अमित द्विवेदी | Cinema Desk
नवप्रवाह रेटिंग :
निर्देशक– शूजीत सरकार
स्टोरी-स्क्रीन्प्ले-डाइलॉग- जूही चतुर्वेदी
कलाकार- अमिताभ बच्चन, आयुष्मान खुराना, विजय राज।
गुलाबो-सिताबो एक ऐसी फ़िल्म है, जिसका चेहरा चमका कर शूजीत ने अपना बाज़ार गर्म कर लिया। ट्रेलर देख कर लगा कि क्या पता ये एक क्लासिक फ़िल्म हो, कमोबेश सबका यही अंदाज़ा था, लेकिन शूजीत ने बढ़िया ट्रेलर के डिब्बे में मिलावटी मुरब्बा बनाकर परोस दिया। अमिताभ बच्चन-आयुष्मान अभिनीत फ़िल्म गुलाबो-सिताबो बहुप्रतीक्षित फ़िल्मों की लिस्ट में शुमार थी। तमाम दर्शकों की कल्पनाओं पर पानी फेर दिया है शूजीत ने।
जूही चतुर्वेदी और शूजीत सरकार का साथ लम्बे समय (विकी डोनर) से पसंद किया जा रहा है। बीच में फ़िल्म ऑक्टोबर की वजह से गुणवत्ता पर प्रश्न उठा, लेकिन ख़ास असर नहीं पड़ा। उम्मीद जगी कि गुलाबो-सिताबो अच्छी फ़िल्म होगी। इस फ़िल्म में भी डाइलॉग, कॉमडी पंचेज़ प्रभावशाली हैं, लेकिन पटकथा बेहद सुस्त, उबाऊ-थका देने वाला।
आइए जानते हैं कहानी क्या है-
लखनऊ में रहने 78 साल के मिर्ज़ा, उनकी 94 साल की बीवी फ़ातिमा, उनके ख़ानदानी महल और इसमें रहने वाले किराएदारों के इर्द-गिर्द घूमती है फ़िल्म गुलाबो-सिताबो की कहानी। मिर्ज़ा बेहद लालची क़िस्म का इंसान है, कई ऐब लिए मिर्ज़ा यही ख़्वाब देखता रहता है कि कब उसकी बीवी का इंतक़ाल हो और फ़ातिमा महल उसके नाम हो जाए। पैसे का इतना लालची है मिर्ज़ा कि अपने किराएदारों के कमरे के बाहर लगे बल्ब, उसकी साईकिल की घंटियाँ और छोटी-छोटी चीज़े चुराकर बाज़ार में बेच देता है।
कहानी में ट्विस्ट तब आता है, जब उसके किराएदार बाँके से वॉशरूम की दीवार टूट जाती है। दोनों के बीच नोक-झोंक होती है और मिर्ज़ा टॉइलेट रूम में ताला लगाकर उसके बग़ल में खटिया डालकर सो जाता है। ग़ुस्से में बाँके और मिश्रा उसे खटिया सहित बीच सड़क पर रख आते हैं। ग़ुस्से में मिर्ज़ा थाने जाता है, एफ़आईआर करने । वहाँ पुलिस के सामने मिर्ज़ा और किराएदारों की बहस होती है। वहीं एंट्री होती है पुरातत्व विभाग के शुक्लाजी की यानि ज्ञानेश शुक्ला की। कहानी यहाँ से अलग मोड़ ले लेती है। अब जहाँ मिर्ज़ा किराएदारों को बाहर करने के चक्कर में था, वहाँ उसी की परेशानी बढ़नी शुरू हो जाती है।
शुक्ला जी बताते हैं कि पुरातत्व विभाग इस महल को क़ब्ज़े में लेगा, क्योंकि महल १०० साल से ज़्यादा वक़्त का हो गया। अब मिर्ज़ा वक़ील से मिलता है, जो सलाह देता है कि हवेली बेच दी जानी चाहिए। अब मिर्ज़ा असली काग़ज़ के जुगाड़ में लगता है, जो उसकी बीवी उसको किसी हाल में नहीं दे सकती। क्या मिर्ज़ा, महल के असली काग़ज़ पाने में कामयाब होगा और फ़ातिमा महल बेच देगा, वर्षों से महल में रह रहे किराएदारों का क्या होगा ये देखने के लिए आपको फ़िल्म देखनी पड़ेगी।
निर्देशन-
शूजीत निःसंदेह एक बेहतरीन निर्देशक हैं, लेकिन एक बार फिर वो क़िस्से को बुनने में नाक़ामयाब रहे। जूही की सुस्त पटकथा इसकी एक बड़ी वजह रही। वे आयुष्मान जैसे कलाकार से काम नहीं ले पाए।
लेखन-
जूही की पटकथा उबाऊ है, लेकिन संवाद बेहतर हैं। संवाद के दौरान कॉमडी पंचेज़ बेहतरीन हैं। शब्दों का चयन बेहतर है, रीसर्च अच्छा है। लखनवी अन्दाज़ को पकड़कर रखा उन्होंने। लेकिन सुस्त पटकथा ने सब खेल बिगाड़ दिया।
अभिनय-
अमिताभ बच्चन कुछ भी कर सकते हैं, फ़िल्म देखने के बाद यही कहेंगे आप। जीवंत अभिनय, पूरी फ़िल्म में आपको अमिताभ बच्चन नहीं नज़र आएँगे, सिर्फ़ मिर्ज़ा मिलेगा आपको।
आयुष्मान, शायद बच्चन साहब की वजह से उतने नैचरल नहीं नज़र आए, जितना वे अपनी पहले की फ़िल्मों में नज़र आए हैं। इस फ़िल्म में वे निराश करते हैं।
विजय राज हमेशा की तरह प्रभावी रहे हैं। और सभी प्रमुख साथी कलाकारों ने भी अच्छा काम किया है।
देखें या नहीं-
अमिताभ बच्चन और जूही चतुर्वेदी के संवाद के लिए देखा जा सकता है। बस इसके अलावा कोई वजह नहीं।
कुल मिलाकर लगभग दो घंटे की ये फ़िल्म अमिताभ बच्चन जैसे महानायक की मौजूदगी के बाद भी निराश करती है।
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