गंगा का मौन हाहाकार…!!

Dr.JitendraPandey@Navpravah.com

शाम हो रही थी। गगन कुछ रक्ताभ हो चला था। सूरज अपनी  मखमली किरणों को समेटने की तैयारी में था।भगवान शिव की  गगनचुम्बी  प्रतिमा त्रिलोक पर अपना एकाधिकार जमाने के लिए बिल्कुल समाधिस्थ थी। हरिद्वार में “हर की पौड़ी” पर चहल-पहल बढ़ने लगी।घाट धोए जा रहे थे। सीढ़ियों पर चटाइयां और चादरें बिछाकर लोग अपनी-अपनी जगह सुनिश्चित कर लेना चाहते थे-गंगा की मनोरम आरती जो होने वाली थी। कुछेक क्षणों में घड़ियाल ,शंख आदि आरती के वाद्य यंत्र बजने लगे। गंगा की अनगिनत लघु तरंगें दीपों के मद्धिम आलोक में झिलमिलाने लगीं। भवतारिणी को पंचामृत से स्नान कराया जा रहा था। गोधूलि की वेला में  रमणीयता पल-पल  बढ़ रही थी। तट पर दीपावलोक की आभा मनोहारिणी थी।ऐसा लग रहा था मानो एक विशालकाय जलयान असंख्य लोगों को लेकर ज्योतिर्यात्रा पर निकला हो और ब्रह्मकुंड के अमृत से सभी सराबोर हों। बिल्कुल वही “तमसो मा ज्योतिर्गमय वाली शाश्वत यात्रा।वातावरण की दिव्यता तन-मन और आत्मा में उतरने लगी।

गंगा-आरती में शामिल होना सुखकर लगा।इस यात्रा का मुख्य उद्देश्य भी यही था।हम लोग अपने निवास-स्थल की ओर बढ़ने लगे।रात्रि-भोजन के पश्चात दूसरे दिन की योजना बना सभी अपने-अपने बिस्तर पर लेट गए।शरीर थका था किन्तु मन भरपूर ताज़गी से लवरेज़।शाम का अनोखा दृश्य पुनः साकार होने लगा।त्रिबिध-ताप-विनाशिनी गंगा का कन्या रूप कई भावों को झंकृत कर रहा था।भारतीय धर्म,साहित्य,संस्कृति,संगीत और कला की प्राणस्वरूपा  माँ गंगा हमारे लिए अनमोल एवं रक्षणीय हैं।युगानुरूप इस यथार्थ को हमें समझना होगा।हमें अपनी आस्थाओं पर पुनर्मन्थन करना होगा।उन कारणों पर पुनर्विचार करना होगा जिनसे गंगा का शुद्ध जल ज़हरीला बनता जा रहा है।सुरसरि की गोमुख से गंगासागर तक की यात्रा क्यों इतनी दुष्कर हो गई ? स्वार्थ में डूबा मनुष्य क्या अपनी माँ के दर्द को अनसुना कर दिया है ? मात्र दोहन ही उसका धर्म है ? गंगा-सफाई के लिए केवल सरकारें जिम्मेदार हैं , हम नहीं ? अपनी संतानों के कारण भविष्य में गंगा का क्या स्वरूप होगा ? क्या हम अपने पूर्वजों की इस विरासत को यूँ ही दम तोड़ते देखते रहेंगे ? इन्हीं अनुत्तरित प्रश्नों के भंवरजाल में न जाने कब आँख लग गई।

सुबह बच्चों का उत्साह देखते ही बनता था।नहा-धोकर हम सभी बस से ऋषिकेश के लिए रवाना हुए। ऋषिकेश को योग की जन्मस्थली भी माना जाता है। टूरिस्ट गाइडों ने अपनी-अपनी सहूलियत के लिए बस- यात्रियों को दो जत्थों में बांटकर तमाम महत्त्वपूर्ण निर्देश जारी कर दिए । उतरते ही शिवानंद आश्रम चलने को कहा गया। हम अपने पथ-प्रदर्शकों के पीछे हो लिए।जगह-जगह हमसे हाथ जुड़वाते और मत्था टेकने को कहते।परिणामतः मैं कुछ असहज महसूस करने लगा था।कुछ समय बाद हमें “लक्ष्मण झूला” पर लाया गया। सुरम्य पहाड़ियों से होकर निकलने वाली माँ गंगा का सिरमौर-सा लगने वाला यह पुल अत्यंत मनोरम था। ऐसा लग रह था मानो कलकल करती प्रवाहमान आध्यात्मिक धारा पर विकास का चमकीला लेवल लगाया गया हो।मान्यता है कि राम के अनुज लक्ष्मण ने जूट की रस्सी बनाकर यहीं से गंगा-पार की थी। 1939 में लोहे के मजबूत तारों से 450 फीट लम्बे और 70 फीट ऊँचे पुल का निर्माण करवाया गया। तबसे सैलानियों के लिए यह पुल आकर्षण का कारण बना हुआ है।पुल के पश्चिमी किनारे से उतरते हुए हमने लक्ष्मण मंदिर और राम मंदिर के महात्म्य को जानने और समझने की कोशिश की। तत्पश्चात हम धार्मिक वस्तुओं के एक विशाल शोरूम में गए।रुद्राक्ष की अनेक किस्में। उनसे अलग-अलग लाभ। विक्रेताओं द्वारा  ज़ोरदार डेमो दिया गया।हमारे टूरिस्ट गाइडों ने भी  हम पर मानसिक दबाव बनाया।कभी डर , कभी लालच , कभी मान-प्रतिष्ठा तो कभी नए फैशन की दुहाई देकर श्रद्धालुओं को रुद्राक्ष खरीदने के लिए तैयार किया जा रहा था। अंतिम दाव खेलते हुए उन्होंने भयभीत ही कर दिया ” ऋषिकेश आकर जो रुद्राक्ष न खरीदे , उसकी यात्रा व्यर्थ मानी जाती है।” ऐसी स्थिति से बच पाना लगभग असम्भव होता है, वह भी जब परिवार साथ हो।मामूली खरीददारी करने के बाद हम स्वर्गाश्रम स्थित चोटीवाला रेस्टोरेंट पहुंचे।रेस्टोरेंट के मुख्य द्वार के दोनों ओर दो चोटीवालों की हृष्ट-पुष्ट और सुंदर मूर्ति थी। पास आने पर उन में हरकत देख हम हैरत में पड़ गए। अरे ! ये दोनों तो मानवीय पुतले हैं। बच्चों से लेकर बुजुर्ग तक इनके साथ फ़ोटो खिंचवा रहे थे। इनके निर्विकार चेहरे को देखकर ऐसा लगता था मानो समूचे देवभूमि की  शांति इन्हीं में समा गई हो।

भूख और थकान मिटाने के बाद नई स्फूर्ति और ताज़गी के साथ हम गंगा में नौका-विहार के लिए उतरे। बच्चों की किलकारियां गूंजने लगीं। नाव से झुककर लोग छटा-छटा पानी उछालते हुए एक-दूसरे के ऊपर फेंक रहे थे। मौज-मस्ती के साथ-साथ माँ गंगा के प्रति मन में कृतज्ञ भाव उभरने लगा। श्रद्धा से माथा झुक गया। अचानक मन भयभीत हो उठा।सम्भवतः इसके पीछे “अतिस्नेही पापशंकी ” की भावना हो।वैश्विक- ताप , प्रदूषण , वनों की अंधाधुंध कटाई आदि विकराल समस्याएं दिल में दहशत पैदा करने लगीं। सुकुमार सीता की तरह माँ गंगा। हाय! कैसे होगी इनके आत्मसम्मान की रक्षा ? आज कोई  भगीरथ भी नहीं दिखाई देता।भागीरथी के अमृत सदृश जल को ग्रहणकर नीलकण्ठ महादेव को पूजता हुआ जनमानस गंगा में विष-वमन कर रहा है।हमने आचरण और आस्था के बीच एक गहरी खाईं खोद ली है।ये  जीवन के दो छोरों पर स्थित हैं । व्यवधान रहित । नौका-विहार के बाद भारतमाता और वैष्णव देवी सहित कई विशाल मंदिरों की हमने परिक्रमाएं कीं। मौसम भी सुहावना हो चला था।अनिर्वचनीय आनंद से भरपूर हम हरिद्वार की तरफ लौट पड़े।

अगले दिन योजना के अनुसार हम हरिद्वार के गायत्री आश्रम  पहुंचे। बचपन से ही पम्पलेट, बुकलेट, पत्र-पत्रिकाओं आदि में गायत्री परिवार के संस्थापक युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य के सुभाषित को पढ़ता रहा हूँ। उसी के साथ “हरिद्वार” शब्द ज़ेहन में लगभग बस-सा गया था। आज उसी वैचारिक ऊष्मा का साकार रूप  तपोभूमि के रूप में हमारे सामने था।हिमालय की छाया और सप्तर्षियों की तपस्थली में स्थापित यह आश्रम युग निर्माण का मुख्यालय है। यहां व्यक्ति, परिवार और समाज के निर्माण द्वारा युग निर्माण का  अनोखा विज़न है। धरती को स्वर्ग बनाने की सराहनीय पहल। गुरुकुल की प्राचीन परम्परा का वाहक यह आश्रम आधुनिक तकनीकी से भी लैस था।यज्ञशाला, प्रवचन हॉल, समाधि-स्थल, योग-भवन, पुस्तकालय से लेकर आचार्यों के आवास तक सभी भव्य व रमणीक लगे। छात्रों का सेवा-भाव प्रशंसनीय था।लोगों का रेला  लगातार प्रसाद (भोजन) ग्रहण करने के लिए आ रहा था। सबके लिए समान व समुचित व्यवस्था। कहीं कोई आडम्बर नहीं। सर्वत्र सादगी व शांति। भारतीय संस्कृति की सुगंध चारों ओर मह-मह कर रही थी। संभवतः “देव-कानन” की परिकल्पना कुछ इसी तरह होगी।

बहुत कुछ सोद्देश्य घूमने के उपरांत हम हरिद्वार-दिल्ली राष्ट्रीय महामार्ग पर स्थित पतंजलि योगपीठ आए। शानदार  प्रांगण में स्थापित महर्षि पतंजलि की विशाल मूर्ति योगपीठ को और भी भव्य बना रही थी।

अलग-अलग विभागों में बंटा योगपीठ आज दुनिया को जीवन जीने की प्राचीन शैली से परिचित करा रहा है जिसमें योग का सर्वाधिक महत्त्व है।जीवन की आपाधापी में कुछ क्षण ठहरकर “स्व” पर विचार करने की ज़रूरत बनता जा रहा है योग। “बांटो और राज करो” की अमानवीय नीति का विकल्प है यह।कुल मिलाकर योग राजनीति, साहित्य, स्वास्थ्य, समाज, परिवार और व्यक्ति के लिए अपरिहार्य है, चाहे योग का जो भी सकारात्मक रूप हो।यह समष्टि के लिए शिव है।इसीलिए योगगुरु बाबा रामदेव ने योग को पुनः प्रचलित करने का संकल्प लिया होगा। विभिन्न भाषाओँ में निकलने वाली “योग संदेश” पत्रिका बाबा के संकल्पों की वाहक है।साथ ही हमें देववाणी संस्कृत पर गर्व होता है । इस भाषा का अध्ययन करके एक साधारण -सा छात्र बाबा रामदेव बना जिसने अपनी व्यावसायिक मेधा द्वारा तमाम ऊँचे कॉर्पोरेट घरानों को शुद्धता के मामले में चुनौती दी। आज मार्केट में पतंजलि उत्पादों की धूम है। दिव्य फार्मेसी,पतंजलि आयुर्वेद लिमिटेड और पतंजलि फूड एवं हर्बल पार्क लिमिटेड के संयुक्त प्रयासों ने देश में स्वदेशी-नारे को एक गति दी है। कुल मिलाकर पतंजलि योग पीठ का अस्तित्व में आना भारतीयता का जय-घोष है और उनके लिए एक आईना है जो विदेशी उत्पादों के गुलाम बनकर रह गए हैं।

आख़िर वह दिन भी आया जब हम देवभूमि हरिद्वार को छोड़ने के लिए तैयार थे।प्रकृति में संस्कृति के वैभव को महसूस करते हुए मैं बड़ा आश्वस्त था।एक-एक चित्र रील की तरह घूमने लगा।इसी बीच हरिद्वार स्टेशन के लिए हम ऑटो में बैठ चुके थे। माँ गंगा की दिव्य-आरती का पुनः स्मरण हो आया।असंख्य कंठों से फूटता जय-घोष । ज्योति- पर्व में जगमगाता घाट। शंख और घंटों की सम्मिलित ध्वनियों में लग रहा था जैसे त्रिपथगा खिलखिला रही हों। दूसरे ही क्षण मुझे ऐसा लगा मानो भवतारिणी अशांत हों। मौन-रुदन से संतप्त।उनकी यह व्यथा कपिल मुनि के शाप से भस्म राजा सगर के पुत्रों के लिए नहीं बल्कि हमारे अस्तित्व के लिए थी।यह वेदना मानवजाति के भविष्य को लेकर थी क्योंकि वह सबका हित चाहती हैं – “सुरसरि सम सब कहँ हित होई।” माँ की ममतामयी पुकार और असीम हाहाकार को अनसुना कर हम आगे बढ़ रहे थे।

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