अमित द्विवेदी@नवप्रवाह.कॉम,
डॉ. जितेंद्र पाण्डेय द्वारा लिखित पुस्तक ‘काव्य विवेक और निबंध लालित्य’ हाल ही में प्रकाशित हुई। दो खण्डों में विभाजित इस पुस्तक में भक्तिकाल से लेकर समकालीन कवियों की चुनिंदा काव्यकृतियों की पड़ताल की गई है। पुस्तक के दूसरे खंड में विभिन्न विषयों को केंद्र में रखकर कुल १८ निबंध संकलित हैं। इनमें से आधे निबंधों की पृष्ठभूमि आध्यात्म है। शेष राजनीति,संगीत,खेल आदि विषयों पर लिखे गए हैं। इन सभी निबंधों में लेखक की आतंरिक वेदना को महसूस किया जा सकता है। ब्रह्मांड की असीम वेदना को समर्पित यह पुस्तक जहां एक तरफ कविता के मूल्यांकन के लिए ‘ब्रम्हांड की असीम वेदना ‘ की अनुभूति को अनिवार्य प्रतिमान के रूप में सिद्ध करती सी प्रतीत होती है , वहीं दूसरी तरफ निबंधों में सत्य को उजाागर करने में भी सहायक है।
‘कबीर का स्वाधीन विवेक’ से लेकर ‘बवंडर में व्यक्त आक्रोश’ तक के सभी समीक्ष्य निबंधों में लेखक ने ‘आत्मवत सर्वभूतेषु’ की भावना को सर्वोपरि रखा है।
इस सन्दर्भ में डॉ. पाण्डेय की स्वीकारोक्ति भी है ‘साहित्य एक विराट संकल्पना है। इसे मात्र मानव कल्याण से जोड़ना,इसे सीमित करना है। साहित्य के मूल में ‘आत्मवत सर्वभूतेषु ‘ की भावना निहित है। प्रस्तुत पुस्तक के पहले खंड में कबीर से लेकर श्री भगवान तिवारी तक की रचनाओं की पड़ताल की गई है।
मेरा मानना है कि कविता का सरोकार मात्र मानव जीवन की विसंगतियों से नहीं बल्कि समूची सृष्टि से है। मानव जीवन की विसंगतियां तभी जन्म लेती हैं जब मनुष्य अपना रागात्मक सम्बन्ध सीमित करने लगता है। ऐसी स्थिति में कविता ही मनुष्य को ईश्वर की सर्वोत्तम कृति का एहसास दिलाती है।
‘कविता के सरोकार’ में लेखक ने संस्कृत के आचार्यों से लेकर समकालीन रचनाकारों तक के युगीन बोध को दर्शाया है।
यह पुस्तक इस अर्थ में भी विशिष्ट है कि इसमें कबीर, तुलसीदास ,बिहारी ,घनानंद ,आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ,सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ , ‘अज्ञेय’ ,रामधारी सिंह ‘दिनकर’,नागार्जुन ,नरेश मेहता ,धूमिल ,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ,ज्ञानेन्द्रपति ,शोभनाथ यादव ,डॉ. करुणाशंकर उपाध्याय द्वारा सम्पादित ‘ आवां विमर्श ‘ ग्रन्थ का विश्लेषण और डॉ.श्री भगवान तिवारी की कृतियों में समकालीन संदर्भों को विशेष रूप में रेखांकित किया गया है।
पुस्तक का दूसरा विभाग अत्यंत सराहनीय है। कुछ निबंधों में आध्यात्म की सर्वभूतोपकारिणी परिभाषा दी गई है। इनमें भारतीय संस्कृति और परम्पराओं के प्रति कोई आग्रह नहीं बल्कि वैज्ञानिक विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है। निबंधों को पढ़कर किसी भी भारतीय को अपनी संस्कृति की वैश्विक व्याप्ति पर निस्संदेह गर्व होगा। सत्य को व्यक्त करना कठिन होता है। सत्य के इसी आंच को महसूस करने की बात पुस्तक के फ्लैप पर की गई है।
निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि ‘काव्य विवेक और निबंध लालित्य’ डॉ. जितेंद्र पाण्डेय की ऐसी कृति है, जिसमें एक तरफ समीक्षा की समस्त प्रणालियों का निदर्शन एक साथ हुआ है, तो दूसरी तरफ विषयगत वैविध्य का लालित्य चरम पर है।