अमित द्विवेदी | Cinema Desk
नवप्रवाह रेटिंग : ⭐⭐
कुछ वेब सीरीज़, जो मील का पत्थर साबित हुईं, उन्होंने वेब प्लेटफॉर्म्स का साहित्य ही बदल दिया। असली वाली फ़ीलिंग का ऐसा चस्का लगा कि संवाद में २५ प्रतिशत गाली ठेलना चलन में आ गया। इण्डस्ट्री में दो तरह के लोग हैं, एक क्रिएटर और दूसरे वाले रीक्रिएटर। क्रिएटर, बड़ी बारीकी से काम करता है और रीक्रिएटर उसकी नक़ल।
अमेज़न प्राइम वीडियो की ‘मिर्जापुर’, ज़ी-5 की ‘रंगबाज़’ और नेटफ्लिक्स की ‘सेक्रेड गेम्स’ जैसी वेब सीरीज़ की सफलता की वजह से ऐसी तमाम फ़िल्में बनीं, जो औंधें मुँह तो गिरीं लेकिन अभद्र कांटेंट में औसतन इज़ाफ़ा ही हुआ।
“एमएक्स प्लेयर अपनी नई वेब सीरीज़ ‘रक्ताचंल’ लेकर आया है। फ़िल्म में उत्तर प्रदेश के अपराध की कहानी दर्शाई गई है, जो कि सच्ची घटना से प्रेरित है। ऋतम श्रीवास्तव ने इस वेब सीरीज़ में क्या किया है, आइए जानते हैं।”
कहानी-
कहानी शुरू होती है बनारस के आबकारी विभाग से जहाँ शराब के ठेकों का आवंटन चल रहा होता है। घूसखोर अफ़सर बाहुबली वसीम खान को पैसा लेकर ठेका दे देता है। जिसके बाद एक और दबंग विजय सिंह ताबड़तोड़ फायरिंग कर देता है और ठेका हथिया लेता है।
एक दौर था जब पूर्वांचल में माफ़ियाओं के मठाधीश गोरखपुर में रहा करते थे। मतलब पूर्वांचल के जो माफ़िया गोरखपुर में रहते थे, उनका भौकाल सातवें आसमान पर होता था। शराब, कोयले, खनन सहित तमाम ठेकेदारी में चौधरी यही बने रहे थे। यहाँ के बाहुबली सिस्टम को अपने सिस्टम से चलाते थे, मतलब कट्टे के दम पे। रक्तांचल की कहानी इसी धारा में बहती है।
गाज़ीपुर का एक बाहुबली वसीम ख़ान, जिसके पास पूर्वांचल में राजनीतिक समर्थन हासिल है। इसके दम पर वह ठेकदारी समेते कई धंधों पर अपना वर्चस्व जमाए हुए है। अब वसीम ख़ान के गुण्डे अपने वर्चस्व को बनाए रखने के लिए उन लोगों को मौत के घाट उतारने में नहीं कतराते, जो ठेकेदार के ख़िलाफ़ जाते हैं। एक ऐसे ही स्थानीय नेता को वसीम ख़ान के गुण्डे मौत की घाट उतार देते हैं, जो मज़दूरों के हित की बात करता है। इस स्थानीय मज़दूर नेता का बेटा बदले की आग में अपराध में दलदल में घुसता चला जाता है। जल्दी ही वो वसीम की आँख की किरकिरी बन जाता है। वर्चस्व की लड़ाई में लाशों की ढेर लगने लगती है। कौन किस पर भारी पड़ता है, इसके लिए आपको वेब सीरीज़ देखनी पड़ेगी।
अभिनय-
अब बात करते हैं अभिनय की। प्रमुख कलाकारों के ऊपर शायद पहले की वेब सीरीज़ के जैसा करने या उड़ाए बेहतर करने का दबाव रहा हो। कलाकार कैरेक्टर से अलग होते नज़र आते हैं, कई जगह नकलीपन झलकता है। ज़बरदस्ती की गाली से दिमाग़ झल्ला जाता है और गोली से सिर में पीड़ा होती है। इसके पहले पाताललोक में जनेऊ पहन कर सम्भोग करते हुए दिखाया गया, इसमें भगवाधारी को सम्भोग करते दिखाया गया है। मतलब सिनेमैटिक लिबर्टी लेने के नाम पर हिंदू धर्म से खुन्नस निकालने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ रहे फ़िल्म मेकर्स।
एक्टर क्रांति प्रकाश झा निराश करते हैं, जबकि छोटे किरदारों में नज़र आए विक्रम कोचर, प्रमोद पाठक और चित्तरंजन त्रिपाठी की एक्टिंग सुख देती है।
देखें या नहीं?
धीमी आवाज़ में अकेले देख लें, परिवार के सामने देखने पर घर से बाहर कर दिए जाने का ख़तरा है। हिन्दुवादी सोच है, तो कष्ट होगा। ये कहना ग़लत नहीं होगा कि अब फ़िल्म मेकर्स बिल्कुल शोध (रिसर्च) पर विश्वास नहीं करते। बात इतनी सी है कि कहानी वाले मास्टरजी ने मद्धम रोशनी में जो समझा दिया, वही बन गई।
देखें ट्रेलर-
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