डॉ० कुमार विमलेन्दु सिंह | Cinema Desk
जिजीविषा मनुष्य की सबसे प्रबल भावना है और बाकी सारी भावनाएं, इसी को और प्रबल या क्षीण बनाती हैं। सारे संबंधों के बनने के पहले, निभाए जाने के दौरान और टूटने या समाप्त होने तक , बस यही जिजीविषा बची रहती है। अगर ध्यानपूर्वक अवलोकन किया जाए तो हम पाते हैं कि अब तक जितनी भी कथाएं मानव सभ्यता ने अपने सचेत होने के बाद बनायी या बतायी हैं, उन सब में जीते रहने की भावना, न जीने की भावना और अच्छे से जीने की भावना, बस इन्ही को प्रदर्शित किया गया है।
महान ऑस्ट्रियन मनोवैज्ञानिक सिग्मंड फ्रायड ने अपनी व्याख्याओं में मनुष्य के मस्तिष्क में “इरोस” और “थानाटोस” का कई बार ज़िक्र किया है। “इरोस” (सुखपूर्वक जीते रहने की भावना), “थानाटोस” (मर जाने की इच्छा) भी इसी जी सकने या न जी सकने से ही सम्बंधित है। सम्मान और अपमान के परे भी जीजिविषा बनी रहती है और ये होना ही मनुष्य होने का प्रतीक भी है। एक कहानी के माध्यम से यही दिखाने का प्रयास किया गया 1997 में आयी फिल्म, “रुई का बोझ ” में।
ये फिल्म NFDC ने प्रोड्यूस की थी और इसमें पंकज कपूर (किसुन साह ) अपने बुढ़ापे में अपना सारा धन अपने परिवार के सदस्यों में बाँट कर अपने सबसे छोटे बेटे रघुबीर यादव (राम शरण ) और बहु (रीमा लागू) के साथ रहने का फैसला करते हैं।
इनके घर में सब कुछ सामान्य नहीं रहता है और जिस सम्मान की अपेक्षा पंकज कपूर (किसुन साह ) अपने बच्चों से रखते हैं, वो उन्हें नहीं मिलता, या ये भी कहा जा सकता है कि वे मिल रहे सम्मान को समझ नहीं पाते, क्योंकि उसका स्वरुप उनके प्रत्याशा के अनुरूप नहीं होता। वे मुखर हो कर अपनी अपेक्षाएं बताते है अपने बेटे और बहु से लेकिन उनके सामर्थ्य के परे होती हैं ये अपेक्षाएं , अतः संबंधों में घर्षण शुरू होता है।
“कुछ संवाद बहुत ही सामयिक और सच हैं वर्तमान परिप्रेक्ष्य में। एक संवाद में पंकज कपूर (किसुन साह ) कहते हैं , “बाप वो संपत्ति होता है जिसे बेटा अपने भाइयों को देने के लिए हमेशा तैयार रहता है।”
एक और संवाद में पंकज कपूर (किसुन साह ) का पोता उनसे कहता है कि “आप 10 -15 पैसे नहीं दे सकते तो आप दादा कैसे हुए”। एक अवसर पर बात इतनी बढ़ जाती है कि पंकज कपूर (किसुन साह ) और बेटे रघुबीर यादव (राम शरण ) में हाथा पाई तक हो जाती है और पंकज कपूर (किसुन साह ) , कभी न लौटने के लिए घर छोड़ कर निकल जाते हैं, लेकिन यात्रा के दौरान उन्हें आभास होता है की उनके बच्चों ने उनका अपमान तो किया है पर बहुत से अवसरों पर उनका ध्यान भी रखा है और उनके प्रति मोह उमड़ पड़ता है । जिजीविषा को बस एक तृण , एक बूँद की आवश्यकता होती है जीवन का वन या महासागर बनाने के लिए, वापस मुड़ जाने के लिए जीवन की तरफ़।
ये फ़िल्म, चन्द्रकिशोर जायसवाल के उपन्यास, “गवाह गैरहाज़िर”, पर आधारित है और इसका निर्देशन, सुभाष अग्रवाल ने किया। सिनेमैटोग्राफ़ी महेश चंद्रा की थी और संगीत के० नारायण का था।
फ़िल्म के लगभग अंतिम भाग में पंकज कपूर का मोनोलॉग, “मेरा मोहभंग हो गया है”, मानव जीवन की सबसे भ्रामक उक्तियों में से एक है, क्योंकि मोहभंग की अवस्था प्राप्त करना, मानवीय संबंधों से भी, एक मोह ही है। भारतीय सिनेमा के अभूतपूर्व फ़िल्मों में से एक है, “रूई का बोझ”, जिसमें मोह, अपेक्षा और जीवन का त्रिकोण है।
(लेखक जाने-माने साहित्यकार, फ़िल्म समालोचक, स्तंभकार, व शिक्षाविद हैं.)
देखें फ़िल्म-