बड़े चेहरों नहीं, बड़े मुद्दों पर लड़ा जा रहा महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव?

नृपेन्द्र कुमार मौर्य| navpravah.com 

नई दिल्ली| महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव 2024 में भाजपा और कांग्रेस ने अपनी चुनावी रणनीति में बड़े बदलाव किए हैं। पार्टियों ने पारंपरिक तरीकों से हटकर माइक्रो मैनेजमेंट पर ध्यान दिया है, जिसमें स्थानीय नेताओं और मुद्दों को अहमियत दी जा रही है। इस बार चुनाव में राष्ट्रीय नेताओं की भूमिका कम और स्थानीय नेताओं की भूमिका अधिक नजर आ रही है। यह रणनीति हरियाणा में भी कारगर साबित हुई थी, जहां बीजेपी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह को सीमित तौर पर प्रचार में शामिल किया।

महाराष्ट्र में भी यही फॉर्मूला अपनाते हुए पीएम मोदी केवल 4 दिनों में 11 रैलियां करेंगे, जबकि डिप्टी सीएम देवेंद्र फडणवीस को लगभग 100 रैलियों की जिम्मेदारी सौंपी गई है। दूसरी ओर, कांग्रेस भी लोकल मुद्दों पर फोकस कर रही है, जिसके कारण राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के दौरे भी सीमित हैं।

चुनाव में वोटरों का रुख तय करने वाले प्रमुख मुद्दों में मराठा आरक्षण, लडकी बहिन योजना, शरद पवार और अजित पवार के बीच का संघर्ष, और उद्धव ठाकरे और एकनाथ शिंदे के बीच की खींचतान प्रमुख हैं। इन मुद्दों पर नज़र डालते हैं:

1. मराठा आरक्षण: किस पार्टी को मिलेगी बढ़त?

मराठा आरक्षण एक महत्वपूर्ण मुद्दा है जिसने राज्य में चुनावी माहौल को गरमा दिया है। पिछले साल मराठा कोटा कार्यकर्ता मनोज जरांगे पाटिल ने आरक्षण की मांग को लेकर आंदोलन शुरू किया था, जिसके बाद से मराठा समुदाय के वोट अहम हो गए हैं। देवेंद्र फडणवीस की सरकार ने पहले मराठा आरक्षण का प्रस्ताव दिया था, लेकिन अदालत की वजह से यह लागू नहीं हो सका। जरांगे पाटिल ने सरकार के प्रति समर्थन और विरोध दोनों के संकेत दिए हैं, जिससे वे शिंदे सरकार के साथ होते हुए भी एमवीए को समर्थन देने का इशारा कर सकते हैं। यदि उन्होंने स्वतंत्र मराठा उम्मीदवारों का समर्थन किया होता, तो इससे महायुति को लाभ होता। एमवीए के गठबंधन द्वारा मराठा-मुस्लिम-दलित धुरी का निर्माण कांग्रेस और एनसीपी के लिए एक पुरानी जीत की धुरी रही है, पर इस बार स्थिति जटिल है क्योंकि जरांगे पाटिल का रुख स्पष्ट नहीं है।

2. लडकी बहिन योजना:

महिलाओं के मुद्दों को भुनाने में महायुति की लडकी बहिन योजना का महत्वपूर्ण योगदान है। इस योजना के कारण महिलाएं जाति और धार्मिक विभाजन से ऊपर उठकर वोट कर सकती हैं। पत्रकार नीरजा चौधरी की रिपोर्ट के अनुसार, महाराष्ट्र के छत्रपति संभाजीनगर में दलित, नवबौद्ध और मातंग समुदाय की महिलाएं महायुति को समर्थन दे रही हैं। ये महिलाएं कहती हैं कि उन्होंने पिछली बार कांग्रेस को वोट दिया था, लेकिन इस बार एकनाथ शिंदे के प्रयासों को देखते हुए उन्हें वोट देंगी। चौधरी की रिपोर्ट बताती है कि इस समूह की एकमात्र मराठा महिला को जरांगे पाटिल का संदेश भी प्रभावित कर रहा है, लेकिन उन्होंने शिंदे की योजना से मिले लाभ के कारण अपने मत का समर्थन महायुति को देने की ठानी है।

3. शरद पवार बनाम अजित पवार: एनसीपी का आंतरिक संघर्ष

महाराष्ट्र में एनसीपी का आंतरिक संघर्ष भी इस चुनाव में महत्वपूर्ण है। अजित पवार चाहते हैं कि पार्टी की प्रचार सीटों पर बीजेपी के बड़े नेताओं का दखल न हो ताकि उनके कोर वोटर मुस्लिम नाराज न हों। वहीं, शरद पवार ने भी भावनात्मक कार्ड खेलते हुए अपने समर्थकों से सहानुभूति बटोरी है। उनका दावा है कि यह उनके जीवन की आखिरी चुनावी लड़ाई है। मुस्लिम वोटों के लिए एनसीपी की स्थिति मजबूत मानी जा रही है, क्योंकि शरद पवार की बयानबाजी ने मुस्लिम समुदाय को प्रभावित किया है। एक तरफ अजित पवार मुस्लिम वोटरों को खोना नहीं चाहते, तो दूसरी ओर शरद पवार अपनी राजनीति में भावनात्मक और समुदायिक अपील को बढ़ावा दे रहे हैं।

4. उद्धव ठाकरे बनाम एकनाथ शिंदे: मराठा स्वाभिमान का मुद्दा

महाराष्ट्र की राजनीति में शिवसेना का नेतृत्व करने वाले एकनाथ शिंदे मराठा नेता के रूप में उभर रहे हैं। मुख्यमंत्री बनने के बाद से शिंदे ने मराठा समुदाय के मुद्दों पर ध्यान दिया है, खासकर आरक्षण और मराठा स्वाभिमान के मुद्दे पर। शिंदे को ‘माझी लडकी बहिन’ योजना के कारण महिलाओं का भी समर्थन मिल रहा है। वहीं, उद्धव ठाकरे अभी भी असली शिवसेना के रूप में पहचान बनाए रखने की कोशिश में लगे हैं। लोकसभा चुनावों के दौरान उनके प्रति जितनी सद्भावना थी, उतनी अब नहीं रही।

महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में इस बार राष्ट्रीय नेताओं के बजाय स्थानीय नेताओं और मुद्दों पर अधिक ध्यान दिया जा रहा है। जहां भाजपा ने मराठा आरक्षण और महिला समर्थन के मुद्दों पर अपनी पकड़ बनाई है, वहीं कांग्रेस और एमवीए ने मराठा-मुस्लिम-दलित गठजोड़ को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया है।

इस प्रकार, महाराष्ट्र की इस चुनावी जंग में मुद्दों का झुकाव राष्ट्रीय मुद्दों से हटकर स्थानीय समस्याओं और जनभावनाओं की ओर है।

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