असमय अस्त हुआ संगीत का रवि

Dr.JitendraPandey@Navpravah.com,

जिस प्रकार पूरब की लालिमा का आभास पाते ही पक्षी कलरव करने लगते हैं, मधुमास में फूलों की महक अनायास ही भौरों को आकर्षित करने लगती है, काले बादलों को देखकर मोर नाचने लगते हैं उसी प्रकार संगीत के आकाश में रवीन्द्र का उदय हुआ। परिणामतः अनेक संगीत के बहुतेरे बीज पुष्पित, पल्लवित और फलित हुए।

पंडित इन्द्रमणि जैन के सुपुत्र रवीन्द्र जैन बचपन से ही छंदों की रचना करने लगे थे। संगीत तो उनके पूर्वजों ने उन्हें विरासत में दे दिया था। अलीगढ़ के धूल की सोंधी महक बालक रवीन्द्र के तन, मन और आत्मा में समा गई थी। इस महक का झोंका अलीगढ़ से कोलकाता की तरफ बहा। कोलकाता उनकी साधना-स्थली बनी। बंगाल की मिट्टी की यह ख़ासियत भी रही है कि इसकी रज को शरीर में मलने वाला शोहरत के उच्च शिखर पर पहुंचा है। माँ काली के सानिध्य में श्री जैन ने संगीत के क्षेत्र में एक युगांतकारी कार्य का श्री गणेश किया।

19 सितम्बर, 1968 में रवीन्द्र जी सपनों की नगरी मुम्बई में आए। कवि रामरिख मनहर के साहचर्य ने उनके संघर्षपूर्ण मार्ग को आसान बना दिया।दादा के इस शुरूआती यात्रा में ताराचन्द जी बड़जात्या के सुपुत्र राजकुमार बड़जात्या का वरदहस्त हमेशा रहा। उनके पहले फ़िल्मी गीत का रिकॉर्डिंग 14 जनवरी,1975 में हुआ –

“ग़म भी है न मुकम्मल खुशियाँ भी हैं अधूरी।
आंसू भी आ रहे हैं हंसना भी ज़रूरी।”

इस ग़ज़ल को स्व.रफ़ी और रवीन्द्र जैन ने मिलकर गाया।एक दुनिया को उजाला देकर अस्ताचल की तरफ था तो दूसरा संगीत के क्षेत्र में क्रमशः लालिमा बिखेरने की तैयारी कर रहा था। मो.रफ़ी और दादू की संगति ऐतिहासिक रही।संगीत के इस कारवां में कई गायक पैदा हुए और जुड़े। रवीन्द्र की शीतल छाया में आरती मुखर्जी, हेमलता, जसपाल सिंह, सुरेश वाडकर जैसे सुप्रसिद्ध गायकों ने काफी शोहरत बटोरी। अनगिनत फिल्मों में अपना गीत और संगीत देकर इस फकीरा ने फ़िल्म उद्योग में एक नया कीर्तिमान रचा।

रवीन्द्र जैन 2 मार्च,1982 में दिव्या के साथ परिणय सूत्र में बंध गए। विवाहोपरांत दादू के कैरियर में जैसे पंख लग गए। दिव्या जैन ने इनके हर प्रोजेक्ट में हाथ बंटाकर जीवन को सरल,सुगम और दिव्य बना दिया।इस दिव्यता की कड़ी में छोटे पर्दे पर इतिहास रचने वाला रामानंद सागर का “रामायण”जुड़ गया। इसके माध्यम से जैन की भारी भरकम पहाड़ी आवाज़ जन-मन में बस गई। “मंगल भवन अमंगल हारी…”की गूंज कानों में पड़ते ही लोग टीवी की तरफ दौड़ पड़ते थे। बाद में “कृष्णा हरे मुरारे….” भी हिट हुआ। देशभक्ति के गीत पूरी दुनिया में सराहे गए।

रवीन्द्र जैन एक आशुकवि भी थे। मुशायरों और कवि सम्मेलनों में उनकी उपस्थिति भारी भीड़ का कारण बनती थी। दादा उच्च कोटि के भाषाविद् थे। उर्दू, बंगाली, संस्कृत, अंग्रेजी, मराठी, गुजराती, फ्रेंच आदि भाषाओँ पर उनका असाधारण अधिकार था। सुप्रसिद्ध गायक उदित नारायण ने उनके बारे में ठीक ही कहा था – ” अनेक भाषाओँ के विद्वान , अति गुणी और विलक्षण गीतकार एवं संगीतकार आदरणीय जैन की रचना जिसे गाने का सौभाग्य मिल जाय, वह अपने आप धन्य और सफल हो जाता है।”

अनेक आयामों से युक्त रवीन्द्र जैन वर्तमान गीत-संगीत के क्षेत्र में शलाका पुरुष थे। उनके गीतों में आध्यात्मिकता का आभास होता है। वे फ़िल्म और संगीत के लिए हमेशा पथ-प्रदर्शक बने रहेंगे। उनका असमय अस्त होना भारतीय मनीषा की क्षति है। वे हमेशा अपने गीतों में अमर रहेंगे।

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