राजेश सोनी | Navpravah.com
27 जनवरी 1996 की सुबह बिहार की ओल्ड ब्रिटिश राज बिल्डिंग में स्थित बिहार के पशुपालन विभाग में अफरा-तफरी का माहौल था। चाईबासा के तत्कालीन कलेक्टर अमित खरे पशुपालन विभाग के बिलों की जांच कर रहे थे। जांच के दौरान एक बात ने उनका ध्यान उन बिलों की ओर खींचा। बिलों की जांच के दौरान उन्होंने पाया कि पशुपालन विभाग के ज्यादातर बिल एक ही धनराशि के थे। सभी बिलों की राशि 9 लाख 90 हजार थी और इस सभी बिलों की भुगतान एक ही सप्लायर को की गई थी। बिलों की राशि 10 लाख से कम इसीलिए थे, क्योंकि दस लाख से ज्यादा की राशि वाले बिलों को पास कराने के लिए प्रशासन से ज्यादा अनुमति लेनी पड़ती थी।
चाईबासा के कलेक्टर अमित खरे को इसी बात का शक हुआ और उन्होंने सीधे पशुपालन के विभाग में फ़ोन लगा दिया। खरे ने पशुपालन विभाग के अधिकारियों से इस मामले में पूछताछ करनी चाही, तो उन्हें पता चला कि सभी अधिकारी और विभाग के कर्मचारी दफ्तर से गायब थे। इसके बाद कलेकटर खुद पशुपालन विभाग के दफ्तर पहुँच गए, वहां पहुँचते ही पशुपालन विभाग दफ्तर का नजारा देखकर वे हैरान रह गए। पशुपालन विभाग के दफ्तर में कलेक्टर अमित ने देखा कि वहां नकदी, नकली ट्रेजेडी बिल और बैंक ड्राफ्ट बिखरे पड़े थे।
बाद में इस मामले की पूरी सूचना जिला मजिस्ट्रेट को दी गई। जिला प्रशासन ने कार्यवाही करते हुए पशुपालन विभाग के दफ्तर को सील कर दिया और साथ ही चाईबासा ट्रेजेडी को भी पशुपालन विभाग के सभी बिलों के भुगतान करने से मना कर दिया। अकाउंटेंट जनरल दफ्तर और राज्य के वित्त विभाग से इस मामले की जांच करवाने के बाद अधिकारियों के पैरों तले से जमीन खिसक गई, जब उन्हें यह पता चला कि जितना पैसा चाईबासा खजाने से निकाला गया था, उतना तो इस विभाग के लिए पूरे राज्य का बजट तक नहीं था।
अब यह मामला बिहार पुलिस तक पहुंचा और पशुपालन विभाग के 100 से ज्यादा अफसरों, ठेकेदारों और सप्लायर्स को बिहार पुलिस द्वारा रातों-रात गिरफ्तार कर लिया गया। पुलिस की पूछताछ के बाद अब पूरी तस्वीर साफ़ होने लगी थी। पशुपालन विभाग के भ्रष्ट अधिकारियों और नेताओं की मिलीभगत ने बिहार में बहुत बड़े घोटाले को अंजाम तक पहुँचाया और यह घोटाला था “चारा घोटाला।”
सीबीआई की चारा घोटाले जांच में भूमिका –
चारा घोटाले की जांच अब बिहार पुलिस से ले ली गई थी और सीबीआई के हाथों में जांच सौंप दी गई थी। सीबीआई ने स्वतंत्र तरीके से इस घोटाले की जांच करनी शुरू कर दी थी। सीबीआई ने इस घोटाले में शामिल गवाहों, दोषियों की रहस्यमय मौत से पर्दा उठाया और किस तरह सीबीआई के हाथ लालू प्रसाद यादव के गिरेबान तक पहुँच गए, आइये जानते हैं-
इस घोटाले के दौरान सूबे में जनता दल की सरकार थी। इस सरकार में लालू प्रसाद यादव मुख्यमंत्री थे, लेकिन इस घोटाले के उजागर होने के बाद भाजपा, कांग्रेस और समता दल ने इस घोटाले की जांच सीबीआई के हाथों में सौंपने की मांग शुरू कर दी थी। जिसके चलते पटना उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका भी दायर की गई, याचिका को पटना उच्च न्यायालय ने मंजूर कर लिया और 11 मार्च 1996 में उच्च न्यायालय ने इस घोटाले की सीबीआई जांच करने की इजाजत दे दी। पटना उच्च न्यायालय के इस फैसले के विरोध में बिहार सरकार ने देश के सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की। बाद में बिहार सरकार की इस याचिका को सर्वोच्च न्यायालय ने ख़ारिज कर दिया था। आख़िरकार 27 मार्च 1996 को सीबीआई ने पूरे चारा घोटाले की जांच अपने हाथ में ले ली।
घोटाले से जुड़े गवाहों और दोषियों की हत्याओं का सिलसिला-
सीबीआई ने चाईबासा खजाने में हुए धोखाधड़ी के मामलों के ऊपर केस दर्ज कर लिया, बस इसके बाद ही इस मामले से जुड़े गवाहों और दोषियों की हत्याओं का सिलसिला जारी हो गया। इस साजिश का पहला शिकार बने लाला विश्व मोहन, जो रांची में सहायक निदेशक के पद पर पशु पालन विभाग में थे। 19 नवंबर 1996 में एक ट्रक ने उनको कुचल दिया। हालाँकि, लाला विश्व मोहन भी इस पूरे मामले में दोषी थे। लाला विश्व मोहन का कहना था कि उन्हें इस चारा घोटाले मामले में धोखेबाजी से फसाया जा रहा है। सीबीआई का कहना था कि लाला विश्व मोहन इस मामले में गवाह बने को भी तैयार थे। लाला विश्व मोहन की हत्या के 2 महीने पहले भी एक सरकारी गाड़ी में दोषियों को ले जाते वक़्त गुंडों द्वारा उन पर अंधाधुन्द गोलियां बरसाने का मामला भी सामने आया था, जिसमें उस गाड़ी में सवार सभी दोषियों की जान बाल-बाल बची थी। 20 नवंबर 1996 को ही इस घोटाले के एक और आरोपी डॉ. विरसा और राउ के ड्राइवर मनु मुंडा का अपहरण कर उनको मौत के घाट उतार दिया गया।
सीबीआई का कहना था कि मनु मुंडा इस केस के बारे में काफी कुछ जानता था और वह इस मामले में काफी अहम गवाह बन सकता था। इसके बाद तो इस घोटाले से जुड़े हुए गवाहों और दोषियों के मौत का सिलसिला सा शुरू हो गया। मुंडा के बाद 26 दिसंबर 1996 को जे.एन. तिवारी जो कि पशुपालन विभाग में कर्मचारी थे, की हत्या ट्रक हादसे में हो गई थी। 7 मई 1997 को सप्लायर हरीश खंडेलवाल की सर कटी लाश धनबाद के रेलवे लाइन पर पाई गई। 15 मई 1997 को डॉ. राम राज सिंह की भी ट्रक हादसे में मौत हो गई। 12 जून 1998 में इस घोटाले के खिलाफ याचिका दायर करने वाले विवेकानंद शर्मा की रांची में गोली मारकर हत्या कर दी गई। 4 जुलाई 1998 में पशुपालन विभाग के कर्मचारी उमा शंकर सिंह की ट्रक हादसे में मौत हो गई थी। इन हत्याओं के मामलों की जांच करने कोशिश कभी बिहार पुलिस ने की ही नहीं और सारा मामला ठन्डे बसते में चला गया।
घोटाले में शामिल आरोपी-
सीबीआई एक साल की जांच के बाद इस नतीजे पर पहुंची कि घोटाले की खबर तत्कालीन मुख्यमंत्री लालूप्रसाद यादव को भी थी, जिसके बाद 10 मई 1997 को सीबीआई ने बिहार के राज्यपाल से मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव के खिलाफ मुकदमा चलाने की इजाजत मांगी। राज्यपाल की इजाजत मिलते ही सीबीआई ने यह पूरा मामला अपने सयुंक्त निदेशक यूएन विश्वास को सौंप दिया। सीबीआई ने 17 जून 1997 को बिहार सरकार के 5 बड़े अधिकरियों को हिरासत में ले लिया। इन अधिकारियों में बेग जूलियस, मूलचंद, राम राज, के. अमुगान शामिल थे। इनसे पूछताछ करने के बाद 23 जून 1997 को सीबीआई द्वारा पहला आरोप पत्र दाखिल किया था, इसमें लालूप्रसाद यादव समेत 55 लोगों को आरोपी बनाया गया था। इनके अलावा बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जगननाथ मिश्रा और पूर्व केंद्रीय मंत्री चंद्रदेव वर्मा का नाम भी शामिल था। इन सब पर सीबीआई ने 63 मुकदमे दायर किए थे।
कब हुआ चारा घोटाला-
सीबीआई के अनुसार चारा घोटाला सन 1990 से 1996 के बीच हुआ था, जिसमें तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव का हाथ था। सीबीआई का कहना है कि उस वक़्त लालू प्रसाद यादव बिहार राज्य के मुख्यमंत्री के साथ-साथ वित्त मंत्री भी थे। लालू प्रसाद यादव की अनुमति के बिना सरकारी खजाने से इतना पैसा निकालना संभव ही नहीं था।
लालू प्रसाद यादव ने किया नए पार्टी का गठन-
चारा घोटाले में खुद को घिरते देख लालू प्रसाद ने राष्ट्रीय जनता दल नाम से नई पार्टी बना ली। अब उन्होंने अपना रास्ता जनता दल से अलग कर लिया था। 25 जुलाई 1997 को लालू प्रसाद यादव ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़ा दे दिया, जिसके 3 तीन बाद ही लालू यादव ने कांग्रेस से समर्थन लेकर अपनी पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री पद पर बिठा दिया था।
लालू यादव कब-कब पहुंचे सलाखों के पीछे-
30 जुलाई 1997 को चारा घोटाले के मामले में लालू को गिरफ्तार कर लिया गया था। लालू को सजा के तौर पर 135 दिन की कारावास की सजा काटने के बाद जमानत मिली। इसके बाद लालू को एक बार फिर सन 2000 में एक दिन के लिए जेल जाना पड़ा। अक्टूबर 2001 में बिहार से अलग होकर झारखंड एक अलग राज्य बन गया था। इसके बाद ही चारा घोटाले के मामले को रांची में तीव्र कर दिया गया। इस मामले की सुनवाई साल 2006 में ख़त्म हुई और 31 मई 2007 को रांची की एक विशेष सीबीआई अदालत ने लालू प्रसाद के साथ उनके भतीजों को और 58 में से 57 दोषियों को सजा सुनाई थी।
3 अक्टूबर 2013 को रांची की सीबीआई विशेष अदालत ने चाईबासा से फर्जी निकासी मामले में 40 लोगों के साथ लालू को 5 साल और जगननाथ मिश्रा को 4 साल जेल की सजा सुनाई थी, लेकिन लालू यादव को दिसंबर में जमानत मिल गई। इस फैसले के बाद से ही लालू यादव को अपनी लोकसभा सीट से हाथ गवाना पड़ा था। सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश के अनुसार, किसी भी जन-प्रतिनिधि के खिलाफ अगर 2 साल से ज्यादा समय तक मामला चल रहा हो, तो उसे उसकी सीट छोड़नी पड़ती है। कुल 53 में से 47 मामलों पर फैसला आ चुका है। अब 48वां मामला देवघर के खजाने में से अवैध निकासी का है, जिसमें लालू प्रसाद यादव को कोर्ट ने दोषी करार दे दिया है। वहीं, उनके साथ इस आरोप में शामिल जगननाथ मिश्रा को कोर्ट ने रिहा कर दिया है। लालू प्रसाद यादव समेत पांच दोषियों को कोर्ट आगामी 5 जनवरी को सजा सुनाएगी।