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Friday, May 10, 2024
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विश्व समुदाय के समक्ष एक मिसाल है भारतीय नेविगेशन प्रणाली

लेखक: डॉ. धीरेन्द्रनाथ  मिश्र 

Dhirendranath Mishra

नेविगेशन प्रणाली उस प्रणाली को कहते हैं जिसके द्वारा किसी पोत, वाहन आदि के बीच ध्वनियों या संकेतों के माध्यम से संचार होता है। नेविगेशन प्रणाली कार्यो के आधार पर विभिन्न प्रकार की होती है। उपग्रह नेविगेशन सिस्टम कृत्रिम उपग्रहो की एक ऐसी प्रणाली होती है जो इलेक्ट्रानिक रिसीवर द्वारा वस्तु की स्थिति का पता उसकी अक्षांशीय और देशान्तरीय स्थितियों के आधार पर ज्ञात की जाती है। ये इलेक्ट्रानिक रिसीवर वर्तमान स्थानीय समय की गणना कर देते हैं। जबकि ऑटोमाटिव नेविगेशन सिस्टम का प्रयोग गाडि़यों में किया जाता है। सर्जिकल नेविगेशन का प्रयोग सी टी स्कैन या एम आर आई स्कैन में किया जाता है। वर्तमान में नेविगेशन का प्रयोग आर्टिफिशियल इन्टीलिजेन्स के क्षेत्र में रोबोटस की मैपिंग में भी किया जाने लगा है। नौसेना के जहाजों, पनडुब्बियों आदि का पता लगाने के लिए मैरिन नेविगेशन सिस्टम का प्रयोग किया जाता है।

विभिन्न देशों ने अपनी अपनी नेविगेशन प्रणाली का विकास किया है। कुछ मुख्य देशों द्वारा विकसित प्रणाली निम्न प्रकार है- ग्लोबल पोजीशनिंग सिस्टम – यह संयुक्त राज्य अमेरिका के रक्षा विभाग द्वारा विकसित वैश्विक नौवहन उपग्रह प्रणाली है। आरम्भ में इसका प्रयोग सेना के कार्यो में ही होता था, परन्तु वर्तमान में नागरिक कार्यों में भी ग्लोबल पोजीशनिंग सिस्टम का प्रयोग किया जाने लगाहै। अमेरिका में इसकी शुरुआत 1960 से मानी जाती है। ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टत तीन क्षेत्रों से मिलकर बनता है- स्पेस सेगमेंट, कंट्रोल सेगमेंट और यूजर सेगमेंट। इस प्रणाली के द्वारा गति, देरी, टैªक या किसी स्थान के सूर्योदय- सूर्यास्त आदि अन्य भौगोलिक स्थितियों तथा आपदाओं का पता लगाया जा सकता है।

गैलीलियो- 28 दिसम्बर 2005 को यूरोपीय कजाकिस्तान के बैकानूर प्रक्षेपण केन्द्र से उपग्रह निर्देशन प्रणाली उपग्रह का सफल प्रक्षेपण कर उपग्रह नेविगेशन के क्षेत्र में नये युग का सूत्रपात किया। इस परीक्षण का नाम जियोव-ए रखा गया। यह एकमात्र प्रणाली है जो गाड़ी चालक को रास्ता दिखने से लेकर तलाशी और राहत सहायता के लिए इस्तेमाल की जाती है। 4.27 अरब डॉलर की गैलीलियो परियोजना के तहत अेतरिक्ष में 30 उपग्रहों को स्थापित किसे जाने के बाद नेविगेशन के मामले में यूरोप आत्मनिर्भर हो जाएगा जो अमेरिकी सेना द्वारा संचालित इस प्रणाली का वाणिज्यिक विकल्प बनकर सामने आएगा।

ग्लोनैस- रुस के ग्लोनैस सैटेलाइट सिस्टम के सिग्नल लेने के लिए भारत ने सहयोग समझौता किया है उसका भारत के सैनिक इस्तेमाल कर सकते हैं, जबकि अमेरिकी जीपीएस से यह सुविधा उपलब्ध नही थी। ग्लोबल नेविगेशन सैटेलाइट सिस्टम के पूरी तरह सक्रिय हो जाने के बाद भारतीय लड़ाकू विमानों, युद्धपोतों और अन्य जमीनी हथिसार जैसे टैंकरों को पोर्टेर्बल हैंडसेट से कोई सैनिक एक मीटर के अनुमान से सीमा पार दुश्मन की स्थिति का पता लगा सकता है।

कम्पास – यह चीन द्वारा निर्मित नेविगेशन प्रणाली है। यह ठमपक्वन की अगली जेन्रेशन है। इसमें वर्ष 2020 तक 35 उपग्रह शामिल किये जाने की सम्भावना है।

भारतीय क्षेत्रीय नेविगेशन उपग्रह प्रणाली- यह भारत द्वारा विकसित नेविगेशन प्रणाली है। यह एक स्वायत्तशासी क्षेत्रीय प्रणाली तंत्र है जिसका निर्माण भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान द्वारा किया गया है। यह पूर्णतया भारत सरकार के नियन्त्रण वाली प्रणाली है। वर्ष 1999 में कारगिल में पाकिस्तानी घुसपैठ और युद्ध के समय भारत द्वारा अमेंरिका से ग्लोबल पोजिशनिंग प्रणाली के माध्यम से त्वरित सूचना प्रदान करने की मॉंग की गयी, परन्तु युद्ध की संकट कालीन स्थितियों में अमेरिका द्वारा नकारात्मक सहयोग प्राप्त हुआ। इस घटना से प्ररित होकर भारत नेविगेशन क्षेत्र में अपनी प्रणाली विकसित करने के लिए संकल्पबद्ध हुआ। भारत ने नेविगेशन के क्षेत्र में प्रयास करने तभी शुरु कर दिये थे परन्तु उसे वास्तविक सफलता 2006 में मिली।

इसरो तथा भारतीय विमानपत्तन द्वारा संयुक्त रुप से विकास किए जाने वाले स्वदेशी उपग्रह आधारित जीपीएस आगमैटेशन तंत्र को गगन नाम दिया गया है। इस परियोजना को मई 2006 में स्वीकृत किया गया था जिस पर लगभग 16000 करोड़ रुपये खर्च होने का अनुमान है। इसके विकास का मूल आधार भारत की वैश्विक उपग्रह संचालन प्रणालियों पर से निर्भरता कम करना है। इसके विकास से भारत की उपग्रह आधारित संचार व नेविगेशन प्रणाली मजबूत होगी।

भुवन भारतीय क्षेत्र के आईआरएस चित्रों को महसूस करने उनकी खोज करने तथा उन्हें देखने का आसान तरीका प्रदान करता है। सह उपग्रह सफलतापूर्वक नीति निर्माण, प्राकृतिक संसाधन प्रबन्धन आपदा सहायता तथा समाज के विभिन्न वर्गों में जीवन की गुणवत्ता में सुधार लाने जैसे प्रमुख क्षेत्रों में अपनी पहचान बना चुका है।

IRNSS-1 A भारत का पहला नेविगेशनल उपग्रह था। 125 करोड़ लागत वाले उपग्रह को इसरो सेटैलाइट सेंटर, बंगलुरु से 1 जुलाई 2013 को प्रक्षेपित किया गया। इस उपग्रह को पीएसएलवी- सी 22 के द्वारा जियो सिन्क्रोनस ऑर्बिट में स्थापित किया गया-IRNSS-1 उपग्रह के सफल प्रक्षेपण के उपरान्त 4 अप्रैल 2014 को पीएसएलवी-सी 24 द्वारा IRNSS-1 B को उसकी कक्षा में स्थापित कर दिया गया। IRNSS योजना के तीसरे उपग्रह IRNSS-1 C का प्रक्षेपण 16 अक्टुबर 2014 को किया गया।

विकास की ओर, एक कदम और…

भारतीय नियन्त्रण और स्वामित्व वाली नौवहन उपग्रह प्रणाली के बारे में जब पूरी दुनिया को चला तब इसने तकनीक में बेहतर विश्व के बड़े देशों को आश्चर्यचकित कर दिया। भारतीय वैज्ञानिक अपनी सफलता की कहानी लिखने के लिए तत्पर हैं जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण हाल ही में देखने को मिला, जब भारत द्वारा नेविगेशन उपग्रह IRNSS-1D का प्रक्षेपण ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान पीएसएलवी-27 के द्वारा श्रीहरिकोटा सतीश धवन अंतरिक्ष केन्द्र से 28 मार्च 2015 को किया गया।

भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान ने IRNSS के गठन के लिए नौ उपग्रहों की योजना बनायी थी। पूरी प्रणाली में सात उपग्रह कक्षा में और दो भूतल पर स्थापित किये जाएॅगें। कक्षा में स्थापित सात उपग्रहों में से IRNSS के तीन उपग्रह जीयोस्टेशनरी ऑर्बिट के लिए और चार उपग्रह जीयो सिनक्रोनस ऑर्बिट के लिए हैं। 1425 किलोग्राम भार वाला IRNSS-1 D के नेविगेशन, टैकिंग और मानचित्र सेवा मुहैया कराएगा और समय सीमा 10 वर्ष की होगी। पीएसएलवी का 29 वॉं मिशन है। भारत के पास अब अपना सशक्त नेविगेशन सिस्टम है। आने वाले समय में भारत IRNSS-1 E और IRNSS-1 F उपग्रह स्थापित करने के लिए तत्पर है, जिससे भारतीय नौवहन प्रणाली क्षेत्र में नये कीर्तिमान स्थापित कर लेगा।

IRNSS प्रणाली का उपयोग देश की सीमा से 1500 किलोमीटर के हिस्से में उपयोगकर्ता को सूचना प्रदान करने में किया जाता है। नक्शा तैयार करने, जियोडेटिक ऑंकड़ें जुटाना, चालकों के लिए दृश्य और ध्वनि के जरिये नौवहन की जानकारी उपलब्ध कराना, भू-भागीय हवाई व समुद्री नौवहन में सहायता प्रदान करना, ऑकड़ों के विश्लेषण से आपदा प्रबन्धन जैसे कार्यों में मदद प्राप्त कराना आदि IRNSS उपग्रह श्रृंखला के प्रमुख कार्य हैं।

भारतीय नौवहन प्रणाली के पूर्ण रुप से काम प्रारम्भ करने के बाद हमारी निर्भरता अन्य देशों पर की हो जाएगी। साथ ही भारतीय मुद्रा की बचत भी होगी। देश के अंतरिक्ष कार्यक्रम देश के सामाजिक आर्थिक विकास में उत्तरोत्तर महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है।

वर्तमान में भारत जीपीएस प्रणाली का प्रयोग भी कर रहा है। रेलवे तथा अन्य परिवहन साधनों को अत्याधुनिक जीपीएस से जोड़ा जा रहा है। इसके माध्यम से जनहित तथा यात्री सुरक्षा से सम्बद्ध सन्देशों को समय समय पर प्रेषित किया जाता है। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन, अहमदाबाद के द्वारा अलॉर्म ट्रांसमीटर नामक चेतावनी यंत्र विकसित किया गया है। यह जीपीएस पर आधारित प्रणाली है। इसके द्वारा कम्प्यूटर पर वाहनों की स्थिति को जाना जा सकता है।

भविष्य में नेविगेशन के क्षेत्र में अपार सम्भावनाएॅं छिपी हैं। पृथ्वी की कक्षा में स्थापित छोटे छोटे उपग्रह हमारे जीवन की छोटी छोटी जरुरतों से जुड़े हैं। भविष्य में इनका दायरा और अधिक बढे़गा। उच्च प्रौद्योगिकी सम्पन्न देशों के बीच खड़े होने के लिए हमें अपने अंतरिक्ष कार्यक्रमों को अधिक सटीक बनाना जरुरी था। भविष्य में जब नेविगेशन प्रणाली से जुड़े अन्य महत्वपूर्ण मिशन पर शोध होगा तो निश्चित ही भारत वैश्विक समुदाय का हिस्सा होगा। भारत के बढ़ते कदम अब अंतरिक्ष भी नापने लगे हैं। भारत ने अंतरिक्ष के क्षेत्र में नये इतिहास को रचते हुए विभिन्न अभियानों को सफलतापूर्वक अंजाम दिया है।

भारत अपनी नेविगेशन प्रणाली की पूर्ण सफलता के न सिर्फ अत्यन्त निकट पहुॅंच चुका है बल्कि विश्व समुदाय को अपनी तकनीक और काबिलियत की ओर आकर्षित भी किया है।

(लेखक परिचय : डॉ. धीरेन्द्रनाथ  मिश्र  (स्वतंत्र पत्रकार )

प्रयाग में जन्म, देश के प्रतिष्ठित मिडिया समूहों को सेवाएं प्रदान की। २००३ से लगभग सभी मुद्दों पर पत्र-पत्रिकाओं में लेखन ।)

शाहरुख ने ट्वीट कर देवदास फिल्म की पूरी टीम का शुक्रिया अदा किया..

संजय मिश्र ‘कात्यानी’

Sanjay Katyani

संजय लीला भंसाली की देवदास को रिलीज हुए रविवार को 13 साल हो गए हैं. इस मौके पर फिल्म अभिनेता शाहरुख खान ने फिल्म को डबस्मैश वीडियो के जरिए याद किया है.

साल 2002 में आई देवदास में एक शराबी प्रेमी की शीर्ष भूमिका निभाने वाले शाहरुख ने एक वीडियो डाला है जिसमें वह अपना फेमस डायलॉग बोल रहे हैं, बाबूजी ने कहा गांव छोड़ दो, सबने कहा पारो को छोड़ दो.

शाहरुख ने ट्वीट कर फिल्म की पूरी टीम का शुक्रिया अदा किया और देवदास के कई पोस्टरों का कोलाज भी डाला. तस्वीर के नीचे कैप्शन में उन्होंने लिखा, संजय, बिनोद, प्रकाशजी, बेला, माधुरी, ऐश, सरोजजी, वैभवी, इस्माइल, मोंटी और पूरी टीम तथा देवबाबू को इस मास्टरपीस के लिए शुक्रिया.

हर महीने हमारे नेतागण कितने रूपए की बिजली खर्च करते हैं..??

By Amit Dwivedi@Navpravah.com
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल के बिजली बिल मामला पिछले कुछ दिनों से सोशल मीडिया और समाचार चैनलों पर चर्चा का केंद्र रहा है.  जन सुविधाओं की बात करने वाले केजरीवाल एक बार फिर से फेसबुक और ट्विटर जैसे मंच पर मज़ाक के पात्र बने. केजरीवाल के  91 हजार रुपए के बिल के चलते नेताओं की सुविधाओं पर फिर से बहस होने लगी है. यही नहीं, केजरीवाल के बढ़ते खर्च को लेकर विपक्षी दलों के नेताओं ने भी उनपर हमले तेज कर दिए हैं।
जनता से बिजली और पानी बचाने की गुहार लगाने वाले लगभग हर जन प्रतिनिधि का यही हाल है. अपने भाषणों से ये जनता से देश को समृद्ध बनाने के लिए तमाम बातें और वायदे करते नज़र आते हैं लेकिन किसी भी बात पर अमल करते नहीं दिखते. केजरीवाल के बिल मामले के चलते दिल्ली में सत्ता सुख भोग रहे तमाम नेताओं के रईसी की कलई खुल रही है. केजरीवाल पर हमला बोलने  वाले विपक्षी नेताओं की बोली धीमी तब हुई जब खबरों में केंद्र के बड़े नेताओं के सुख सुविधाओ की रसीद चैनलों और वेबसाइट्स पर फ़्लैश हुई.
हालांकि ऐसा नहीं है कि सिर्फ दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल का बिल लाखों में आया है. दिल्ली में रहने वाले तमाम राजनेता, सांसद और मंत्री भी हर महीने लाखों रुपए की बिजली फूंक रहे हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी लाखों की बिजली खर्च करने वालों की श्रेणी में जगह बनाए हुए हैं।
न्यू इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के मुताबिक पीएम मोदी का बिजली का बिल 21 लाख रुपए आया है तो वित्त मंत्री अरुण जेटली का बिजली का बिल 3.63 लाख रुपए आया है।
हालांकि, यह अभी भी आफ नहीं हो सका है कि इन तमाम नेताओं के बिजली के बिल इतने ज्यादा क्यों आ रहे हैं. नेताओं के आवासों में सरकारी संसाधनों का दुरुपयोग हो रहा है, इस पर भी जनमानस में चर्चा जारी है. लेकिन इस मसले ने नेताओं की बोलती ज़रूर बंद कर दी है।
एक तरफ जहां आज भी देश में कई आइए गाँव हैं जहां बिजली का नामो निशाँ नहीं है. और देश के शीर्ष पदों पर बैठे राजनेता जनता के पैसे से एमएम दुनियावी सुख सुविधाओं के मज़े लूट रहे हैं।
आइये जानते हैं कि हर महीने हमारे नेतागण कितने रूपए की बिजली खर्च करते हैं.
अरुण जेटली- 3,62,939 रुपए
जितेंद्र सिंह- 1,97,403 रुपए
राहुल गांधी- 1,76,550 रुपए
संतोष गंगवार- 1,54,990 रुपए
हरसिमरत तौर बादल- 1,35,766 रुपए
उमा भारती- 1,20,793 रुपए
निहाल चंद- 87,997 रुपए
नितिन गडकरी- 53,761 रुपए
धर्मेंद्र प्रधान- 44,247 रुपए
सचिन पायलट- 43,031 रुपए
स्मृति ईरानी- 29,081 रुपए
निर्मला सीतारमन- 21,562 रुपए
प्रकाश जावड़ेकर- 21,177 रुपए
जनरल वीके सिंह- 20,499 रुपए
पीयूष गोयल- 8,654 रुपए

सरकार आईएएस अधिकारियों के मूल कैडर से केंद्रीय सेवाओं में वापस लौटने की प्रक्रिया को आसान बनाने की तैयारी में

टीम नवप्रवाह.कॉम
अब भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) के अधिकारियों को उनके मूल कैडर से केंद्रीय सेवा में लौटने पर ‘एक्सटेंडेड कूलिंग ऑफ पीरियड’ (ईसीओपी) का सामना नहीं करना पड़ेगा. प्राप्त जानकारी के मुताबिक सरकार आईएएस अधिकारियों के मूल कैडर से केंद्रीय सेवाओं में वापस लौटने की प्रक्रिया को आसान बनाने की तैयारी में है.
अभी जो अधिकारी केंद्र में सेवा अवधि से पूर्व राज्य सरकार में मुख्य सचिव के रूप नियुक्ति पाते हैं, उन्हें सिर्फ ‘कूलिंग ऑफ पीरियड’ के बाद वापस केंद्र में बुलाया जा सकेगा. यह पीरियड केंद्र में संयुक्त सचिव के लिए तीन साल और अतिरिक्त सचिव के लिए एक साल है.
नियमों के अनुसार  केंद्र में एक संयुक्त सचिव स्तर के अधिकारी का कार्यकाल पांच वर्ष का होता है. इसके बाद उसे अनिवार्य रूप से तीन साल तक राज्य में रहना होता है जिसे ‘कूलिंग ऑफ पीरियड’ कहते हैं.
यदि संयुक्त सचिव स्तर का अधिकारी केंद्र में अपनी निर्धारित अवधि से पहले ही अपने मूल कैडर में पदोन्नति या राज्य सरकार के बुलाने पर लौटना चाहता है, तो केंद्र की शेष कार्य अवधि को ‘कूलिंग ऑफ पीरियड’ में जोड दिया जाता है. इस अवधि को ईसीओपी कहते हैं.

मेक इन नॉर्थ: सम्भावनाएॅं एवं चुनौतियॉं

By Dr. Dhirendranath Mishra

भारत ज्ञान विज्ञान के समन्वय से पूर्ण एक अद्भुत देश है, जिसका प्रत्येक क्षेत्र में अपना वैशिष्ट्य है। आज भारत नित नवीन आविष्कारों और तकनीको को खोजता हुआ दिन प्रति दिन सफलता के नये कीर्तिमान स्थापित कर रहा है, फिर चाहे बात हो तकनीकी के क्षेत्र की या औद्योगिकीकरण की। प्रत्येक क्षेत्र में भारत विश्व के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर चल रहा है।

जब विश्व मन्दी जैसे समस्याओं का सामना कर रहा था, भारत ने अपनी आर्थिक व्यवस्था को स्थिर बनाये रखा। आजादी के बाद से आज तक की अपनी सुधारोत्तर अवधि में देश ने लम्बी विकास यात्रा भारतीय अर्थव्यवस्था निरन्तर विकासशील है। साकार बुनियादी ढॉचे को बेहतर बनाने की जरुरत समझ रही है। किसी देश की अर्थव्यवस्था के विकास का आधार विनिर्माण क्षमता होती है। आर्थिक उन्नति और तेजी से प्रगति कर रही अर्थव्यवस्था के साथ कदम ताल बनाए रखने के लिए यह जरुरी है कि विनिर्माण क्षेत्र को मजबूत बनाया जाए। विनिर्माण क्षेत्र जहॉ एक ओर अर्थव्यवस्था की मजबूत कड़ी है वहीं दूसरी ओर देश में विदेशी मुद्रा के आगमन और रोजगार सृजन में भी सहायक है।

हाल ही में आए केन्द्रीय बजट में विनिर्माण क्ष्ेत्र को प्रोत्साहन देने का लक्ष्य रखा गया है। अब तक ‘मेड इन इण्डिया’ से हम सभी परिचित थे, 25 सितम्बर 2014 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा निवेश को बढ़ावा देकर औद्योगिक विकास की गति को तेज करने तथा देश को ‘मैन्यूफैक्चरिंग हब’ बनाने के उद्देश्य से एक नयी योजना का आरम्भ किया गया- ‘ मेक इन इण्डिया ’ योजना के परिणामों और उसकी विशिष्टता का अन्दाजा अस बात से लगाया जा सकता है कि उसी दिन चीन जैसे देश ने मेक इन चाइना अभियान आरम्भ किया है। इस मिशन द्वारा ग्रामीण भारत का चेहरा तो बदलेगा ही, आने वाले समय में अनेक समस्याओं से मुक्ति भी मिलेगी। ‘मेक इन इण्डिया’ ने ‘‘ सबका साथ, सबका विकास’’ नारे के साथ नया जयघोष किया है।

‘मेक इन इण्डिया’ की शुरुआती सफलता ने कई ऑकड़ों को तोड़ा है, साथ ही भारत के प्रत्येक भाग में इस प्रकार की स्वतन्त्र योजनाओं को प्रेरणा भी दी है। ऐसे में उत्तर भारतीय राज्यों के विकास के परिप्रेक्ष्य में स्थितियों, परिस्थितियों, साधनों और सम्भावनाओं की चर्चा आवश्यक है।

जम्मू-कश्मीर, हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड आदि प्रदेशों से मिलकर बना उत्तरी क्षेत्र भौगोलिक, प्राकृतिक, ऐतिहासिक तथा पारम्परिक धरोहरों से सम्पन्न है। किसी भी देश के आर्थिक विकास की धुरी को कृषि, उद्योग तथा तृतीयक क्षेत्र की परिधि से ही निर्धारित किया जा सकता है अर्थात् इन उपरोक्त क्षेत्रक का जितना आर्थिक विकास होगा। आर्थिक सशक्तिकरण का आधार उतना ही ज्यादा होगा और परिणामरूवरुप सामाजिक आर्थिक रुपान्तरण को सही कृषि, उद्योग, पर्यटन, शिक्षा आदि के आधार पर उत्तर भारत में ‘मेक इन नॉर्थ’ की सम्भावनाएॅं और चुनौतियॉं के आधार पर निम्न प्रकार हैं।

भारत कृषि प्रधान देश है और कृषि सदियों से भारतीय अर्थव्यवस्था का प्रमुख आधार रही है। गॉंधी जी ने कहा था- ‘‘समाज की इकाई गॉव है। गॉंव केवल रहने के लिए मानवीय बस्ती भर नही होगा, बल्कि वह उत्पादन की मात्रा और पद्धति तथा अर्थव्यवस्था का आकार भी निर्धारित करेगा।’’

निश्चित तौर पर अर्थव्यवस्था में कृषि की भूमिका से इन्कार नही किया जा सकता है। भारत का मानना है कि कृषि बहुसंख्य भारतीय आबादी को खाद्य और आजीविका सुरक्षा उपलब्ध कराती है। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद से वस्त्रों के साथ साथ चाय और पटसन निर्यात विदेशी मुद्रा अर्जित करने का मुख्य स्रोत रहा है।

आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट 2014 के अनुसार देश में 260 मिलियन टन खाद्यान्न का उत्पादन हुआ, जबकि हमारी वार्षिक खाद्यान्न आवश्यकता लगभग 225 मिलियन टन है। सकल कृषि उत्पादन देश की जरुरत से ज्यादा होता है, जियमें उत्तर भारत के राज्यों कर हिस्सेदारी बहुत उत्तर प्रदेश, हरियाण, पंजाब गेहूॅं तथा गन्ना जैसी फसलों के उत्पादन में अपना योगदान देते हैं वहीं दूसरी ओर जम्मू कश्मीर, उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश आदि क्षेत्र बागवानी फसलों का प्रमुख केन्द्र हैं। हिमाचल प्रदेश में कृषि राज्य की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान करती है। इसके अतिरिक्त पुष्पोत्पादन तथा वन सम्पदा में भी उत्तरी क्षेत्र धनी है। जम्मू कश्मीर देवदार, चीड़, केल, फर आदि वनस्पतियों के लिए जाना जाता है। पंजाब ने गेहॅंू उत्पादन में अप्रत्याशित सफलता प्राप्त करके राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा में महत्वपूर्ण 11 वीं पंचवर्षीय योजना के दृष्टिकोण के प्रारुप पत्र में गिरते लाभांश, सिंचाई एवं वाटर शेड विकास आदि में सार्वजनिक निवेश दर बढ़ाने, किसानों को ऋण की अर्पाप्त उपलब्धता तथा सहकारी ऋण प्रणाली को पुनर्गठित करने की आवश्यकता पर बल दिया गया है। भारतीय कृषि के समक्ष आई चुनौतियों को कुल मिलाकर उत्पादकता में हृास, पर्यावरणीय अधोगति, फसलों की विविधता में कमी, घरेलू बाजार तथा व्यापार सुधारों जैसे वर्गों में विभाजित किया गया है।

इसके अतिरिक्त कृषि आधारित रोजगारों तथा उत्पादों को प्रोत्साहन देकर कृषि को मजबूती उद्योग के क्षेत्र में कारों, टैक्टरों, मोटरसाइकिलों के निर्माण, रेफ्रिजरेटरों, वैज्ञानिक उपकरणों आदि के निर्माण में उत्तर भारत के क्षेत्रों का प्रमुख स्थान है। विश्व व्यापार में बासमती चावल का सबसे बड़ा निर्यातक हरियाणा ही है। पानीपत की हथकरघे से बनी वस्तुएॅ और कालीन उद्योग का वहॉं की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान है।

सीमेन्ट उद्योग, कालीन उद्योग, चमड़ा उद्योग, वस्त्र उद्योग आदि क्षेत्रों के साथ साथ अब उत्तर भारत आई टी जैसे तकनीकी क्षेत्र में भी निरन्तर आगे की ओर बढ रहा है।

पर्यटन क्षेत्र में रोजगार की अपार सम्भावनाएॅं हैं। एक अनुमान है कि पर्यटन क्षेत्र में हर 10 लाख रुपये के निवेश पर अमूमन 47.5 प्रत्यक्ष और 90 परोक्ष रोजगार पैदा होते हैं। उत्तर भारत में परम्परा और आधुनिकता का अनोखा समन्वय देखने को मिलता है। उत्तर भारत के र्प्यटन स्थलों में आगरा स्थित ताजमहल का दुनिया के सात आश्चर्यों में पहला स्थान होना स्वयं में एक उपलब्धि है। जामा मस्जिद, सांची का स्तूप, बौद्ध बिहार, राजस्थान की ऐतिहासिक इमारतें आदि अपनी विशेष स्थापत्य कला के लिए जानी जाती है।

गंगोत्री, यमुनोत्री, फूलो की घाटी चित्रकूट विंध्याचल नैमिषारण्य आदि धार्मिक पर्यटक स्थलों के रुप में जाने जाते हैं। उत्तर भारत को मेलो और उत्सवों की धरती कहते हैं। यहॉं के मेले जैसे माघ मेला, कुम्भ मेला, बसन्त मेला, पुष्कर मेला, बैसाखी मेला पर्यटकों के बीच कौतूहल का विषय बने रहते हैं। उत्तर भारत सदियों से देश विदेश के पर्यटकों का आकर्षण केन्द्र रहा है। हरे भरे वन, मीठे झरने, खूबसूरत नयनाभिराम दृश्य पर्यटकों को अपनी ओ आकृष्ट करते हैं। विभिन्न वन्य जीव अभयरण्य और राष्ट्रीय उद्यान भी एसोचैम द्वारा किये गये सर्वेक्षण के अनुसार वर्ष 2019 तक पर्यटन क्षेत्र की विकास दर 8.8 प्रतिशत हो जाएगी। इस विकास दर की बदौलत अगले पॉंच वर्षों में भारत पर्यटन क्षेत्र में दूसरी सबसे बड़ी ताकत बन जाएगा। ‘अतिथि देवो भवः’ प्रोत्साहन के तहत सामाजिक जागरुकता अभियान को बढ़ावा दिया जा रहा है। ग्रामीण पर्यटन स्थलों का सजोने और उन्हें बढ़ावा देने के लिए 12 वीं पंचवर्षीय योजना में 770 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है। ग्रामीण पर्यटन के विकास से भारत की शिल्पकला, हस्तकला और संस्कृति तथा परम्पराओं को अभिव्यक्ति का पर्यटन क्षेत्र की एक विशेषता यह है कि यह प्रत्येक के लिए अवसर उपलब्ध कराता है। पर्यटन के क्षेत्र में बढ़ती सम्भावनाओं को देखते हुए पर्यटन सम्बन्धी विभिन्न पाठ्यक्रमों को प्रारम्भ किया गया है, जो एक सरहनीय पहल है। पर्यटन क्षेत्र के अन्तर्गत जिन चुनौतियों का सामना करना पड़ता है उनमें प्रमुख हैं- ऐतिहासिक इमारतों को उचित संरक्षण प्राप्त न होने के कारण उनका जीर्ण क्षीण होना, पर्यटकों में जानकारी का अभाव तथा साधनों का अभाव उत्तर भारत की भौगोलिक स्थिति इस क्षेत्र के विकास में बहुत अधिक सहायक है। इस क्षेत्र में नदियों का जाल बिछा हुआ है जिसके कारण यहॉं की पनबिजला क्षमता अत्याधिक है। हरियाणा देश का पहला ऐसा राज्य है जहॉं 1970 में ही सभी गॉंवों में बिजली पहुॅंचा दी गयी।

उत्तर भारत सर्व शिक्षा अभियान, मिड डे मील योजना, पढ़े बेटी, बढ़े बेटी योजना, साक्षरता मिशन जैसी योजनाओं के माध्यम से शिक्षा के क्षेत्र में तरक्की के पथ पर अग्रसर है।

प्राथमिक माध्यमिक और उच्चतर शिक्षा के साथ साथ व्यावसायिक , तकनीकी और दूरस्थ शिक्षा के भी र्प्याप्त अवसर यहॉं उपलब्ध हैं। प्राकृतिक और मानवीय संसाधनों से परिपूर्ण उततर भारत की धरती पर विकास की अनेकानेक सम्भावनाएॅं हैं। सम्पन्न राज्य क्षेत्र होते हुए भी उत्तर भारत अर्थव्यवस्था को वह सशक्तिकरण नहीं दे पा रहा है जितनी कि उसे आवश्यकता है और विश्व पटल पर अपना गौरवपूर्ण स्थान हासिल करने के लिए उसे अभी चुनौतियों को पार करना होगा। किसी भी क्षेत्र के विकास के लिए बड़े पूॅंजी निवेश की आवश्यकता होती है जिसके लिए ऐसी योजनाओं का क्रियान्वयन किया जाए जिससे निवेशक उत्तर भारतीय क्षेत्र की ओर और अधिक आकर्षित हो। औद्योगिकीकरण को बढ़ावा देने के साथ पर्यटन को एक व्यवसाय के रुप में विकसित प्राकृतिक संसाधनों को संवारना होगा। उत्तर के निर्माण के लिए पूंजी, संसाधन के निर्माण की आवश्यकता को समझकर शिक्षा और सेवा क्षेत्र को बेहतर और सुसंगठित ढंग से स्थापित करना होगा। उत्तर भारत को फाइनेंशियल अनटचेबिलिटी से मुक्ति पानी होगी। भारत के निर्माण का सपना तब तक साकार नही हो सकता जब तक उत्तर भारत के निर्माण को सही दिशा नही मिलती। उत्तर भारत अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान दे पाने में पूर्णतः सक्षम है बस आवश्यकता है सुनियोजित और संगठित कदमों की।

मशहूर संगीत निर्देशक खैय्याम से एक मुलाक़ात

By Amit Dwivedi 

आप हीरो बनने आये थे ?

खैय्याम : मुझे सहगल साहब बहोत पसंद थे, जब भी उन्हें देखता मन में ये बात कौंधती की यार मुझे भी हीरो बनना है। मेरी इस बात पे मेरे घर का कोई भी शख्स राज़ी नहीं था सारे लोग इसके विरोध में थे । मेरी बातों और जिद से लोग नाराज़ थे और सब समझ भी गए थे कि अब शायद रोक पाना मुश्किल होगा। घर वालों ने तमाचे भी जड़े लेकिन क्या करें? घरवालों ने तो साफ़ कह दिया था कि अगर आपको हमारे साथ रहना है तो आप इन सब चीज़ों के बारे में सोचना छोड़ना पड़ेगा।

…तो हीरो बनने के लिए खैय्याम साहब ने क्या किया ?

खैय्याम : उन दिनों मैं गवर्नमेंट हाई स्कूल में पढता था , पांचवी में था उस समय। उस समय मन में ये ख्याल आया कि सारे बड़े काम दिल्ली से ही हुआ करते हैं तो शायद फिल्में भी वहीँ बनती होंगी. दिल्ली के लिए रवाना हो गए वहीँ दिल्ली में ही हमारे चाचा जान रहा करते थे. जब हम चाचा के यहाँ पहुचे तो वो बड़े खुश हुए लेकिन अगले ही पल उन्होंने पूछा कि भाई जान कहाँ हैं? तो मैंने कहा कि मैं अकेले आया हूँ सारा माज़रा वो समझ गए बस और क्या था जड़ दिए कुछ थप्पड़ | गनीमत थी कि दादी उन दिनों चचा के यहाँ ही रहती थीं उन्होंने बचाया मुझे. चचा ने मेरा एडमिशन वहीँ के एक स्कूल में कराया तो ज़रूर लेकिन जल्दी ही समझ गए कि इसका मन पढ़ाई में लगता नहीं मेरी रूचि
भी वो जल्दी ही समझ गए. हीरो तो नहीं बने लेकिन दिल्ली ने म्यूजिक के लिए एक दिशा ज़रूर दी |

चिश्ती बाबा से आपका गहरा जुड़ाव रहा , कुछ बताएं |

खैय्याम : चिश्ती बाबा से मेरी मुलाक़ात मेरे दोस्त ने करवाई थी . जब मैंने चिश्ती साहब को देखा तो वह उस वक़्त वो पियानो पर बड़ी सुन्दर धुन बजा रहे थे कुछ देर बजाने के बाद उन्होंने अपने एक साथी से पूछा की मैं कौन सा टुकड़ा बजा रहा था? साथी ने कहा बाबा आप इतनी साड़ी धुनें बजा चुके हैं याद नहीं आ रहा की कौन सी धुन थी , इतने में मैंने उनकी भूली हुई धुन बता दी। पहले तो गुस्सा हुए की बिना अनुमति के ये कौन घुस आया है लेकिन जब बाद में उन्हें सारी बातें पता चली तो खुश हुए और गले लगाया और तभी से मैं उनका शिष्य भी बना । उन दिनों चिश्ती बाबा के पास काफी प्रोजेक्ट थे काम करने के लिए। मुझसे उन्होनें रहने और खाने के बारे में पूछा तो मैंने स्पष्ट उन्हें बता दिया, कोई पनाह तो थी नहीं मेरे पास तो बाबा के यहाँ ही ठिकाना मिला।

आप चिश्ती बाबा के यहाँ सीखने लगे , आमदनी का कोई श्रोत था उन दिनों ?

खैय्याम : म्यूजिक के लोग बड़े खुशमिजाज़ और मौजी किस्म के होते हैं लेकिन मैं हमेशा से बड़ा शांत रहता था ,कोई नशा नहीं करता था मैं। मुझे इस बात की खबर नहीं थी की इस बात पर बी . आर . चोपड़ा साहब गौर कर रहे थे। एक दिन सबको पैसे दिए जा रहे थे ,सब बुलाया जाता और उन्हें पैसे दिए जाते लेकिन मेरा नाम अंत तक नहीं लिया गया तो चोपड़ा साहब ने पूछह की भाई खय्याम का नाम क्यूँ नहीं? चिश्ती सहा ने कहा की साहब ये तो अभी सीख रहे हैं। चोपड़ा साहब ने अपने असिस्टेंट को बुलाया और मुझे भी पैसे दिए, तब से मुझे हर महीने 125 रुपये हर महीने पगार मिला करता। इस तरह से मेरी पहली कमाई शुरू हुई।

जोहरा जी के साथ आपने ‘रोमियो-जूलिएट’ फिल्म में गाया भी। उससे कुछ फायदा हुआ कैरियर को?

खैय्याम : मेरे गुरूजी की वजह से मुझे ‘रोमिओ-जूलिएट ‘ फिल्म में जोहरा जी के साथ गाने का मौका मिला . इसी गाने को सुनकर नर्गिस जी की माँ नेमुझे बुलवाया। उन दिनों मेरा नाम ‘प्रेम कुमार’ रख दिया गया था। मुझे डर लगा कि मुझसे कुछ गड़बड़ तो नहीं हो गई, क्योंकि नर्गिस जी की माँ खुद संगीत की बहोत अच्छी जानकार थीं। उनका नाम जद्दन बाई था लेकिन उन्हें लोग बीबी के नाम से बुलाते थे। मुझे घर बुलाकर उन्होंने गाना सुना ,खुश हुईं और आश्वाशन दिया की मिलते रहना , काम देंगे तुम्हे। उनका इतना कहना ही मेरे लिए किसी काम से कम नहीं था।

फिल्म ‘फूटपाथ’के बारे में कुछ बताएं।

खैय्याम : फूटपाथ दिलवाने में नर्गिस जी की माँ का और दिलीप साहब का बड़ा योगदान था . इस फिल्म में आशा जी से मैंने चार गाने गवाए .

‘फिर सुबह होगी’ यह फिल्म काफी चर्चित रही। क्या कहेंगे आप इसके बारे में ?

खैय्याम : क्या कहने यार, आउटस्टैंडिंग …जितनी तारीफ करें कम होगी। साहिर साहब को जब डिटेल्स मिलीं तो उन्होंने म्यूजिक के लिए मेरा नाम लिया . सहगल साहब ने कहा की अगर खैय्याम राज साहब (राज कपूर) को धुन सुनाएं और उन्हें पसंद आ जाये तो मुझे कोई ऐतराज नहीं । साहिर साहब ने कविता लिखी ‘ वो सुबह कभी तो आएगी’ और मुझे सारी बातें बताई तो मैंने पांच धुनें बनाई उसकी। मैंने जब उन्हें पहली ही धुन सुनाई वो एकदम खुश हो गए,ऐसे ही एक एक करके मैंने उन्हें पाँचों धुनें सुनाई। सहगल साहब को राज साहब लेकर गए तो मैंने सोचा की अब हमें ये फिल्म तो नहीं मिलने वाली . हम इंतज़ार करते रहे ,सहगल साहब लौटे तो मेरा माथा चूमने लगे और बधाई दी। बाद में राज साहब आये तो फिर से पांचो धुनें सुने और कहा की हम पाँचों धुनें रिकॉर्ड करेंगे .

पहले कुछ ‘आखिरी ख़त’ के बारे में बताएं फिर ये बताएं की आखिरी ख़त के बाद ‘कभी-कभी’ में इतना लम्बा गैप क्यों ?

खैय्याम : चेतन साहब ने कहा की एक ही गाना करना है आपको। मैंने सोचा की खुद न खास्ता कुछ गड़बड़ हो गई तो … ? फिर से फ़ोन आया उनका मीटिंग हुई साथ में कैफ़ी साहब भी थे उन्होंने कहा की खैय्याम गाना एक ही है और आप ही को करनी है। “बहारों मेरा जीवन सँवारो ” यह उन्हें इतना पसंद आया की आगे हमने इसी फिल्म के लिए पांच गाने रिकॉर्ड किए . ‘आखिरी ख़त’ और ‘कभी-कभी’ के बीच में इतने लम्बे गैप के बारे में इंडस्ट्री के ही लोगो का सोचना है की फिल्म इंडस्ट्री ने मुझे अकेला छोड़ दिया था लेकिन ऐसा बिलकुल नहीं है। हम फिल्में चुनाव करके ही करते थे। उस दरमियान हमने ढेरों भजनों और ग़ज़लों के एलबम्स किये जो काफी ज्यादा लोकप्रिय रहे।

इतनी सारी बेहतरीन फिल्में आपने दी हैं, ढेरो सम्मान आपको मिला। इतना लम्बा सफ़र …कैसा लगता है बीते कल के बारे में सोचकर ?

खैय्याम : बड़ा सुकून मिलता है और इस बात की बड़ी ख़ुशी होती है की हमने जितनी भी फिल्में की भले ही वो अदद में कम हों लेकिन ऐतिहासिक रहीं । उम्र के इस पड़ाव पर बीते हुए कल को याद करके आप मुस्कुरा दें इससे अच्छा क्या हो सकता है।

 

साहित्य, समाज और सिनेमा

लेखक: डॉ. पुनीत बिसारिया 
(वरिष्ठ प्राध्यापक, हिन्दी विभाग, नेहरू पी. जी. कॉलेज, ललितपुर, उ. प्र.)
साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है। यदि इस नज़रिए से सिनेमा को देखा जाए तो सिनेमा को समाज की अन्तर्शिराओं में बहने वाले रक्त की संज्ञा दी जा सकती है। प्रारम्भ से ही सिनेमा ने समाज पर सकारात्मक एवं नकारात्मक दोनों ही प्रकार के प्रभाव छोड़े हैं। भारत की पहली फिल्म सत्य हरिश्चन्द्र देखकर बालक मोहनदास करमचंद गांधी रो पड़े थे और ‘राजा हरिश्चंद्र’ की सत्यनिष्ठा से प्रेरित होकर उन्होंने आजीवन सत्य बोलने का व्रत ले लिया था। वास्तव में इस फिल्म ने ही उन्हें मोहनदास से महात्मा गांधी बनने की दिशा में पहला कदम रखने हेतु प्रेरित किया था। स समाज, न नवीन, म मोड़ अर्थात् सिनेमा ने समय-समय पर समाज को नया मोड़ देने में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया है। साहित्य ने भी समाज के इस महत्त्वपूर्ण दृश्य-श्रव्य माध्यम के पुष्पन-पल्लवन में अपना योगदान यदि हम शुरूआती सिनेमा की ओर नज़र दौड़ाएँ, तो पाते हैं कि इसकी शुरूआत ही पौराणिक साहित्य के सिनेमाई रूपान्तरण से हुई। ‘सत्य हरिश्चन्द्र’, ‘भक्त प्रह्लाद’, ‘लंका दहन’, ‘कालिय मर्दन’, ‘अयोध्या का राजा’, ‘सैरन्ध्री’ जैसी प्रारंभिक दौर की फिल्में धार्मिक ग्रंथों की कथाओं का अंकन थीं।
इन फिल्मों का धार्मिक और आर्थिक के साथ-साथ सामाजिक उद्देश्य भी था। चौथे दशक से फिल्मों में सामाजिक कथाओं की भी आवश्यकता को महसूस किया जाने लगा और इसके लिए समकालीन साहित्य के रचनाकारों की ओर देखना लाज़मी हो गया। नतीजा यह हुआ कि सिनेमा को मण्टो का साथ लेना पड़ा। मण्टो की लेखनी से ‘किसान कन्या’, ‘मिजऱ्ा गालिब’, ‘बदनाम’ जैसी फि़ल्में निकलीं। प्रेमचंद और अश्क भी इस दौर में सिनेमा से जुड़े और मोहभंग के बाद वापस साहित्य की दुनिया में लौट गए। बाद में ख्वाजा अहमद अब्बास, पाण्डेय बेचन शर्मा उग्र, मनोहरश्याम जोशी, अमृतलाल नागर, कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव, रामवृक्ष बेनीपुरी, भगवतीचरण वर्मा, राही मासूम रज़ा, सुरेन्द्र वर्मा, नीरज, नरेन्द्र शर्मा, कवि प्रदीप, हरिवंशराय बच्चन, कैफी आज़मी, शैलेन्द्र, मज़रूह सुल्तानपुरी, शकील बदायूँनी इत्यादि ने भी समय-समय पर हिन्दी सिनेमा में किसी न किसी रूप में अपनी आमद दर्ज कराई। अनेक हिन्दी, उर्दू तथा बांग्ला की कालजई रचनाओं पर भी फिल्में बनाई गईं और उनमें साहित्य की आत्मा डालने की कोशिशें की गईं। वास्तव में आठवें दशक तक सिनेमा ने हिन्दी-उर्दू में कोई फर्क ही नहीं माना। उर्दू के अफसानानिग़ार मण्टों की कहानी पर बनी फिल्म ‘अछूत कन्या’ सुपरहिट साबित हुई। बांग्ला लेखक शरतचंद्र के उपन्यास ‘देवदास’ पर हिन्दी में चार फिल्में बनीं और कमोबेश सभी सफल रहीं। प्रेमचन्द की कहानी ‘शतरंज के खिलाड़ी’ पर सत्यजीत रॉय ने इसी नाम से फिल्म बनाई, जो वैश्विक स्तर पर सराही गई। भगवतीचरण वर्मा के अमर उपन्यास ‘चित्रलेखा’ पर भी फिल्में बनीं, जिनमें एक सफल रही। बाद में साहित्यिक कृतियों पर आधारित फिल्मों को आर्ट फिल्मों के खांचे में रखकर इनका व्यावसायिक और हिट फिल्मों से अलगाव कायम करने का प्रयास किया गया, जिससे ऐसी फिल्मों का आर्थिक पहलू प्रश्नचिह्नांकित हो गया और फिल्मकारों ने साहित्यिक कृतियों पर फिल्म बनाने से परहेज करना शुरू कर दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि ‘एंग्री यंग मैन’ युग आ गया और यथार्थ से कटी हुई अतिरंजनापूर्ण ‘अमिताभीय’ फिल्मों का दौर आ गया। मैं इस दौर को हिन्दी सिनेमा का ‘अंधकार युग’ मानता हूँ, जिससे हमें नवें दशक में आकर मुक्ति मिल सकी। यह युग वस्तुतः समाज की सोच, उसकी आकांक्षाओं एवं उसके स्वप्नों से कटा हुआ था और इसमें आम जनता की सहभागिता नगण्यप्राय थी। इन फिल्मों के अर्थ-दृष्टि से सफल होने का बड़ा कारण यह था कि अमिताभ के ‘लार्जर दैन लाइफ’ अवतार में तल्लीन तत्कालीन युवा वर्ग को अपनी समस्याएँ तीन घण्टे के लिए ही सही खत्म होती दीखती थीं। ऐसे में बाकी समाज की उन्हें न तो ज़रूरत थी और न ही उसकी कोई आर्थिक उपयोगिता थी। इस नैराश्यपूर्ण दौर में समाज और साहित्य को तो हाशिए पर रहना ही था। हालांकि अमिताभीय युग में भी सत्यजीत रॉय, मृणाल सेन, कमाल अमरोही, ऋषिकेश मुखर्जी, बासु भट्टाचार्य, श्याम बेनेगल, एम. एस. सत्थू, एन. चंद्रा, मुजफ्फर अली, गोविन्द निहलानी, आदि ने अपने-अपने स्तर से साहित्य, सिनेमा और समाज का त्रयी में सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयास किया लेकिन ये सभी चाहे-अनचाहे ‘आर्ट सिनेमा’ में बँधने को बाध्य हुए। एक कारण और भी था कि इस दौरान साहित्यिक कृतियों पर बनने वाली फिल्में एक-एक कर असफल होने लगी थीं। प्रेमचंद की रचनाओं पर बनीं ‘गोदान’, ‘सद्गति’, ‘दो बैलों की कथा’, फणीश्वरनाथ रेणु के उपन्यास पर बनी ‘तीसरी कसम’, मन्नू भंडारी की रचनाओं पर आधारित ‘यही सच है’, ‘आपका बंटी’ और ‘महाभोज’, शैवाल की कहानी पर आई फिल्म ‘दामुल’, धर्मवीर भारती के उपन्यास पर आधारित ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’, चन्द्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ की कहानी पर आधारित ‘उसने कहा था’, संस्कृत की रचना ‘मृच्छकटिकम्’ पर आधारित ‘उत्सव’, राजेंदर सिंह बेदी के उपन्यास पर बनी ‘एक चादर मैली सी’ आदि का असफल होना सिनेमा और साहित्य से दूरी की एक बड़ी वजह बन गया। इसके कारण समाज से भी फिल्मों की दूरी बढ़ने लगी।  हालांकि इन फिल्मों के फ्लॉप होने की अन्य कई वजहें थीं लेकिन यह मिथ्या धारणा फिल्मकारों के मन में घर कर गई कि साहित्यिक कृतियों पर बनी फिल्मों का आर्थिक महत्त्व नहीं है। यद्यपि कमलेश्वर को फिल्म जगत में काफी सफलता मिली लेकिन एक साहित्यिक लेखक न होकर जब वे फॉर्मूलाबद्ध कथानक रचने लगे, तभी उनकी फिल्में सफलता का स्वाद चख सकीं और निर्देशकों ने उनकी कहानियों पर फिल्में बनाईं। ‘द बर्निंग ट्रेन’, ‘राम-बलराम’, ‘सौतन’ आदि उनकी फिल्में कहीं से भी साहित्य के चौखटे में फिट नहीं होतीं। यहाँ एक तथ्य यह भी महत्त्वपूर्ण और रेखांकित करने योग्य है कि हिन्दी फिल्म जगत में जितनी सफलता कवियों और शायरों को मिली, उतनी सफलता कथाकारों को नहीं मिल सकी। इसका एक कारण यह हो सकता है कि कथाकारों की कथा का कैनवॉस अत्यधिक विस्तृत होता है और इनमें ‘शब्दों की महत्ता’ सर्वोपरि होती है, जबकि सिनेमा में ऐसा नहीं होता। सिनेमा को अपने समूचे विस्तार को दो से तीन घण्टों के भीतर दृश्यों के माध्यम से समेटना होता है और यहाँ शब्द से अधिक महत्त्वपूर्ण ‘अभिव्यक्ति’ और ‘प्रस्तुति’ होती है।
नाटक के चारों अवयव – वाचिक, सात्त्विक, कायिक और आहार्य सिनेमा में आकर शब्दों, अलंकारों पर भारी पड़ने लगते हैं। सिनेमा दृश्य-श्रव्य माध्यम है और साहित्य पाठ्य माध्यम। यह अन्तर न समझ पाने वाले लेखक अथवा फिल्मकार इस रास्ते पर चलकर असफलता का स्वाद चखते हैं। फिल्मी नज़रिए से नाटक और एकांकी ही सिनेमा के सबसे नज़दीकी सम्बन्धी दिखाई देते हैं। वहीं कवियों और शायरों के लिए ऐसी कोई बन्दिश है ही नहीं। उन्हें तो किसी ‘सिचुएशन’ के मुताबिक गीत या गज़ल भर लिखनी होती है और सिनेमा के अन्य ज़रूरी आयामों से उन्हें कोई लेना-देना नहीं होता।
साहित्य और सिनेमा के अन्तर्सम्बन्धों पर गुजराती फिल्म समीक्षक बकुल टेलर ने बेहद सारगर्भित टिप्पणी की है। उनका कहना है, “साहित्यिक कृतियों पर बनी फिल्म अपने आप अच्छी हो, ऐसा नहीं होता। वास्तविकता यह है कि साहित्यिक कृति का सौन्दर्यशास्त्र और सिनेमा का सौन्दर्यशास्त्र अलग-अलग हैं और सिनेमा सर्जक भी साहित्यकृति के पाठक रूप में साहित्यिक आस्वाद तत्वों पर मुग्ध होकर उनका सिनेममेटिक रूपांतरण किए बगैर आगे बढ़ जाते हैं।
एक अन्य तथ्य यह भी उल्लेखनीय है कि कई बार गलत पात्र चयन से भी साहित्यिक फिल्मों की आत्मा मर जाया करती है। इसका सबसे सटीक उदाहरण ‘गोदान’ फिल्म का है, जिसमें होरी की भूमिका में अभिनेता राजकुमार को ले लेने से यह फिल्म अविश्वसनीय लगने लगी क्योंकि दमदार डायलॉग बोलने वाले राजकुमार कहीं से भी दीन-हीन होरी के रोल में फिट नहीं थे। इसके अलावा कृति के मुताबिक परिवेश का अंकन भी फिल्मकारों के लिए बड़ी चुनौती होती है। उदाहरण के लिए बंकिमचंद्र की कृति पर बनी ‘आनंदमठ’, विमल मित्र कृत ‘साहब बीबी और गुलाम’, आर. के नारायण के अंग्रेज़ी उपन्यास पर बनी ‘गाइड’, उडि़या लेखक फकीर मोहन सेनापति की रचना पर बनी ‘दो बीघा ज़मीन’ और मिर्ज़ा हादी की उर्दू कृति पर बनी ‘उमराव जान’ फिल्मों की सफलता का सबसे बड़ा कारण परिवेश की समनुरूपता रहा है। साहित्यकारों की एक बड़ी समस्या यह भी है कि वे प्रायः बन्धनों में बँधकर सृजन करना पसन्द नहीं करते। यही कारण है कि वे सिनेमा में जाने से दूर भागते हैं क्योंकि उन्हें पता है कि उन्हें फिल्म के निर्माता अथवा निर्देशक के दबाव में कहानी में बदलाव करने पड़ सकते हैं। दूसरी समस्या पटकथा लेखकों की है। वे अक्सर अतिनाटकीयता और अतिरंजना को ही फिल्मों की सफलता की एकमेव कसौटी मान लेते हैं। इसका सबसे भोंडा उदाहरण टी.वी. धारावाहिक ‘चन्द्रकान्ता’ का है, जिसमें अतिनाटकीयता और अतिरंजना को बढ़ाने के लिए बाबू देवकीनंदन खत्री के मूल उपन्यास की आत्मा ही नष्ट कर दी गई। एक अन्य बड़ी समस्या यह है कि अधिकांश साहित्यकार फिल्म निर्माण के विभिन्न तकनीकी पहलुओं से प्रायः अनभिज्ञ होते हैं और वे कैमरे की ज़रूरत के मुताबिक कथ्य दे पाने में असफल हो जाते हैं। नवें दशक में आई भूपेन हजारिका की फिल्म ‘रूदाली’ ने समाज, साहित्य और सिनेमा की त्रयी को ‘आर्ट सिनेमा’ के सीमित सांचे से बाहर निकालने में अहम् भूमिका निभाई और इस धारणा को पुनः स्थापित किया कि साहित्य से जुड़ी हुई और समाज का वास्तविक अंकन करने वाली फिल्में भी हिट हो सकती हैं बशर्ते उनमें निहित साहित्यिक संवेदनाओं का सिनेमाई रूपांतरण सफलतापूर्वक किया जाए। बाद में ‘परिणीता’ और ‘थ्री ईडिएट’ जैसी फिल्मों ने इसी धारणा को पुष्ट किया। ‘मोहल्ला लाइव’ कार्यक्रम में अनुराग कश्यप जैसे आज के दौर के फिल्मकार तो यह बात कहने में नहीं हिचके कि हिन्दी का अधिकांश लेखन फिल्मों की दृष्टि से अनुपयोगी है और समकालीन लेखक सिनेमा की ज़रूरतों के मुताबिक लेखन कार्य नहीं कर रहे हैं। कमोबेश यही राय निर्देशक सुधीर मिश्रा और फिल्म समीक्षक अजय ब्रह्मात्मज की भी है। हमें ऐसी चुनौतियों को गम्भीरता से लेना होगा और साहित्य जगत को अपने भीतर से ऐसे साहित्यकार पैदा करने होंगे, जो फिल्म लाइन की बारीकियों की जानकारी रखते हों और चित्रपट की आवश्यकताओं के मुताबिक पटकथा लेखन करने में सक्षम हों, वरना हम हॉलीवुड की फिल्मों की घटिया नकल और बासी रीमेक फिल्मों अथवा पुरानी कहानियों की भोंडी पुनर्प्रस्तुतियों को देखने के लिए अभिशप्त ।

क्या है व्यापमं घोटाला…?

By Amit Dwivedi@Navpravah.com

व्यापमं  घोटाले की जांच कर रहे पत्रकार अक्षय की संदिग्ध हालत में हुई मौत ने लोगों का उस शक  को यकीन में बदल दिया है जिसमें कहा जा रहा था कि इस घोटाले में ऐसे लोग शामिल हैं जो नहीं चाहते कि उनका असली चेहरा लोगों के सामने आये।

क्या है व्यापमं घोटाला..?
व्यापमं घोटाले की वजह से लगातार हो रही मौतों को लेकर यह बात हर व्यक्ति के मन में आ रही है कि आखिर ये घोटाला है क्या? दरअसल व्यापमं एक प्रोफेशनल एजुकेशन का संक्षिप्त रूप है, जिसके तहत राज्य में प्री-मेडिकल टेस्ट, प्री इंजीनियरिंग टेस्ट और कई सरकारी नौकरियों के एग्जाम होते हैं। यह एक मंडल के  रूप में काम करता है। लेकिन व्यापमं परीक्षा प्रक्रिया ने घोटाले की शक्ल तब अख्तियार कर लिया जब कॉन्ट्रैक्ट टीचर वर्ग-1 और वर्ग-2 और मेडिकल एग्जाम में ऐसे लोगों को उत्तीर्ण किया गया, जिनकी योग्यता परीक्षा में शामिल होने की भी नहीं थी। इस मामले में  सरकारी नौकरियों में करीब हजार से अधिक और मेडिकल एग्जाम में करीब 500 से ज्यादा भर्तियां शक के घेरे में हैं।

घेरे में शिवराज भी-
व्यापमं घोटाले में कई गणमान्यों के इतर मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज भी घेरे में हैं। वही इस मामले में हो रहे लगातार मर्डर्स की वजह से मामला और भी पेंचीदा होता जा रहा है।

घोटाले के आग की लपट में ये भी-
इस घोटाले में आईपीएस अधिकारी व डीआईजी आरके शिवहरे, अरबिंदो मेडिकल कॉलेज के विनोद भंडारी, पूर्व मंत्री लक्ष्मीकांत शर्मा और उनके ओएसडी ओपी शुक्ला जैसी शख्सियत पर अंगुलियां उठ रही हैं।

45 लोगों की मौत-
अब तक व्यापमं घोटाले से जुड़े 45 लोगों की मौत हो चुकी है, जिनमें राज्यपाल रामनरेश यादव के बेटे की मौत भी शामिल है। आधिकारिक तौर पर हालांकि 25 मौतों की पुष्टि की गई है। फिलहाल मामला एसआईटी के हाथ में है।

विपक्ष का प्रहार-
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह ने शिवराज सिंह पर हमला बोला। उन्होंने कहा कि हर मसले की सीबीआई जांच कराने वाले शिवराज अब इस जांच से क्यों कतरा रहे हैं।

अमित शाह बोले, राम मंदिर का मुद्दा सुलझाने के लिए 370 सीटें चाहियें

भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के अध्यक्ष अमित शाह ने कहा कि अयोध्या में राम मंदिर निर्माण जैसे अहम मुद्दों को सुलझाने के लिए पार्टी को संसद में दो तिहाई बहुमत चाहिए। शाह ने मोदी सरकार के एक साल पूरे होने के अवसर पर पार्टी मुख्यालय में आयोजित संवाददाता सम्मेलन में यह बात कही। उनसे पूछा गया था कि मोदी सरकार के एक साल होने के बाद भी पार्टी के अहम मुद्दों पर कोई प्रगति नहीं हुई है।

भाजपा अध्यक्ष ने कहा कि कोर मुद्दों को सुलझाने के लिए पार्टी को लोकसभा में दो तिहाई बहुमत यानी 370 सीटें चाहिए। उल्लेखनीय है कि भाजपा के प्रमुख मुद्दों में अनुच्छेद 370 हटाना, देश में …।