“मोहन जोशी हाज़िर हो! (1984)” -न्याय प्रक्रिया पर प्रश्नचिन्ह अंकित करती एक फ़िल्म

डॉ० कुमार विमलेन्दु सिंह | Cinema Desk

किसी भी संभ्रांत समाज में रहने वाले नागरिक को अपने कर्तव्यों और अधिकारों का बोध होता है और जहां भी अधिकारों का बोध कर्तव्यों से ज़्यादा होने लगता है , वहाँ सहयोग की कमी होने लगती है और घर्षण बढ़ने लगता है। ऐसे में जिन दो पक्षों में घर्षण हो रहा होता है, उसमे से सबल पक्ष मानवता की प्रत्याशित और अपेक्षित धारणाओं के बिलकुल परे जाकर शक्ति प्रदर्शन करने लगता है और निर्बल पक्ष अगर कायर नहीं होता तो एक अल्पकालीन संघर्ष करता है और अगर भयभीत होता है तो तत्काल पराजय स्वीकार कर लेता है और अपना अधिकार खो देता है।

‘दीना पाठक’ व  ‘भीष्म साहनी’

अभिव्यक्ति की जितनी भी कलात्मक विधाएं हैं, उनमे साहित्य ने सबसे प्रबल तरीके से इन विसंगतियों को प्रदर्शित किया है।

“जब से सिनेमा का अत्यधिक प्रभाव लोगों पर पड़ने लगा, इसके माध्यम से भी ऐसी प्रस्तुतियां की गयीं। प्रचलित सिनेमा में पोएटिक जस्टिस को आधार बनाया गया और 70 के दशक में जब यथार्थ को आधार बनाकर पैरलेल सिनेमा ने स्थान बनाना शुरू किया, तब से सामाजिक जीवन से जुडी ऐसी फिल्में खूब बनायीं गयीं, जिनमें सबल और निर्बल का संघर्ष था।  1984 में आयी फिल्म “मोहन जोशी हाज़िर हो!” भी ऐसी ही एक फ़िल्म थी। “

सईद अख्तर मिर्ज़ा ने यह फिल्म बनाई थी और इसमें एक आम आदमी के जीवन को दिखाया गया है जो मुंबई की एक चॉल में रहता है। भीष्म साहनी ( मोहन जोशी ), अपनी पत्नी (दीना पाठक), बेटे और बहु (मोहन गोखले और दीप्ति नवल) के साथ रहते हैं और हमेशा उस चॉल की हालत खराब ही रहती है, उसे मरम्मत की बहुत ज़रुरत होती है लेकिन चॉल का मालिक अमजद खान (कुंदन कपाड़िया ), मरम्मत करवाना नहीं चाहता।  वो चाहता था कि भले ही चॉल गिर जाए ताकि वहां एक बड़ी बिल्डिंग बनाई जा सके।

नसीरुद्दीन शाह

भीष्म साहनी (मोहन जोशी) पहले तो  अमजद खान (कुंदन कपाड़िया ) से शिकायत कर के ये मुद्दा सुलझाना चाहते हैं, लेकिन जब ऐसा नहीं हो पाता तो वे अदालत में जाते है।  वहाँ इनकी मुलाक़ात नसीरुद्दीन शाह ( अधिवक्ता मलकानी ) और सतीश शाह (अधिवक्ता गोखले) से होती है।  ये दोनों मिलकर भीष्म साहनी (मोहन जोशी) को बहुत दिन तक ठगते हैं और ये अदालत की धीमी प्रक्रिया के कारण संभव हो पाता है।  पंकज कपूर , अमजद खान (कुंदन कपाड़िया ) के बनाई जा रही नयी परियोजनाओं के लिए लोगों को बहलाने का काम करते हैं।  जब अदालत में बहुत देर होती है और आशाएं ख़त्म होने लगती हैं तब एक दिन बिल्डिंग का निरीक्षण करने कुछ लोग आते हैं और ये साबित करने और दिखाने में कि बिल्डिंग जर्जर है, दुर्घटना घट जाती है और एक हिस्सा मकान का गिर जाता है, जिसके नीचे दब कर भीष्म साहनी ( मोहन जोशी ) मर जाते हैं।  इन सब के बीच , “जस्टिस डिलेड ईज़ जस्टिस डिनाइड ” और “बेटर लेट दैन नेवर ” का झगड़ा चलता रहता है।

अमज़द खान

फिल्म का निर्देशन, सईद अख्तर मिर्ज़ा ने किया था और इसकी कहानी भी लिखी थी।  पटकथा युसूफ मेहता ने लिखा था और संवाद सुधीर मिश्रा ने। सिनेमैटोग्राफ़ी वीरेन्द्र सैनी की थी और संपादन रेणु सलूजा का था। फ़िल्म के गानों में यह दिखाने की चेष्टा की गई है कि जिस मुंबई को सपनों का शहर कहा जाता है, उसकी असलियत कुछ और ही है। “आमची मुंबई है तुमची भी”, इस गाने से ही फ़िल्म शुरू भी होती है। फ़िल्म का संगीत, वनराज भाटिया ने दिया। सभी कलाकारों ने अद्भुत अभिनय किया है और रोहिणी हतंगडी, अच्युत पोटदार जैसे कलाकारों ने, इस फ़िल्म को और सशक्त बनाया है।

दीपक काज़िर केजरीवाल

न्यायपालिका और धनवान के बीच के रहस्यमयी एवं आश्चर्यजनक अन्योन्याश्रय संबंध से एक सजग और साधारण व्यक्ति या नागरिक के मन और जीवन में कितना खीझ भर सकता है, इस यथार्थ का मार्मिक चित्रण करती है ये फ़िल्म।

(लेखक जाने-माने साहित्यकार, फ़िल्म समालोचक, स्तंभकार, व शिक्षाविद हैं.)

देखें फ़िल्म-

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