हिंदी का साहित्येतिहास लेखन और डॉ श्रीभगवान तिवारी

डॉ. जितेंद्र पाण्डेय | Navpravah.com 

साहित्य का इतिहास लेखन एक दुष्कर कार्य है । इसमें मात्र कवि व उसके रचना कर्म का विश्लेषण ही नहीं बल्कि युग- बोध भी शामिल होता है। साहित्येतिहास लेखन में कई धाराएं समानांतर चलती हैं । इनमें भाषा, समाज, राजनीति और दर्शन मुख्य हैं। हिंदी साहित्य के विकास में बोलियों की महती भूमिका है। अतः हिंदी भाषा का उद्भव, स्वरूप और विकास भी साहित्य का सहयात्री  है। एक साहित्येतिहास लेखक के लिए जहां समाजशास्त्रीय ढंग से समाज की हर धड़कन को टटोलना एक चुनौती होती है वहीं तथ्यों की खोज, संकलन , पहचान और क्रमबद्धता के लिए वैज्ञानिक दृष्टिकोण का होना ज़रूरी  है। लेखक के लिए धर्म, दर्शन, अध्यात्म और परंपरा की समझ अनिवार्य है। इससे युग-चेतना का भान होता है। इन सबके बावजूद लेखक की अपनी दृष्टि होती है जो साहित्येतिहास लेखन  में उसे अलग पहचान दिलाती है।

गार्सा द तासी, जार्ज ग्रियर्सन, शिवसिंह सेंगर तथा मिश्र बंधुओं की गणना  प्रारंभिक साहित्येतिहासकारों में होती है। इन्होंने ही साहित्य के इतिहास लेखन की नींव रखी। इनकी सबसे बड़ी समस्या तिथियों- तथ्यों की खोज और काल- विभाजन की थी क्योंकि आदिकालीन कवियों ने स्वयं का परिचय अपनी रचनाओं में न के बराबर दिया था। पांडुलिपियों की खोज एक चुनौती के रूप में उभरी। हलांकि ‘काशी नागरी प्रचारिणी सभा’ इस कार्य के लिए आगे आई । बाद में साहित्येतिहास लेखकों ने सभा के इन सद्प्रयासों का लाभ भी उठाया । किंतु हिंदी साहित्य का व्यवस्थित और प्रामाणिक इतिहास आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने 1929 में लिखा जो अद्यतन हिंदी साहित्य के लिए प्रकाशस्तंभ बना हुआ है। आचार्य शुक्ल ने सामग्री संकलन, प्रवृत्ति-निर्धारण और कालविभाजन पर बड़ी बारीकी से कार्य किया। युगानुरूप मुख्य प्रवृत्ति के आधार पर नामकरण शुक्लजी की बड़ी देन है। भाषा का सम्बन्ध जितना समाज से है उतना साहित्य से भी है। अतः कृतियों का मूल्यांकन करते हुए आचार्य शुक्ल इनके मध्य संतुलन स्थापित करते हुए सामाजिक चेतना को सर्वोपरि रखते हैं। वे लिखते हैं -“प्रत्येक देश का साहित्य वहां की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिंब होता है।” शुक्ल जी के बाद तमाम विद्वानों ने अपनी-अपनी स्थापनाएं रखीं किंतु आचार्य की इस स्थापना के खंडन का साहस किसी में नहीं हुआ।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल के बाद हजारी प्रसाद द्विवेदी ने “हिंदी साहित्य की भूमिका” लिखी जिसमें हिंदी साहित्य के इतिहास को एक नयी और व्यापक दृष्टि से देखा गया था। द्विवेदी जी ने रचनाओं का मूल्यांकन तथ्यपरक और वृहद् परिप्रेक्ष्य में किया था। इसके बाद रामकुमार वर्मा का “हिंदी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास”, डॉ. धीरेन्द्र वर्मा का “हिंदी साहित्य का इतिहास” और डॉ. नगेन्द्र का “हिंदी साहित्य का इतिहास ;हिन्दी वाङ्गमय बीसवीं शती” जैसी कृतियों से साहित्येतिहास लेखन समृद्ध से समृद्धतर होता गया। वैचारिक-लेखन की रिक्तता की पूर्ति होती गई ।कालान्तर में हिंदी साहित्य के आधुनिक काल-विभाजन की समस्या सामने आई। आचार्य शुक्ल से लेकर रामस्वरूप चतुर्वेदी तक ने आधुनिक साहित्य का काल-निर्धारण 1840 से लेकर 1850 के मध्य माना और निर्धारित वर्ष भी बताया किन्तु पहली बार डॉ. रामविलास शर्मा ने “भारतीय साहित्य की भूमिका” में आधुनिक काल का प्रस्थानबिंदु 1857  बताया। यही नवजागरण काल था। 1857 की क्रांति एक सैनिक विद्रोह मात्र नहीं बल्कि इससे लोगों में “राष्ट्र-मुक्ति” और “समाज-मुक्ति” की आकांक्षा जागी थी । डॉ. रामविलास शर्मा ने पांच लेखकों (भारतेंदु हरिश्चंद्र, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, प्रेमचंद, आचार्य रामचंद्र शुक्ल और सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराली’) को आधुनिक हिंदी साहित्य के प्रतिनिधि के रूप में प्रस्तुत किया क्योंकि इन लेखकों की कृतियों में नवजागरण के तमाम बिंदु प्रभावशाली ढंग से मौजूद हैं।

हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन में स्त्री लेखिकाओं ने भी अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराई है। ये लेखिकाएं साहित्येतिहास लेखन पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करती हैं। इसीलिए सुमन राजे ने अपने “हिंदी साहित्य का आधा इतिहास” में महिला रचनाकारों को केंद्र में रखा। इनका मानना है कि प्रत्येक युग में स्त्री लेखन विपुल मात्रा में हुआ है, भले ही ये लेखन लोकगीतों के रूप में क्यों न हों ! इतिहास- लेखन में पुरुषवादी दृष्टिकोण हावी रहा है। वे लिखती हैं ,”यह पहली बार है कि लोकगीतों को महिला लेखन का साक्ष्य मानते हुए उसे इतिहास में दर्ज़ किया गया है, उसमें इतिहास तलाशा गया है और जन-इतिहास की खोज की गयी है । और यह भी पहली बार हुआ है कि महिला-लेखन का एक समूचा साँस लेता हुआ सौंदर्यशास्त्र भी हमें हासिल हुआ है। हिंदी साहित्य का आधा इतिहास महिला-लेखन के बने-बनाये पूर्वाग्रहों को तोड़ता है, सांचों को नकारता है, मिथकों को बदलता है और एक नये रचना-कर्म का आविष्कार करता है ।” हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन में हिंदूवादी दृष्टि का आरोप भी लगता रहा है। चन्द्रगुप्त वेदालंकार अपने “हिंदी साहित्य का सही इतिहास” में यही आरोप लगाते हुए कहते हैं कि हिंदी साहित्य का इतिहास एक ‘ख़ास नज़रिए’ से लिखा गया है। मैंने अपने इतिहास लेखन में आद्यंत “बुद्धिज़्म” का ध्यान रखा है।

डॉ. मैनेजर पाण्डेय, रंजीत गुहा, रामचंद्र गुहा, गौतम भद्र, पार्थ चटर्जी, बद्रीनारायण, हितेन्द्र पटेल जैसे समकालीन साहित्य के इतिहासकारों ने हिंदी साहित्य को नए सिरे से लिखने की पहल की है। परिणामस्वरूप उन्होंने ऐसी कृतियों का सम्यक् मूल्यांकन किया है जिनमें आदिवासी समस्याओं को उभारा गया। ये लेखक ऐसी  रचनाओं को केंद्र में ला रहे हैं, जिनमें साम्प्रदायिकता का दंश, दलितों की वेदना और विश्वग्राम का भयावह चेहरा अपनी जगह बनाता है। इन्हीं साहित्येतिहास लेखकों में डॉ. श्रीभगवान तिवारी का नाम बड़ी तेजी से उभरता है। डॉ. तिवारी का “हिंदी साहित्य का इतिहास” सहस्राब्दि तक की कृतियों और रचनाकारों का वैज्ञानिक मूल्यांकन करता है। यही दृष्टि लेखक को अन्य साहित्येतिहास लेखकों से अलग करती है। तिवारी जी पुस्तक की भूमिका में स्वीकार करते हैं, “साहित्य के इतिहास का सम्बन्ध अतीत की व्याख्या से होता है और प्रत्येक व्याख्या के मूल में इतिहास लेखक का दृष्टिकोण अनुस्यूत रहता है। एक साहित्य के इतिहास के लेखक के रूप में मेरा दृष्टिकोण मूलतः वैज्ञानिक है। सिद्धान्तों तथा प्रतिष्ठित नियमों को केंद्र में रखकर प्राप्त सामग्री की तथ्यपरक एवं बौद्धिक व्याख्या इस ग्रन्थ में सुस्पष्ट रूप से की गई है।”

इतिहास दर्शन के सम्बन्ध में डॉ. तिवारी ने पाश्चात्य और भारतीय इतिहासकारों की तुलना करते हुए बताया है कि जहाँ पाश्चात्य इतिहासकारों की दृष्टि वैज्ञानिक और यथार्थवादी रही है, वहीं भारतीय इतिहासकार आदर्शोन्मुखी रहे हैं। इस प्रक्रिया में उन्होंने हीगल, डार्विन, कार्लमार्क्स, ओस्वाल्ड स्पेंगलर, आर्नोल्ड जोसेफ टॉयनबी आदि का नाम बड़े आदर के साथ लिया है। यहां वे अध्यात्मवाद-भौतिकवाद और निवृत्तमार्ग-प्रवृत्तमार्ग जैसे दृष्टान्तों से इतिहास- दर्शन सम्बन्धी अनेकानेक प्रचलित धारणाओं को स्पष्ट करते हैं।

डॉ. तिवारी ने अपने “हिंदी साहित्य के इतिहास” में कालविभाजन और नामकरण के लिए पूर्व परिपाटी का ही अनुसरण किया है किंतु सबकी पूर्व पीठिका नितांत तथ्यपरक और वैज्ञानिक है। तिवारी जी ने पुस्तक को कुल चार खण्डों में विभाजित किया है। प्रथम खंड-आदिकाल, द्वितीय खंड -पूर्व मध्यकाल(भक्तिकाल), तृतीय खंड -उत्तर मध्यकाल (रीतिकाल) और चतुर्थ खंड  आधुनिक काल है। आधुनिक काल की पूर्व पीठिका में लेखक ने जहां आधुनिक काल का प्रारम्भ सन् 1850 में स्वीकार किया  है, वहीं वह आधुनिकता का प्रादुर्भाव सन् 1857 से मानता है।

डॉ. श्रीभगवान तिवारी का अध्ययन व्यापक और गहरा है । इसकी परिधि में ज्ञान-विज्ञान के सभी भारतीय स्रोत समाहित हैं । साहित्य के लिए दर्शन और इतिहास की अपरिहार्यता पर इस मनीषी चिंतक ने काफी बल दिया है । ये लिखते हैं, “दर्शन, इतिहास तथा साहित्य में गहरा सम्बन्ध होता है । यद्यपि इन अनुशासनों का विषय और क्षेत्र अलग-अलग होता है फिर भी दर्शन और इतिहास का समावेश साहित्य में अवश्य होता है । दर्शन विश्व को केवल समझता ही नहीं, समझाता भी है ।” डॉ. तिवारी का अध्ययन क्षेत्र मात्र भारतीय साहित्य ही नहीं बल्कि पाश्चात्य साहित्य और इतिहास भी  है । इन्होंने अंग्रेजी साहित्य के विभिन्न काव्यान्दोलनों का बारीकी से अध्ययन किया है । एज़रा पाउंड के बिंब और बिम्बवाद को बड़ी सूक्ष्मता से जांचा-परखा है । हिंदी साहित्य के आधुनिक इतिहास पर पाश्चात्य चिंतन, और साहित्य के प्रभाव को लेखक ने बड़ी सूक्ष्मता से उकेरा है । लेखक ने ‘आधुनिक’, ‘आधुनिकता’ और ‘आधुनिकतावाद’ के अंतर को स्पष्ट करते हुए लिखा है, “अंग्रेजी में किसी ‘विचार-निकाय’ की प्रतिष्ठा के लिए शब्दों के पश्चभाग में ‘ism’ लगाने की प्रथा है । अंग्रेजी के ‘ism’ शब्द का तात्पर्य हिंदी में ‘वाद’ है । जब किसी शब्द के पश्चभाग में ‘वाद’ शब्द जोड़ा जाता है तब वह आंदोलन का रूप धारण कर लेता है और इस प्रकार हिंदी और अंग्रेजी में अनेक आंदोलन चले हैं । अंग्रेजी में आधुनिक शब्द के तीन रूप हैं – Modern (आधुनिक), Modernity (आधुनिकता), Modernism (आधुनिकतावाद) । आधुनिक शब्द का प्रयोग विशेषण के रूप में होता है । जैसे – आधुनिक सभ्यता । आधुनिकता का तात्पर्य दृष्टि से है और आधुनिकतावाद का सम्बन्ध आंदोलन से है ।”

विवेच्य पुस्तक “हिंदी साहित्य का इतिहास” का चतुर्थ और अंतिम खंड “आधुनिक काल” है जिसका अंतिम सोपान “उत्तर आधुनिकतावाद-काल” सुनिश्चित किया गया । इसमें स्त्रीवाद, महानगरीय बोध, हिन्दू-मुस्लिम-एकता, मृत्युबोध जैसे गंभीर विषयों को प्रवृत्ति के रूप में दर्शाया गया है । गतिशील पूंजी के आकर्षक रूपों की विभीषिका पर केंद्रित पुस्तकों की तरफ लेखक ने इशारा किया है । शिल्प-प्रयोग और  भाषा की संरचना पर इतिहासकार आश्वस्त है । वैश्विक युग में विशुद्ध भाषा की अपेक्षा करना बेमानी है । भाषा प्रवाहित जल की तरह अपना स्वरूप बदलती है । पुस्तक में डॉ. तिवारी गंभीर से गंभीर दर्शन को जन की साधारण भाषा में व्यक्त करते हैं । पांडित्य प्रदर्शन लेस मात्र भी नहीं । यही कारण है कि इस पुस्तक के पाठकों की संख्या बढ़ती जा रही है।

डॉ. तिवारी का  666 पृष्ठों में सिमटा “हिंदी साहित्य का इतिहास” आकार में वृहद् तो है किंतु कुछ महत्त्वपूर्ण बिंदुओं के लिए रिक्तता भी है । इस संदर्भ में लेखक की स्वीकारोक्ति है – “आपातकाल (1975) के बाद हिंदी साहित्य में एक नया मोड़ आता है और इस काल में आधुनिकतावादी प्रवृत्ति उत्तर आधुनिकतावाद के रूप में परिणत हो गई । “उत्तर आधुनिकतावाद” के अधिकांश लक्षण किसी न किसी रूप में आधुनिकतावाद में विद्यमान दिखाई पड़ते हैं । साहित्यिक घटना के रूप में “उत्तर आधुनिकतावाद” आधुनिकतावाद के बाद आया है और यह अभी उदीयमान अवस्था में है । इसमें स्थैर्य नहीं, नैरन्तर्य है ।” तिवारी जी की स्वीकारोक्ति तर्कसंगत है, क्योंकि समकालीन साहित्य संक्रमणकाल से गुज़र रहा है । विमर्शों के दौर में अभी कुछ स्पष्ट है । हाँ, साहित्य की तमाम विधाओं में समकालीन परिस्थितियां अपनी सुदीर्घ परंपरा और परिस्थितिजन्य रूपों में मौजूद अवश्य हैं । भूमण्डलीकरण में पूरी दुनिया एक गांव बन चुकी है । सूचनाओं का द्रुत रेला पल-पल मिल रहा है । इनके अलावा दूसरे देशों के  साहित्य-सृजन की खबरें सुनने और पढ़ने को मिल रही हैं ।

जुलाई-सितंबर, 2015 के अनुसार आज विश्व में हिंदी जानने वालों की संख्या 18 प्रतिशत है । वहीं दुनिया के दर्ज़नों विश्वविद्यालय में हिंदी साहित्य पर शोध कार्य हो रहा है । प्रवासी साहित्य अपने समाज और युगीन चेतना को बखूबी व्यक्त कर रहा है । अनंत का ‘लाल पसीना’, वेणीमाधव रामखेलावन का ‘और दीवार ढह गई’ और राम धुरन्धर का ‘पथरीला सोना’ जैसे उपन्यास काफी चर्चा में हैं । इन लेखकों के अलावा पुष्पिता अवस्थी और अनिल जनविजय जैसे दर्ज़नों समर्थ रचनाकार अपनी बेजोड़ कृतियों द्वारा हिंदी साहित्य को अधिक व्यापक और समृद्ध बना रहे हैं। कहने का निहितार्थ यह है कि आज ऐसे हिंदी साहित्य के इतिहास की आवश्यकता है जिनमें विश्व के कोने-कोने में बैठे लेखकों की कृतियों का मूल्यांकन हो सके। हम वहां के दर्शन, इतिहास, सामाजिक और राष्ट्रीय चेतना से परिचित हो सकें। यही बेचैनी  डॉ. करुणाशंकर उपाध्याय की चर्चित पुस्तक ‘हिंदी का विश्व संदर्भ” में भी देखने को मिलती है। डॉ. उपाध्याय लिखते हैं, “अब हमें साहित्य में चल रहे विविध विमर्शों मसलन स्त्री विमर्श, दलित विमर्श, आदिवासी विमर्श, साम्प्रदायिकता विमर्श तथा उत्तर आधुनिक विमर्श को ही अपने साहित्येतिहास में स्थान नहीं देना है अपितु देश के बाहर मॉरिशस, फिजी, सूरीनाम, ट्रिनिडाड, गयाना, संयुक्त राज्य अमेरिका, मेक्सिको, कनाडा, इंग्लैंड, फ्रांस, जर्मनी, आस्ट्रेलिया, हंगरी, बुल्गारिया, रोमानिया, मध्य एशियाई देशों, इजराइल, खाड़ी देशों, नेपाल, श्रीलंका, पाकिस्तान, बांग्ला देश, चीन, जापान तथा दक्षिण पूर्व एशियाई देशों में लिखे जा रहे हिंदी साहित्य का अतिशय सावधानी से संकलन करना होगा । उनका सम्यक् विश्लेषण करते हुए गुण, सूचना, आवश्यक संदर्भ बदलते समय को चिन्हित करने वाले प्रयास आदि के आधार पर हिंदी साहित्य के इतिहास में उन्हें यथोचित स्थान देना होगा ।”

निष्कर्षतः डॉ. श्रीभगवान तिवारी उत्तर आधुनिकतावाद में “नैरन्तर्य” शब्द देकर अनंत सम्भावनाओं का द्वार खोल देते हैं । डॉ. तिवारी की यही विशेषता उनके “हिंदी साहित्य के इतिहास” में आद्यंत है, चाहे वह चिंतन की हो अथवा शिल्प की । सबमें उन्मुक्तता है, कहीं कोई बंधन नहीं, निषेध नहीं । मुझे विश्वास है कि आचार्य शुक्ल की तरह  डॉ. श्रीभगवान तिवारी की यह कृति भविष्य के साहित्येतिहास लेखकों के लिए प्रकाश स्तंभ बनेगी और इससे समूचा हिंदी जगत लाभान्वित होगा।

अस्तु।

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