भय बिनु होय न प्रीति

यात्रावृत्त

डॉ. जितेन्द्र पांडेय 

धूप-छांह की आंख मिचौली में हमारी बस सरपट दौड़ रही थी। सड़क के दोनों ओर उगे नारियल के पेड़ तेज़ी से पीछे भाग रहे थे। सुदूर नज़र स्थिर करने पर धरती के वृत्ताकार में घूमने का भ्रम होने लगता था, जो सत्य भी है। तमाल वृक्षों की शोभा निहारते-निहारते आंख कब लगी, पता ही नहीं चला। सह यात्रियों की कुलबुलाहट और हवा के ठंडे झोंके से आंख खुली तो सामने अकल्पनीय दृश्य था। सड़क ब्रिज में बदल गई थी। दोनों ओर सागर का नीला जल हिलोरें ले रहा था।

दक्षिण से उत्तर की ओर बहता हिंद महासागर का पानी नदी की शक्ल अख़्तियार किए था। ऐसा लगता था, मानो आकाश की नीलिमा और नीले जल के बीच हम उड़ते जा रहे हों। यह वही ब्रिज है जो दसकों से प्रकृति की उग्रता पर अपनी धौंस जमा रहा है। इसने अनेकों बार समुद्री प्रकोप को झेला है। इस सेतु को अंतिम रूप काम के धुनी श्रीधरन ने दिया था। अनुमानित बजट और निर्धारित समय-सीमा के अंदर बना यह पुल मज़बूत और खूबसूरत है। श्रीधरन की कार्यशैली का बेजोड़ नमूना और दक्षिण भारत की शान। लगभग शाम हो चुकी थी। उस पार पहुंचकर ठहरने का प्रबंध स्वयं करना था।अतः उसे प्राथमिकता में शामिल करना पड़ा।

दूसरे दिन सुबह उठा तो स्वर्गीया माता जी रामेश्वरम-महात्म्य बताने लगीं -” रामेश्वरम द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक माना जाता है। यहीं पर प्रभु राम की कल्पना ने साकार रूप लिया था- ‘करिहौं इहां सम्भु अस्थापना। मोरे हृदय परम कलपना।’ रामेश्वरम से जुड़े पौराणिक दृष्टान्तों का  हवाला देते हुए माताजी उस पवित्र स्थान के विषय में मेरी समझ और ज्ञान को विस्तृत कर रही थीं। हाथ जोड़कर उन्होंने ऊंचे स्वर में प्रार्थना किया –

“सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम्।
उज्जयिन्यां महाकालमोंकारममलेश्वरम्।।
परल्यां वैद्यनाथं च डाकिन्यां भीमशंकरम्।
सेतुबन्धे तु रामेशं नागेशं दारुकावने ।।
वाराणस्यां तु विश्वेशं त्र्यम्बकं गौतमीतटे।
हिमालये तु केदारं घुश्मेशं च शिवालये।।
एतानि ज्योतिर्लिङ्गानि सायं प्रातः पठेन्नरः।
सप्तजन्मकृतं पापं स्मरणेन विनश्यति।।”

उनके स्वाध्याय और वाचिक परंपरा द्वारा संचित ज्ञान का पूरा लाभ मुझे मिल रहा था। देखते-देखते सूरज चढ़ने लगा।माताजी को बीच में रोककर उस दिन की योजना समझाते हुए मैंने कहा कि अब हमें दर्शनार्थ रामनाथ मंदिर की तरफ बढ़ना चाहिए। सीप, शंख और कौड़ियों के लुभावने बाज़ार से गुजरते हुए हम 6 हेक्टेयर में फैले रामनाथ मंदिर के प्रवेश द्वार (गोपुरम) तक पहुंचे। 40 फीट ऊंचे गोपुरम की भव्यता देखते ही बनती थी। मंदिर के अंदर कई प्रकार के गलियारे अपनी लम्बाई के लिए जग-जाहिर हैं। इसके लिए तीसरे प्रकार का गलियारा विश्व का सबसे लम्बा गलियारा माना जाता है।इसकी लम्बाई उत्तर -दक्षिण में 197 मीटर एवं पूर्व-पश्चिम में 133 मीटर है। परकोटे की चौड़ाई 6 मीटर और ऊंचाई 9 मीटर है। मंदिर के अंदर एक पंक्ति में खड़े सैकड़ों विशाल खम्भे तोरण की तरह सुंदर दिखाई देते हैं। ये देखने में एक समान हैं किन्तु, नज़दीक जाने पर पता चलता है कि इन पर की गई पच्चीकारी अलग-अलग है। द्रविड़ वास्तु का अप्रतिम उदाहरण। भारतीय शिल्प के अध्येताओं को यहां अवश्य आना चाहिए। भीमकाय पाषाण को सलीके से तराशकर उन पर बनाई गई आकृतियां यहां सजीव हो उठी हैं। आश्चर्य तो तब होता है, जब हम रामेश्वरम की भौगोलिक स्थिति पर विचार करते हैं। कहां से इतने विशालकाय पत्थर मंदिर के लिए मंगाए गए होंगे ? पत्थर के स्रोत के रूप में यहां मात्र गंधमादन नाम की एक छोटी पहाड़ी है, जो मात्र एक टीला है।

रामनाथ मंदिर का भीतरी भाग काले पत्थर से बना है। सम्भवतः ये पत्थर समुद्री रास्ते से मंगाए गए होंगे। कई राजाओं के सामूहिक प्रयास का नतीज़ा है, आज का यह रामेश्वरम मंदिर।
मंदिर के गर्भ गृह में स्थापित मुख्य शिवलिंग आकार में छोटा है। कहा जाता है कि रावण-वध के बाद राम पर ब्रह्म हत्या का पाप लगा था। ब्राह्मणों ने सुझाव दिया कि राम को काशी से शिवलिंग मंगवाकर रामेश्वरम में स्थापना करनी चाहिए।इसके लिए प्रभु राम ने हनुमान को नियुक्त किया। वायु के वेग से हनुमान काशी की तरफ उड़े। शिवलिंग की स्थापना के लिए  ब्राह्मणों ने मुहूर्त सुनिश्चित किया था। हनुमान को आने में विलंब हो रहा था। अतः सीताजी ने समुद्र-तट से रेत लेकर शिवलिंग का निर्माण किया और उसी की स्थापना की गई। बाद में हनुमान भी काशी से शिवलिंग लेकर पहुंचे। विलंब होने की ग्लानि से वे भर गए। उनका और ब्राह्मणों का मन तथा मान रखने के लिए काशी से लाए गए शिवलिंग की भी स्थापना की गई।विशालाक्षी जी के गर्भगृह के निकट 9 ज्योतिर्लिंग विभीषण द्वारा स्थापित बताए जाते हैं। मंदिर की परिक्रमा करते समय चौबीस कुंडों के जल से स्नान करना पुण्य माना जाता है। कुछ कुंड सूख भी गए हैं। इनके जल औषधीय गुणों से युक्त हैं। इन कुंडों में स्नान करते हुए हम आगे बढ़ रहे थे, किंतु इनकी गंदगी आस्था पर भारी पड़ने लगी। हरी काई और फंगस के बीच तैरती छोटी-छोटी मछलियां मंदिर-प्रशासन की लापरवाही बयां कर रही थीं। बहरहाल, दर्शन की प्रक्रिया पूरी कर हम धनुष्कोटि पहुंचे। धनुष्कोटि का अर्थ है – ‘धनुष की नोंक।’ विभीषण ने लंका की सुरक्षा के लिए राम से प्रार्थना की थी कि सेतु को तोड़ दिया जाय, ताकि भारत के बलशाली राजा लंका पर आक्रमण न कर सकें। विभीषण के अनुरोध पर प्रभु राम ने अपनी धनुष की नोंक से रामसेतु के कुछ भाग को ध्वस्त कर दिया। अतः इस स्थान का नाम ‘धनुष्कोटि’ पड़ा। इसकी चर्चा स्कंदपुराण में भी की गई है-
“दक्षिणाम्बुनिधौ पुण्ये रामसेतौ विमुक्ति दे।
धनुष्कोटि: इतिख्यात तीर्थम् अस्ति विमुक्तिदम्।।
अर्थात् दक्षिण समुद्र के तट पर जहां परम पवित्र रामसेतु है , वहीं धनुष्कोटि नाम से विख्यात एक मुक्तिदायक तीर्थ है।
रामेश्वरम स्थित आदिसेतु से रामसेतु का प्रारंभ माना जाता है। रामसेतु का उल्लेख बाल्मीकि रामायण में मिलता है-
“सनलेनकृतः सेतुः सागरे मकरालये।
सुशुभेसुभगः श्रीमान स्वातीपथ इवाम्बरे।।”
अर्थात् मगरमच्छों से भरे समुद्र में नल के द्वारा निर्मित वह सुंदर सेतु आकाश में छायापथ के समान सुशोभित था।
गोस्वामी तुलसीदास ने राम के मुख से सेतु के महात्म्य पर प्रकाश डाला है-
“मम कृत सेतु जो दरसन करिही।
सो बिनु श्रम भवसागर तरिही।।
इसी तरह रामसेतु की चर्चा स्कंदपुराण, विष्णुपुराण, अग्निपुराण, ब्रम्हपुराण, कूर्मपुराण, रघुवंशम् आदि ग्रन्थों में भी सविस्तार की गई है।सेतु-निर्माण में रामायणकालीन उन्नत तकनीकी के कई दृष्टांत  वाल्मीकि रामायण में मौजूद हैं-
‘पर्वतांश्च समुत्पाट्य यन्त्नैः परिवहन्ति च।’
अर्थात् कुछ वानर बड़े-बड़े पर्वतों को यंत्रों के द्वारा समुद्र-तट पर ले आए। इनके अलावा बलशाली वानर ताड़, नारियल, बकुल, आम, अशोक आदि के बड़े-बड़े पेड़ जड़ सहित उखाड़कर समुद्र में डालते रहे। उस समय के कुशल शिल्पी नल और नील की देख-रेख में कुछ वानर सौ योजन लम्बा सूत पकड़े थे –“सूत्राण्यन्ये प्रगृह्रन्ति हृयतं शतयोजनम्।” विश्वकर्मा के पुत्र नल-नील की शैल्पिक प्रवीणता का उल्लेख भी मिलता है। रामचरितमानस में लिखा गया है-
“नाथ नील नल कपि द्वउ भाई।
लरिकाई रिसि आसिष पाई।।
तिन्ह के परस किए गिरि भारे।
तरिहहिं जलधि प्रताप तुम्हारे।”(सुंदरकांड)
कहा जाता है कि सेतु-निर्माण में जिन शिलाओं का प्रयोग हुआ , उन पर राम-नाम लिखा जाता था। फलस्वरूप शिला पानी पर तैरने लगती थी। आपस में न जुड़ पाने से निर्माण कार्य में कठिनाई आ रही थी। ऐसे में हनुमान जी ने ‘रा’ और ‘म’ को अलग-लिखने का निर्देश जारी किया।इससे शिलाएं आपस में जुड़ने लगीं।लगभग 5 दिनों में बन जाने वाले रामसेतु की लम्बाई और चौड़ाई के बारे में बाल्मीकि रामायण में लिखा गया है –
“दशयोजनविस्तीर्णं शतयोजनमायतम्।(6/22/76)
अर्थात् नलसेतु की चौड़ाई दस योजन और लम्बाई सौ योजन थी।

सेतु पर विभिन्न मतावलम्बियों ने अपना-अपना अधिकार जताया है। इसाई इसे ‘एडम्स व्रिज’ कहते हैं तो मुसलमान ‘आदम पुल’। इन्साइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका में रामसेतु का नाम ‘एडम्स व्रिज’ भी बताया गया है। नासा ने इस पुल को ‘टोम्बोलो’ कहा है। कुछ वैज्ञानिक इसे प्राकृतिक व्रिज के रूप में स्वीकार करते हैं तो कुछ मानवनिर्मित बताते हैं। सबके अपने-अपने तर्क और पुख़्ता प्रमाण हैं। आधुनिक जांच से सिद्ध हो चुका है कि सेतु की चट्टानें कोरल और रीफ से बनीं हैं। ये हल्की और कम घनत्व वाली होती हैं। इन सबमें मुझे जो अधिक प्रभावित कर रहा था, वह समुद्र का नीला और शांत जल था। ऐसा प्रतीत होता है, मानो राम के कराल बाण आज भी सागर को डरा रहे हैं या यूँ कहें कि समुद्र राम के पौरुष पर सम्मोहित हो अपनी प्रभुता भूल गया हो – ‘देखि राम बल पौरुष भारी। हरषि पयोनिधि भयउ सुखारी।।’ चतुर्दिक राम के पुरुषार्थ को देखते-देखते जी नहीं भरा और दिन ढलने लगा।

थके-मांदे हम अपने कमरे पर आ गए। सुबह स्नान करके माताजी ने अपनी साड़ी कक्ष के बाहर रेलिंग पर सूखने के लिए फैला दी थी। वह नीचे गिर गई थी। वहीं एक स्थानीय बच्चा खेल रहा था। मदद के लिए मैंने उसे आवाज़ दी। वह मेरा आशय समझ गया। साड़ी के पास आकर उसने मुझे एक उंगली दिखाई। मैं चाहता था कि वह साड़ी उठाकर मेरे कमरे पर पहुंचा दे और एक रुपया ले जाए किंतु इसके लिए वह तैयार नहीं था। लगातार एक उंगली दिखाए जा रहा था। अंततः ऊपर से एक रुपया का सिक्का फेंकना पड़ा तब जाकर वह साड़ी लाया। सोचने लगा – तीर्थ और पर्यटन स्थलों की नैसर्गिक छटा आकर्षक तो होती है किंतु यहां का स्थानीय जीवन  दुष्कर होता है। एक आठ वर्षीय बालक की आंखों में पैसे की चमक देखकर वहां के लोकजीवन का अंदाज़ा खुद-बखुद लग गया। कमरे पर तरोताज़ा होकर हम रात्रि भोजन के लिए बाहर निकले। चार दिन से सांबर खाते-खाते मन भर गया था। भोजन में शुद्ध अरहर के दाल की दरकार थी। एक उत्तर भारतीय होटल पर यह कमी आंशिक रूप से पूरी हुई।

सुबह रामेश्वरम के अन्य तीर्थ स्थलों के दर्शनार्थ निकले। इनमें गंधमादन, सीताकुंड, कोदंड स्वामि मंदिर, विल्लीरणि तीर्थ आदि प्रमुख थे। सबका अपना-अपना पौराणिक एवं ऐतिहासिक महत्त्व था। तैरते हुए पत्थर हमने हनुमान कुंड में देखे जो सीताकुंड के बिलकुल पास था। एक हौज़ में रखे हुए 2-3 बड़े पत्थर लोहे की जाली से घेरे गए थे। इसके बावजूद भी लोग उंगलियों से धक्का देकर अपनी शंका का समाधान कर लेना चाहते थे। राम प्रताप कहें या प्रकृति का चमत्कार। कई स्थलों के दर्शन ने हमे हैरत में डाल दिया।

भारत के पूर्व राष्ट्रपति और संत वैज्ञानिक स्व. एपीजे अब्दुल कलाम की जन्मस्थली भी यहीं है। समयाभाव के कारण इस आधुनिक ऋषि के पवित्र तीर्थ की रज को माथे पर मलने का मौका नहीं मिला। यात्रा के तीसरे दिन हम रामेश्वरम से विदा हो रहे थे। यह वही समय था, जब सरकार रामसेतु को “सेतु समुद्रम परियोजना” की आड़ में तोड़ना चाहती थी। तर्क था कि सेतु के टूटने से रामेश्वरम देश का सबसे बड़ा शिपिंग हार्बर बनेगा। 13 छोटे एयरपोर्ट बनेंगे। तूतिकोरम हार्बर नोडल पोर्ट में तब्दील हो जाएगा। लगभग 400 किलोमीटर का चक्कर लगाने से जलपोत बच जाएंगे। “सेतु समुद्रम परियोजना सफल होने से प्रतिवर्ष 22 हजार करोड़ का तेल बचेगा और 2000 जलपोत इस रास्ते से गुज़रेंगे। इससे भारत को अच्छा-खासा आर्थिक लाभ होगा। दूसरी तरफ वैज्ञानिक और पर्यावरणविद् चिंतित थे। उनका तर्क था कि रामसेतु टूटने से केरल को सुनामी जैसी स्थिति का सामना करना पड़ेगा। इससे भयंकर तबाही मचेगी। जलीय जन्तुओं की कई दुर्लभ प्रजातियां नष्ट हो जाएंगी। सेतु के टूटने से भारत को थोरियम के अमूल्य भण्डार से हाथ धोना पड़ेगा। सीप, शंख तथा अन्य समुद्री उत्पादों से मिलने वाली 150 करोड़ की सालाना आय रुक जाएगी। जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के पूर्व निदेशक के. गोपालकृष्णन का मानना है ‘यह महज बालू का टीला नहीं है, जो समय के साथ यहां-वहां हो सकता है। हकीक़त में ऐसा है नहीं। उन्होंने प्राप्त सबूतों पर बल देते हुए बताया कि रामसेतु भूगर्भीय, आंतरिक संरचना और सामुद्रिक विभाजक का काम करता है।

विभिन्न भूगर्भीय और सामुद्रिक हलचलों को नियंत्रित करता है। राम सेतु को तोड़े जाने से समुद्र के भीतर भूस्खलन और भूकम्प जैसी घटनाएं हो सकती हैं। दुर्लभ जीव-जन्तुओं के आवास नष्ट हो जाएंगे। इससे मानसून चक्र भी प्रभावित होगा। हर साल बंगाल की खाड़ी में आने वाले खतरनाक तूफानों से राम सेतु ही बचाता है, जिस कारण मन्नार की खाड़ी में असंतुलन की स्थिति नहीं आ पाती। इसलिए हम लोग भी वैज्ञानिकों के अनुसंधान से इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि रामसेतु के कारण सुनामी को भी कमजोर होना पड़ा है।’

मेरा मानना है कि लाभ-हानि के गणित से मुक्त होकर रामसेतु की रक्षा होनी चाहिए। यह करोड़ों भारतीयों की आस्था से जुड़ा है। भारतीयों की वैचारिक परिपक्वता और गुरुता की पहचान मात्र ग्रन्थों के आधार पर ही नहीं, बल्कि ऐतिहासिक धरोहरों के रूप में भी होती है। ये वैश्विक महत्त्व के धरोहर आने वाली पीढ़ियों की वैचारिक ऊर्जा के अक्षय भंडार हैं।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.