…कलम आज उनकी जय बोल

बलिदान दिवस- शहीद मंगल पाण्डेय

अनुज द्विवेदी
ब्यूरो
(इलाहाबाद)

ब्रितानी हुकूमत के खिलाफ जंग और आजादी का ख्याल आते ही कई नाम और चेहरे बरबस याद आ जाते हैं। एक लंबी लड़ाई, हजारों कुर्बानियां और तमाम जुल्मों-सितम के बाद हिन्दुस्तान 15 अगस्त 1947 की आधी रात अंग्रेजों से मुक्त हो गया था। एक लंबे समय से गुलामी की बेड़ियों में जकड़े भारतीय समाज को खुली हवा में सांस लेने का मौका मिला तो हर ओर बस जश्न का माहौल था।

हर कोई आजादी के मतवालों को याद कर रहा था, जिनके बलिदान से भारतीयों को मुक्ति मिली थी। मंगल पांडेय भी उन्हीं क्रांतिकारियों में से एक थे। आज उनका शहादत दिवस है,आज ही के दिन 8 अप्रैल 1857 को उन्हें फांसी दी गई थी, या यूं कहें कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के ये पहले नायक थे, जिनके विद्रोह से निकली चिंगारी ने पूरे उत्तर भारत को आग के शोले में तब्दील कर दिया था। दिल्ली लाशों से अटी पड़ी थी। डरे-सहमे ब्रिटिश अफसरों ने रातों-रात मंगल पांडेय को फांसी पर लटका दिया था और हजारों दमनकारी कानून सिर्फ इसलिए बना दिए थे ताकि दोबारा कोई मंगल पांडेय पैदा ही ना हो सके।

मंगल पांडे का जन्म उत्तर भारत में पूर्वी उत्तर प्रदेश के नगवा, बलिया में दिवाकर पांडे के परिवार में हुआ था। जन्म से ही सनातन धर्म पर उनका बहुत विश्वास था। उनके अनुसार सनातन धर्म सर्वश्रेष्ठ था। 1849 में पांडे ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की आर्मी में शामिल हुए। कहा जाता है की किसी ब्रिगेड के द्वारा उनकी आर्मी में भर्ती की गयी थी। 34 बंगाल थलसेना की कंपनी में उन्हें 6ठी कंपनी में शामिल किया गया, मंगल पांडे का ध्येय बहोत ऊँचा था, वे भविष्य में एक बड़ी सफलता हासिल करना चाहते थे। 1850 के मध्य में उन्हें बैरकपुर की रक्षा टुकड़ी में तैनात किया गया। तभी भारत में एक नयी रायफल का निर्माण किया गया और मंगल पांडे चर्बी युक्त हथियारों पर रोक लगाना चाहते थे। ये अफवाह फ़ैल गयी थी की लोग हथियारों को चिकना बनाने के लिए गाय या सूअर के मांस का उपयोग करते है, इसी वजह से हिंदुओं और मुस्लिमों में फूट पड़ने लगी थी।

विद्रोह का प्रारम्भ एक बंदूक की वजह से हुआ। सिपाहियों को पैटऱ्न 1853 एनफ़ील्ड बंदूक दी गयी, जो कि 0.577 कैलिबर की बंदूक थी तथा पुरानी और कई दशकों से उपयोग मे लायी जा रही ब्राउन बैस के मुकाबले मे शक्तिशाली और अचूक थी। नयी बंदूक मे गोली दागने की आधुनिक प्रणाली (प्रिकशन कैप) का प्रयोग किया गया था, परन्तु बंदूक में गोली भरने की प्रक्रिया पुरानी थी। नयी एनफ़ील्ड बंदूक भरने के लिये कारतूस को दांतों से काट कर खोलना पडता था और उसमे भरे हुए बारुद को बंदूक की नली में भर कर कारतूस को डालना पडता था। कारतूस का बाहरी आवरण मे चर्बी होती थी जो कि उसे नमी अर्थात पानी की सीलन से बचाती थी।

सिपाहियों के बीच अफ़वाह फ़ैल चुकी थी कि कारतूस मे लगी हुई चर्बी सुअर और गाय के मांस से बनायी जाती है। यह हिन्दू और मुसलमान सिपाहियों दोनो की धार्मिक भावनाओं के विरुद्ध था। ब्रितानी अफ़सरों ने इसे अफ़वाह बताया और सुझाव दिया कि सिपाही नये कारतूस बनाये जिसमे बकरे या मधुमक्क्खी की चर्बी प्रयोग की जाये। इस सुझाव ने सिपाहियों के बीच फ़ैली इस अफ़वाह को और पुख्ता कर दिया। दूसरा सुझाव यह दिया गया कि सिपाही कारतूस को दांतों से काटने की बजाय हाथों से खोलें। परंतु सिपाहियों ने इसे ये कहते हुए अस्वीकार कर दिया कि वे कभी भी नयी कवायद को भूल सकते हैं और दांतों से कारतूस को काट सकते हैं।

तत्कालीन ब्रितानी सेना प्रमुख (भारत) जार्ज एनसन ने अपने अफ़सरों की सलाह को दरकिनार हुए इस कवायद और नयी बंदूक से उत्पन्न हुई समस्या को सुलझाने से मना कर दिया।

20 मार्च 1857 को सैनिकों को एक नए प्रकार के कारतूस  दिए गए। इन कारतूसों को दांतों से दबाकर खोला जाता था, ये गाय और सूअर की चर्बी से चिकने किये गए थे, ताकि हिन्दू और मुस्लिम सैनिक धर्म के प्रति अनुराग छोड़ कर, धर्म विमुख हों।

29 मार्च सन 1857 को नए कारतूस का प्रयोग करवाया गया। मंगल पण्डे ने आज्ञा मानने से मना कर दिया और धोखे से धर्म भ्रष्ट करने की कोशिश के खिलाफ उन्हें भला बुरा कहा, इस पर अंग्रेज अफसर ने सेना को हुक्म दिया की उसे गिरफतार किया जाये लेकिन सेना ने हुक्म नहीं माना। पलटन के सार्जेंट हडसन स्वंय मंगल पांडे को पकड़ने आगे बढ़ा तो, पांडे ने उसे गोली मार दी। तब लेफ्टीनेंट आगे बड़ा तो उसे भी पांडे ने गोली मार दी। मौजूद अन्य अंग्रेज सिपाहियों नें मंगल पांडे को घायल कर पकड़ लिया। उन्होने अपने अन्य साथियों से उनका साथ देने का आह्वान किया। किन्तु उन्होने उनका साथ नहीं दिया।

उन पर मुकदमा (कोर्ट मार्शल) चलाकर 6 अप्रैल 1857 को मौत की सजा सुना दी गई। 18 अप्रैल 1857 को उन्हें फांसी की सजा मिलनी थी। किंतु इस निर्णय की प्रतिक्रिया विकराल रूप न ले सके, इस रणनीति के तहत ब्रिटिश सरकार ने मंगल पांडे को दस दिन पूर्व ही 8 अप्रैल सन 1857 को फांसी दे दी।

मंगल पांडे द्वारा लगायी गयी चिनगारी बुझी नहीं। एक महीने बाद ही 10 मई सन 1857 को मेरठ की छावनी में विप्लव (बगावत) हो गया। यह विप्लव देखते ही देखते पूरे उत्तर भारत में छा गया और अंग्रेजों को स्पष्ट संदेश मिल गया कि अब भारत पर राज्य करना आसान नहीं है।

भारत में, मंगल पांडे एक महान क्रांतिकारी के नाम से जाने जाते हैं। जिन्होंने ब्रिटिश कानून का विरोध किया। भारत सरकार द्वारा 1984 में उनके नाम के साथ ही उनके फोटो का एक स्टेम्प भी जारी किया। वे पहले स्वतंत्रता क्रांतिकारी थे जिन्होंने सबसे पहले ब्रिटिश कानून का विरोध किया था। मंगल पांडे चर्बी युक्त कारतूसो के खिलाफ थे। वे भली-भांति जानते थे कि ब्रिटिश अधिकारी, हिन्दू सैनिको और ब्रिटिश सैनिको में भेदभाव करते थे। इन सब से ही परेशान होकर उन्होंने ब्रिटिश अधिकारियों से लड़ने का बीड़ा उठाया। उन्होंने आज़ादी की लड़ाई की चिंगारी भारत में लगाई थी जिसने बाद में एक भयंकर रूप धारण कर लिया था। और अंत में भारतीयों से हारकर अंग्रेजो को भारत छोड़ना ही पड़ा।

शहीदो के बारे में राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर-

     “अन्धा चकाचौंध का मारा
       क्या जाने इतिहास बेचारा।
       जो चढ़ गए पुष्प वेदी पर 
       लिए बिना गर्दन का मोल 
       कलम आज उनकी जय बोल।।

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