अन्ना आन्दोलन, जनलोकपाल और सरकारी नीयत

AnandDwivedi@Navpravah.com

अन्ना आन्दोलन के सेनापति अब दिल्ली के मुख्यमंत्री हैं. राजनीति, प्राथमिकताओं पर गहरा असर छोड़ती है इसका उदाहरण दिल्ली का जनलोकपाल विधेयक है. मशहूर वकील शान्ति भूषण जिन्होंने प्रसिद्द ‘राजनारायण केस’ में कभी इंदिरा गांधी जैसी शख्सियत को भी कानूनी शिकंजे में दबोच लिया, आज केजरीवाल सरकार के जनलोकपाल पर संशय व्यक्त कर रहे हैं. मुहल्लों-नुक्कड़ों पर जनसंपर्क के माध्यम से लोकपाल पर आम राय जानने वाली “आप” अब “खाप” सा रवैया अख्तियार किये हुए है. कानून बना देना, और पिण्ड छुड़ाना ही यदि ध्येय था तो इसे हम सत्ता प्राप्ति का स्वार्थ ही कह सकते हैं.

प्रशांत भूषण जोकि स्वयं एक नामचीन वकील हैं, के अनुसार, “मैंने बिल देखा तो मेरी हवाइयाँ उड़ गईं. मुझे आशंका थी कि बिल ऐसा ही बनाया जाएगा. इससे तो लोकपाल सरकार के कब्ज़े में ही रहेगा. लोकपाल की नियुक्ति सरकार करेगी, क्योंकि चार में से दो लोग सरकार के रहेंगे और नियुक्ति में कुल तीन राजनेता शामिल होंगे. एसेम्बली में दो-तिहाई बहुमत से लोकपाल को हटाया जायेगा,जबकि जनलोकपाल में ये वादा था की सुप्रीम कोर्ट से गलत साबित होने पर ही लोकपाल को हटा सकते हैं. अरविन्द केजरीवाल सरकारी लोकपाल का सदा विरोध करते थे जबकि अब उन्होंने 2013 के लोकपाल मसौदे से भी बदतर बिल तैयार करवाया है.”

देखा जाए तो कथनी-करनी का अंतर स्पष्ट होना भी सुनिश्चित था, क्योंकि मौजूदा मसौदा दिल्ली सरकार ने तैयार किया है न कि अन्ना आन्दोलन की टीम ने. सरकार तटस्थ रहने का दिखावा तो कर सकती है लेकिन असल तस्वीर कुछ और ही दास्ताँ बयां करती है. एक युग था, जब जन-आन्दोलन का अर्थ समाज के हित में ही होता था, न कि राजनीतिक लालसाओं से प्रेरित होना. राजनीति अक्सर संबंधों को भी ताक़ पर रख देती है. केजरीवाल और भूषण परिवार का भाईचारा भी इसी राजनीति की बलि चढ़ गया. हालांकि दोनों पक्षों में वैचारिक मतभेद जगजाहिर हैं, फिर भी केजरीवाल सरकार की नीयत “दिल्ली जनलोकपाल विधेयक 2015” से साफ़ होती नजर आ रही है.

स्वयं अन्ना आन्दोलन का ख़ास हिस्सा रहे प्रशांत भूषण की यह बात दिल्ली की आम जनता को सोचने पर मजबूर भी कर सकती है कि, “मोदी की आलोचना इसलिए होती है कि आज तक लोकपाल नियुक्त नहीं किया गया. गुजरात में लोकायुक्त बनने नहीं दिया गया. अब केजरीवाल का जनलोकपाल जिसे धोखापाल-जोकपाल कहें, ऐसा ही है.” उन्होंने दिल्ली सरकार की नीयत पर भी प्रहार करते हुए कहा कि, “इनके 7 में से 2 मंत्री फर्जी अकादमिक डिग्रियों के और भ्रष्टाचार के मामलों में जेल भी गए. लेकिन कोई जवाबदेही नहीं चाहता है. दिल्ली और देश के लोगों के साथ इतना बड़ा धोखा कभी नहीं हुआ.”

व्यक्तिगत तौर पे यदि कहूं तो जेपी, जिनके नाम से ही सत्तारूढ़ों की आत्मा काँप उठती थी ही सभ्य–स्वच्छ जनांदोलन का अंत था. अन्ना हजारे में भी वो बात नहीं. भीड़ इकठ्ठा कर गाने बजाने को हम आन्दोलन नहीं मान सकते. व्यवस्था परिवर्तन के नाम पर उसी व्यवस्था का हिस्सा बन बैठना किसी भी रूप में आन्दोलन नहीं | पहले राजनीतिक मतभेद उतने व्यक्तिगत नहीं होते थे जितने की आज हैं. सुप्रसिद्ध पत्रकार और जेपी आन्दोलन में सक्रिय रूप से भाग लेने वाले राम बहादुर राय कहते हैं कि, “जयप्रकाश नारायण और इंदिरा गांधी का सम्बन्ध तो चाचा –भतीजी का था, लेकिन जब भ्रष्टाचार के मुद्दे को जेपी ने उठाना शुरू किया तो इंदिरा की एक प्रतिक्रिया से वो सम्बन्ध बिगड़ गया.”

दिल्ली की जनता ने अरविन्द केजरीवाल और उनकी फ़ौज को ये मौका दोबारा इसलिए नहीं दिया कि वो एक अहंकारी शासक की तरह बस विपश्यना में व्यस्त रहें ,बल्कि राजनीति में शामिल होने का ध्येय सदैव याद रखें. अपने साथियों की बात यदि वो आन्दोलन के उस दौर में सुनते थे तो आज क्या परहेज? नेताओं की कमी इस देश में न थी और न रहेगी क्योंकि हर घर, गली, मोहल्ला नेताओं से अटा पड़ा है. अहंकार ने घनानंद जैसे वृहद् राज्य के शासक को भी धूल चटा दिया था. यदि केजरीवाल सरकार एक सशक्त जनलोकपाल दिल्ली में पारित करने की नीयत रखते हैं तो उन्हें प्रशांत और शान्ति भूषन को भी इस मसौदे का हिस्सा बनाने से कोई परहेज़ नहीं होना चाहिए. अंततोगत्वा जनहितार्थ खाई गई लाठियों का कुछ परिणाम तो निकले

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