक बार उन्होंने एक सभा में कहा था कि मेरी प्रत्यक्ष गतिविधियाँ चूॅकि दलितों के उद्धार से जुड़ी हैं। इसलिए मुझे दलितवादी ठहराने की कोशिश की जा रही है। इसी प्रकार धर्म के विषय में डॉ अम्बेडकर ने कहा कि ‘‘कुछ लोग सोचते है कि धर्म समाज के लिए अनिवार्य नहीं है। मैं इस दृष्टिकोण को नहीं मानता। मैं धर्म की नींव को समाज के जीवन तथा व्यवहारों के लिए अनिवार्य मानता हूँ।”
समाज को किसी लकीर का फ़कीर कतई नहीं बनना चाहिए अन्यथा आज भी इंसान कमर झुकाकर पत्थरों की आड़ में चलता, पत्ते लपेटकर जंगली पशुओं का शिकार करता और अपनी भूख मिटाता। विकास और उत्थान समाज का अहम हिस्सा है, जिसके लिए हर किसी को प्रातिमात्र के प्रति सद्भाव रखते हुए अग्रसर होना चाहिए।