नलिनी मिश्रा | Navpravah.com
भारतीय समाज यूँ तो महिलाओं को माँ का दर्जा देता हैं, चाहे वो धरती हो, नदी हो, या गाय। लेकिन इसी देश ने कभी महिला को मातृत्व को चुनने की आजादी नहीं दी। माँ होना हर महिला का अधिकार है, लेकिन उस मातृत्व की अनुभूति की आज़ादी नहीं हैं।
माँ बनना किसी भी महिला के लिए सबसे बड़ी खुशी का पल होता हैं, लेकिन इसी समाज की मानसिकता के कारण कुंती ने कर्ण को खुद से अलग कर दिया।
बिन ब्याही माँ होने का डर-
आए दिन न जाने कितनी माँए अपने कलेजे के टुकड़े को कूडे़दान, मंदिर के बाहर, अनाथालय आदि जगह छोड़ने पर मजबूर हो जाती हैं। ऐसा नहीं कि उनमें ममता नहीं हैं, लेकिन शायद हमारे समाज का डर ममता पर ज्यादा भारी पड़ जाता है, ममता हार जाती हैं।
समाज क्या कहेंगा? चरित्र पर दाग़ लगाएगा! बच्चे की परवरिश कैसे होगी, यह सब सोच कर माँ मजबूर हो जाती है अौर अपने दिल के टुकड़े को खुद से अलग कर देती है।
कुछ दिनों पूर्व एक युवती समाज के डर से इंटरनेट के माध्यम से अपना प्रसव खुद कर रही थी अौर वो हार गई। सबने एक पक्ष देखा कि इंटरनेट का इस्तेमाल कभी भी स्वास्थ्य संबंधी जानकारी के लिए न करें, लेकिन समाज ने यह नहीं सोचा कि उसकी क्या मजबूरी थी, जो वो सबसे छुप करअपने बच्चे को जन्म देने जा रही थी? शायद बिन ब्याही माँ होने का डर उसे ऐसा करने पर मजबूर कर दिया। सवाल यह हैं कि मातृत्व की इतनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है।
न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री जो अब शादी के बंधन में बंधने जा रही हैं वो भीएक बच्ची की माँ हैं, जो कि सभी महिलाओं के लिए एक उदाहरण हैं। उनके समाज में माँ का अर्थ केवल माँ हैं, बिन ब्याही माँ नहीं।
इस मदर डे मैं सबसे अपील करना चाहूँगी की माँ को केवल माँ ही जाने अौर समझें। उसके मातृत्व की इज्जत करें, ताकि फिर कोई कुंती अपने कर्ण कोखुद से अलग न करे, ताकि फिर माँ समाज के डर से खुद प्रसव कराने में मजबूर न हों, ताकि फिर कोई माँ मजबूरी में शादी न करें। हमारे समाज में संवेदनशीलता की जरूरत हैं अौर मातृत्व के प्रति सम्मान की।