डॉ० कुमार विमलेन्दु सिंह | Cinema Desk
जीवन, क्षिप्रता से भागते हुए, उन क्षणों का समूह है, जो कई अर्थों के साथ, अप्रत्याशित घटनाक्रमों से साक्षात्कार करता हुआ, एक निश्चित अंत की ओर बढ़ता है। इसमें बहुत सी घटनाएं घटती हैं और हमारी स्मृतियों का हिस्सा बन जाती हैं। कुछ घटनाएं और स्मृतियां ऐसी होती हैं, जिनका, हमारे अलावा, दूसरा हिस्सा, बस एक और व्यक्ति होता/होती है, और हम उन स्मृतियों को भुला देना याद रखते हैं, हमेशा।
जब जीवन में संबंध बनते चले जाते हैं, तब उन स्मृतियों को और अधिक छिपा कर रखना, वर्तमान छवि की सुरक्षा के लिए, अनिवार्य हो जाता है, अंतर्मन और बाह्य जगत के बीच विसंगतियां बढ़ जाती हैं और एक निरर्थक चेष्टा के लगातार करते रहने से मन बोझिल सा रहने लगता है। कुछ लोग इस बोझ को तात्कालिक ही सही, समूल भूल कर, नए जीवन में प्रवेश कर जाते हैं, और कुछ, “कमला” की तरह, जीवन का अंत कर लेते हैं, आत्महत्या कर लेते हैं। 1989 में आई फ़िल्म, “कमला की मौत” की पात्र है “कमला”।
कविता ठाकुर (कमला), फ़िल्म के पहले ही कुछ मिनटों में, अपने चॉल की बालकनी से कूद कर आत्महत्या कर लेती है और उसी चॉल में रहने वाले, पंकज कपूर (सुधाकर पटेल) की बेटियाँ रूपा गांगुली (गीता) और मृणाल कुलकर्णी (चारू), भी कविता ठाकुर (कमला) की लाश देखती हैं। दोनों घर जाकर अपने पिता पंकज कपूर (सुधाकर पटेल) और मां आशालता (निर्मला पटेल) से इस आत्महत्या के बारे में बताती हैं। दोनों बताती हैं कि, कविता ठाकुर (कमला), किसी भास्कर नाम के लड़के के साथ संबंधों की वजह से गर्भवती हो गई थी, इसलिए आत्महत्या की। पूरा पटेल परिवार इस घटना से आश्चर्यचकित तो होता है लेकिन संकीर्ण हो चुके मानव समाज के स्वार्थ के फलस्वरूप, स्वयं के साथ ऐसी दुर्घटना न होने की संतुष्टि, उस आश्चर्य को दुख में बदलने से रोक लेती है।
पूरा पटेल परिवार जब रात में सोने जाता है, तो उनका मन, उन स्मृतियों और कृत्यों का अवलोकन और उनपर चिंतन करने लगता है, जिन्हें भूलकर, उन्होंने जीवन को गतिशील रखा है।
रूपा गांगुली (गीता), अपने प्रेमी इरफ़ान ख़ान (अजीत) के साथ अपने संबंधों को लेकर आकलन करती है और उनकी छोटी बहन मृणाल कुलकर्णी (चारू), दीपक (आशुतोष गोवारिकर) के साथ अपने प्रेम प्रसंग पर विचार करती हैं। आशालता भी अपने अतीत में जाती हैं और उन्हें अपने शिक्षक (देवेन्द्र खंडेलवाल) के प्रति अपना एकतरफ़ा और ज़िद भरा प्रेम याद आता है, जिसके लिए, वे लज्जा की रेखा के बाहर चली गई थीं और जिसे सबसे छिपाकर, पंकज कपूर (सुधाकर पटेल) से विवाह कर, एक अच्छी गृहिणी बन कर जी रही थीं।
पंकज कपूर (सुधाकर पटेल) भी अपने पुराने प्रेम प्रसंगों के बारे में सोचते हैं। सुप्रिया पाठक (अंजू), जया माथुर (चमेली) और डिम्पल अरोड़ा (रश्मि) के साथ उन्हें अपने अंतरंग संबंध याद आते हैं और एक आश्वासन भी मिलता है कि उनकी पत्नी और बेटियाँ, उनका ये रूप नहीं जानतीं। यही आश्वासन, पटेल परिवार का प्रत्येक सदस्य, एक दूसरे से पाता है और एक-दूसरे पर विश्वास के लिए, मौन स्वीकृति देकर सब सो जाते हैं।
“यह फ़िल्म, स्वराज बंधोपाध्याय की कहानी पर आधारित है और इसका निर्माण, NFDC ने किया। निर्देशन और पटकथा का काम, महान बासु चटर्जी ने किया। सिनेमैटोग्राफ़ी अजय प्रभाकर और संगीत सलिल चौधरी का था। संपादन का काम, कमल सहगल का था।”
फ़िल्म के अंतिम दृश्य में सब को शांति से सोते हुए दिखाया गया है। चॉल को भी शांत दिखाया गया है, जो रेखांकित करता है इस तथ्य को, कि कोलाहल को दबाकर या छिपाकर ही संयमहीन जीवन में शांति बनी रह सकती है। यह भी प्रमाणित करती है यह फ़िल्म कि, “सौन्दर्य” की वास्तविक परिभाषा, “विसंगतियों को छिपाकर, स्वीकृति के अनुरूप प्रस्तुति ही है।”
(लेखक जाने-माने साहित्यकार, फ़िल्म समालोचक, स्तंभकार, व शिक्षाविद हैं.)
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