डॉ० कुमार विमलेन्दु सिंह | Cinema Desk
“बड़े दोगले होते हैं आप मार्क्सिस्ट भी, मिडिल क्लास की बात भी करते हैं और उनके टेस्ट (taste) की खिल्ली भी उड़ाते हैं।”
ये संवाद, आकाश खुराना (आगाशे) का है, 1984 में आई फ़िल्म “पार्टी” में, जिसे NFDC ने प्रोड्यूस किया था। ये बस एक डायलॉग नहीं था, ये एक मोड़ था, जहां से फ़िल्म में विचारों को एक निश्चित दिशा में गति सी प्राप्त होती है। ये डायलॉग फ़िल्म के 24वें मिनट में आता है और इसके पहले बहुत सारे रंग दर्शकों के सामने प्रस्तुत किए जा चुके होते हैं।
महेश एलकुंचवर के इसी नाम (पार्टी) के नाटक पर ये फ़िल्म आधारित है। नाटक 1976 में तैयार हुआ था और फ़िल्म बनी 1984 में। वसंत देव और गोविंद निहलानी ने महेश एलकुंचवर के साथ मिलकर ही पूरी फ़िल्म लिखी है। फ़िल्म शुरू होती है नसीरुद्दीन शाह की बैकग्राउंड से आती आवाज़ में एक कविता से, जिसमें वे बताते हैं कि “जबड़े भिंचे हैं” और “सिर क्रेटर की तरह फट” कर अंदर का लावा न निकाल दे, मतलब व्यवस्था के प्रति घनघोर निराशा और क्रोध है। नसीरुद्दीन शाह (अमृत) बहुत देर तक कैमरे के फ़्रेम से बाहर रहते हैं लेकिन लगभग हर किरदार उनके बारे में बात करता रहता है।
“कला की स्थिति और कलाकार की स्थिति में जो अद्भुत और आश्चर्यजनक अंतर है, शब्दों के आधिक्य से भरे जीवन में प्रेम और भावों के स्थान पर जो रिक्तियां हैं, उसे बेहद अच्छे ढंग से दिखाया गया है।”
मनोहर सिंह (दिवाकर बरवे) एक बहुत बड़े लेखक होते हैं और उनके सम्मान में विजया मेहता (दम्यंती राणे) एक पार्टी देती हैं और इस पार्टी में कला और समाज के प्रति अलग-अलग विचार लिए, कई किरदार आते हैं और आपस में इसी विषय पर बातें भी करते हैं। हर कलाकार पहले मनुष्य होता है और हर मनुष्य, एक प्रकार का पशु। इस पाश्विक प्रवृत्ति से कई बार आवरण हटता है इस फ़िल्म में। कई पात्र एक दूसरे के लिए वासना भरी भावनाएं रखते हैं, लेकिन पार्टी में, एक आवरण के अंदर रहते हुए, संभल कर व्यवहार करते हैं।
गुलन कृपानी (वृन्दा) एक पत्रकार होती हैं, जिनके बाल अजीब से स्टाइल में छोटे कटे हैं और ये लगातार सिगरेट पीती रहती हैं, और भी कई महिला पात्र शराब पीती हुई, चेहरे पर सशक्त महिला का भाव रखती हैं। वृन्दा, हर बात में असहमत होने को अपना अधिकार और अपनी बुद्धिमत्ता समझती हैं, ये बिल्कुल आज के पत्रकारों के छवि की प्रस्तुति है जिनके पास सिर्फ़ सवाल है जवाब नहीं, समस्या है, समाधान नहीं।
नसीरुद्दीन शाह (अमृत), जो वामपंथ का झंडा बुलंद करते हुए किरदार के रूप में गढ़े गए हैं, सभी अन्य पात्रों की बातचीत में, उन्हें मार देती है पुलिस। यहाँ, बहुत सुन्दर तरीके से ये प्रमाणित करने का प्रयास किया गया है और जो सच भी है कि वामपंथी क्रांति करते नहीं, हर क्रांति के घातक परिणामों से आहत नायकों से स्वयं को जोड़कर, साहित्य, कला और अन्य माध्यमों के सहारे, सहानुभूति के पात्र बने रहते हैं। इनके लिए, “सहानुभूति” उतना महत्वपूर्ण नहीं, “बने रहना” ज़रूरी है।
रोहिणी हतंगडी (मोहिनी बरवे), बार बार तथाकथित स्वतंत्र महिलाओं के अंदर की कुंठा, जो कि किसी भी संबंध से अलंकृत न होने के कारण होता है, उसका बेहतरीन चित्रण करती नज़र आई हैं। शफ़ी इनामदार (रवीन्द्र) एक मंच अभिनेता होते हैं और उनके किरदार के माध्यम से एक अभिनेता जो कि समाज के नियमों से बंधा एक नागरिक भी होता है, उसके अंतर्द्वंद को दिखाया गया है। ओम पुरी (अविनाश) एक पत्रकार और के०के० रैना एक उभरते हुए कवि के रूप में दिखे हैं, जिन्हें प्रतिभा से ज़्यादा, स्थापित महारथियों के प्रशस्ति की आवश्यकता होती है।
ध्यान से देखने पर, अलग अलग पात्रों में, अलग अलग रंग दिखते हैं और संवाद में प्रयोग की गई कविताएं, अत्यंत प्रशंसनीय हैं। रेणु सलूजा के बेहतरीन संपादन और सभी अदाकारों के शानदार अभिनय से, “पार्टी”, विचारों के एक सुन्दर और रंगीन कोलाज सी फ़िल्म बन पड़ी है।
(लेखक जाने-माने साहित्यकार, फ़िल्म समालोचक, स्तंभकार, व शिक्षाविद हैं.)
देखें फ़िल्म–