शिखा पाण्डेय|Navpravah.com
सोमवार रात से शुरू हुई बारिश धीमे धीमे कम होने की बजाय, सरपट गति से बढ़ती ही गई। सड़कों पर ट्रैफिक जाम, ट्रेन की गति धीमी और धीरे धीरे मशीनी मुम्बई की धड़कन बिलकुल थम गई। दिन के करीब 11 बजे से ट्रेनें घंटों देर से चलने लगीं। ट्रेन की पटरियों पर पानी भरे होने के बावजूद, पश्चिम रेलवे की एक ट्रेन 2 बजे तक दादर स्टेशन पर अपनी अंतिम सांसें गिनते गिनते पहुँची और उसके बाद जो ट्रेनें जहाँ थीं, वहीं रुक गईं। तमाम लोग, जो दो-चार-दस किलोमीटर चलने लायक थे, वो अपनी छतरी या रेनकोट लिए सड़कों पर आ गए और कहीं घुटने भर, कहीं कमर भर पानी में लड़खड़ाते हुए अपने अपने घरों के लिए चल दिए। सड़कों पर मोटर साइकिल और कार-टैक्सी जहाँ के तहाँ फंसे थे। कुछ गाड़ियां अति धीमी रफ़्तार से चलती नज़र आईं। वडाला, खार, दादर, माटुंगा, सायन, लाल बाग आदि आदि आदि… सब धीरे-धीरे ठप्प। रेजिडेंशियल, ऑफिशियल, कमर्शियल एरिया से लोग झुंड बना बना कर सड़कों पर बूड़े पानी में उतर अपने अपने घरों की तरफ बढ़ते गए। इतनी बड़ी मुसीबत आने के बाद भी कई आनंद उठाने वाले लोग उस जल सैलाब में भी आनंद उठाते नजर आए।
तमाम मंदिर, मस्जिद, चर्च, गुरुद्वारे जनता की मदद के लिए आगे आये, घरों से दूर फंसे लोगों को आश्रय दिया, भोजन दिया। इस मूसलाधार बारिश ने चाहे जितना भी बड़ा नुकसान कराया हो, यह बारिश एक सबसे बड़ा फायदा यह करा गई, कि मुंबईकरों को, सिर्फ ‘मुंबईकर’ होने का एहसास दिला गई। फलस्वरूप यह देखने को मिला कि पूरी मुम्बई में कोई किसी से यह नहीं पूछ रहा था कि तुम भैया हो, बिहारी हो, मराठी हो, अण्णा हो, सिख हो, क्रिस्चियन हो या बंगाली हो। जगह-जगह लोकल लोग खुद कमर भर पानी में खड़े रहकर फंसे हुए लोगों की मदद के लिए तत्पर दिखे। बच्चे-जवान-बूढ़े, हर किसी ने लोगों को रास्ता पार कराने या गाइड के रूप में ‘इधर से जाओ, उधर गढ्ढा है, उधर पानी ज्यादा है’ हर संभव मदद की। तमाम लोगों की रातें रेलवे स्टेशनों पर, बस स्टेशनों पर, अपने परिचितों के यहाँ गुज़री। तमाम होटल और रेस्तरां लोगों को खाना-पानी, रहने के लिए शरण दे रहे थे, बिना किसी स्वार्थ या भेद भाव के। ये एकता मुंबईकरों में हर आपातकाल स्थिति में नज़र आती है, फिर सामान्य स्थिति में हम ये भूल कैसे जाते हैं कि हम क्या हैं? मात्र कुछ राजनीतिक ताकतें हमारी इस एकता की शक्ति पर भारी कैसे पड़ जाती हैं?
पूरी रात जो बच्चे, महिलाएं, आदमी जगह जगह अटके रहे, वो सुबह सवेरे धीमी धीमी लोकल ट्रेनों और बसों की रफ़्तार के साथ अपने अपने घरों को वापस होने लगे और जो लोग अपने घर पहुँच गए, और जो कल रात को पहुंचे, वो काम पर जाने की सोचने लगे। मुंबई की रफ़्तार कोई ताक़त, कोई आपदा रोक नहीं सकती, फिर वो प्राकृतिक हो, या मानवीय। मुम्बई कभी ऑफ़- ट्रैक नहीं होती, अपनी पटरी पर तुरंत दौड़ती नज़र आती है।
गणपति बप्पा अपने पंडाल में, अपने सिंहासन पर, मूषक राज के साथ बैठे यही सब सोच विचार करते, मुस्कुराते नज़र आये। प्रभु प्रसन्न दिखे, कि इन मुंबईकरों के लिए मानव धर्म, ईश्वर धर्म से अधिक महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि मेरा वास, हर मानव में जो है। हर न्यूज़ चैनल, अखबार, न्यूज़ एजेंसी पोर्टल, सब कल के हादसे के बारे में बताने में लगे थे।मीडिया व सोशल मीडिया भी अपना पूरा सहयोग दे रहे थे। कितने डूबे ,कितने बह गए, किसे कहाँ से मदद मिल सकती है, वगैरह वगैरह वगैरह….कहीं भी गणपति बप्पा के विसर्जन की चर्चा सुनने को नहीं मिली। अब प्रभु मुंबईकरों की गतिविधियों पर नज़र गड़ाए बैठे हैं, कि सब तो अपनी अपनी जगह पहुँच रहे हैं, पर अपने थाने- पवाने जाने का मेरा नंबर कब आएगा?