डॉ० कुमार विमलेन्दु सिंह | Cinema Desk
मानव हृदय, भावनाओं और संभावनाओं का महासागर होता है और अपने वेग के चरम पर होता है, युवावस्था में। कुछ व्यक्ति इस वेग को अपने अनुसार कृतित्व और रचनात्मकता के लिए प्रयोग में लाते हैं, तो कुछ के मन में भावनाएँ, संभावनाओं पर भारी पड़ जाती है और युवावस्था, एक नकारात्मक और खीझ से भरे हुए कालखंड की भांति प्रतीत होने लगता है। 1956 में जॉन ऑसबॉर्न का नाटक, “लुक बैक इन ऐंगर” ऐसे खीझ से भरे हुए युवा को दर्शकों के मन में स्थापित कर चुका था। लेकिन इस नाटक के मुख्य पात्र, जिमी पोर्टर की खीझ का बहुत बड़ा हिस्सा, वैवाहिक संबंध के कारण था और इससे अलग, 1971 में आई, गुलज़ार की फ़िल्म, “मेरे अपने” के युवकों का खीझ, व्यवस्था और थोड़ा बहुत परिवार के कारण था।
“मेरे अपने”, गुलज़ार द्वारा निर्देशित, पहली फ़िल्म थी। यह तपन सिन्हा की बांग्ला फ़िल्म, “अपनजन” का रीमेक थी। 70 का दशक, भारत के लिए, एक ऐसा समय था, जब पूरा देश , स्वर्णिम भविष्य के लिए आश्वस्त था, लेकिन इस प्रयोजन के सिद्ध होने में, युवा अपनी जगह नहीं पा रहे थे, या उन्हें जगह नहीं दी जा रही थी, यही खीझ का कारण बनता जा रहा था और इस खीझ ने ही “ऐंग्री यंग मैन” के अवतरित होने की स्थितियां बनाईं थीं।”
लेकिन इसके पहले कि अमिताभ बच्चन जैसे महान अभिनेता, इस खीझ को अकेले दिखाते, गुलज़ार ने सामूहिक क्षोभ का चित्रण इस फ़िल्म में अति प्रशंसनीय रूप में किया।
इस फ़िल्म में विनोद खन्ना (श्याम) और शत्रुघ्न सिन्हा (छेनू) दो युवक होते हैं, दोनों अलग-अलग युवा दल का नेतृत्व करते थे और इन दोनों दलों के बीच तनाव बना रहता है। मीना कुमारी (आनंदी देवी), एक विधवा होती हैं, जो उसी मोहल्ले में, परिस्थितिवश रहने आ जाती हैं। विनोद खन्ना (श्याम) और शत्रुघ्न सिन्हा (छेनू) के अलावा डैनी डेंग्ज़ोंग्पा (संजू), पेंटल (बंसी), दिनेश ठाकुर (बिल्लू), देवेन वर्मा (निरंजन) और असरानी (रघुनाथ) का भी बहुत अच्छा अभिनय था। इन सभी किरदारों की अपनी छोटी कहानियां होती हैं, जो एक साथ मिलकर, तत्कालीन समाज की बड़ी कहानी दिखाते हैं। दोनों युवा दलों में बार बार वर्चस्व की लड़ाई होती रहती है और मीना कुमारी (आनंदी देवी) को, ऐसी ही एक लड़ाई में गोली लग जाती है। दोनों दलों को मीना कुमारी से सहानुभूति रहती है और सारे युवा, अपने बड़ों का प्रतिरूप, उस अकेली महिला में देखते हैं। युवा मन जब जीवन के आदर्शों को प्राप्त और उपलब्ध पारिवारिक संरचना में नहीं जी पाता या अपनी भावनाएँ वैसी व्यवस्था में व्यक्त नहीं कर पाता, तब वह उस संरचना के बाहर एक स्थल, एक प्रसार, एक व्यक्ति खोजता है, जहां उसकी अभिव्यक्ति का आकलन न हो, बस सहर्ष स्वीकृति हो। यही कारण है कि युवावस्था में कई संबंध, बनते बिगड़ते हैं।
फ़िल्म के लिए लेखन (पटकथा, संवाद,गीत) गुलज़ार और इन्द्रा मित्रा ने किया और इसके निर्माता, एन०सी० सिप्पी, राज सिप्पी और रोमू सिप्पी थे। सिनेमैटोग्राफ़ी, के० वैकुण्ठ ने किया और संपादन, वामन भोंसले और गुरूदत्त शिराली ने किया था। इस फ़िल्म का संगीत, कभी न भूलने वाला था। संगीत निर्देशक, सलिल चौधरी थे और महान किशोर कुमार की मधुर आवाज़ में गुलज़ार के जादूई शब्द, युवाओं के मन के उस ख़ालीपन और कुंठा को अभूतपूर्व तरीके से प्रस्तुत करने में आज भी पूर्णतः सफल हैं। “कोई होता, जिसको अपना, हम अपना कह लेते”, भारतीय सिनेमा के सबसे अच्छे गानों में से एक है।
भारतीय सिनेमा के इतिहास में, “मेरे अपने” पहली फ़िल्म थी, जिसमें, क्षोभ से भरे हुए और दिग्भ्रमित युवा, अपने प्रतीकों और अवधारणाओं को मनवाना चाहते हैं और दलों में बंटकर एक दूसरे से लड़ते हैं। इसके बाद, “शिवा” से लेकर “3 इडियट्स” तक युवाओं के मानसिक स्थिति और भावनाओं पर फ़िल्में बनती रहीं , लेकिन जीवन के आदर्शों और युवा मन के वैपरीत्य को, अब तक कोई फ़िल्म, ऐसा नहीं दिखा पाई।
(लेखक जाने-माने साहित्यकार, फ़िल्म समालोचक, स्तंभकार, व शिक्षाविद हैं.)