डॉ० कुमार विमलेन्दु सिंह | Cinema Desk
जीवन का औचित्य क्या है? कौन से निश्चित लक्ष्य की प्राप्ति के लिए, मानव अपने कृत्य करता है? संतोष क्या है? किस ठौर अपना सा लगेगा? क्या हृदय सभी स्थितियों में हर्ष और पीड़ा अनुभव कर सकता है? क्रमानुसार, इन्हीं प्रश्नों के उत्तर को खोजने के प्रयास का कलात्मक चित्रण है, 1978 में आई फ़िल्म, “अरविंद देसाई की अजीब दास्तान”, जिसे सईद अख़्तर मिर्ज़ा ने निर्देशित किया था और साइरस मिस्त्री के साथ मिलकर लिखा भी था। फ़िल्म को बेहद खूबसूरती से एडिट किया था सुप्रसिद्ध फ़िल्म निर्माता अशोक त्यागी ने।
यह अरविंद देसाई (दिलीप धवन) की कहानी है जो अपने अंदर के माइक्रोकॉज़्म में खोया रहता है, उसके अंदर एक पुरा व्यवस्थित और विस्तृत ब्रह्मांड है और वो बाहर की दुनिया के कोलाहल से, अव्यवस्था से एकदम अलग है। अरविंद देसाई (दिलीप धवन), एक अमीर व्यापारी (श्रीराम लागू) का पुत्र होता है और उसके जीवन में सभी सुविधाएं होती हैं लेकिन संतोष नहीं होता। अपने मित्र राजन (ओम पुरी), से बौद्धिक संतुष्टि के लिए वो कई बार मिलता है और बिना कुछ कहे, चुपचाप वहाँ उसके साथियों की बातें अरविंद देसाई सुनता है। यहीं एक चर्चा में, राजन (ओम पुरी) का संवाद, ” ईश्वरीय सत्ता की अभिव्यक्ति के लिए, आदमी अपने दुनिया की बलि क्यों दे? आदमी को ख़ुद अपनी अभिव्यक्ति का कारण बनना चाहिए।”, अरविंद देसाई के लिए, कई मुलाक़ातों में प्राप्त हुआ सूत्र वाक्य होता है। मुंबई की सड़कों पर होने वाले दैनिक क्रियाकलापों को बार बार दर्शाते हुए, अरविंद देसाई के अंदर के ब्रह्मांड के समानांतर एक रेखा खींचने का प्रयास किया गया है। इन्हीं सड़कों पर राजन (ओम पुरी), एक बार कहता है कि यह गंदगी और बदबू भी जीवन का विस्तार ही है, और यह बात अरविंद के अंदर तक पहुंचती है।
अरविंद अपने ऐंटीक पीस के शोरूम में काम करने वाली ऐलिस (अंजलि पायगांकर ) से प्रेम करता है और उसके संबंध एक फ़ातिमा नाम की एक वेश्या से भी होते हैं। अरविंद बीच बीच में अपनी बहन (रोहिणी हतंगडी) से भी मिलता रहता है और कई बार अपनी मां से भी खुलकर बात करने की चेष्टा करता रहता है। इन सभी महिलाओं के साथ अरविंद के संबंध, अलग स्तर और महत्व के होते हैं और सबसे स्थायी और संतोषप्रद संबंध की तलाश में, वह सब के पास जाता रहता है।
फ़िल्म के एक दृश्य में, मुंबई की शाम में, टिमटिमाती रोशनियों के बीच अरविंद देसाई गाड़ी चला रहा होता है और बैकग्राउंड में एक के बाद एक बेगम अख़्तर की आवाज़ में , “ऐ मोहब्बत, तेरे अंजाम पे रोना आया” और शमशाद बेगम की आवाज़ में, ” तेरी महफ़िल में क़िस्मत आज़मा के” सुनाई पड़ता है जो प्रेम में दो अलग छोर के बीच दोलन कर रहे, अरविंद के जीवन को दर्शाता है। फ़िल्म में सुलभा देशपांडे और सतीश शाह का भी अच्छा अभिनय देखने को मिला है।
एक चीज़ जो बहुत बारीक़ी से दिखाई गई है, वो है अरविंद देसाई का विचित्र, प्रतिक्रिया विहीन व्यवहार। कई अवसर फ़िल्म में दिखे हैं, जहाँ अरविंद को अपमानित किया है किसी अन्य पात्र ने, लेकिन उसकी ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई, जबकि वो सक्षम था पूर्णतः। दूसरी चीज़ है, अरविंद का कहीं भी बहुत देर तक नहीं रुकना। वह जहाँ भी जाता है, वहाँ से तुरंत निकल आता है। उसका अकेलापन साथ खोजता है, और जब कोई साथ आता है तो पुनः अकेलेपन की तरफ भागना चाहता है अरविंद।
“फ़िल्म एक धुन से शुरू होती है, और जब अरविंद अपने हृदय की संवेदनशीलता को मापने के लिए, स्वयं के सीने पर गोली चला बैठता है तो भी उसी धुन से फ़िल्म ख़त्म भी होती है। इस फ़िल्म का अर्थपूर्ण और प्रासंगिक संगीत, भास्कर चंदावरकर ने दिया है। 1 घंटा 53 मिनट की इस फ़िल्म में शुरूआत और अंत में धागे बुनते बुनकरों को दिखाया गया है, जो बाहरी दुनिया में हमारे जीवन की अलग-अलग तरह की कहानियां बुनते समय का प्रतीक हैं और बीच में पूरी तन्मयता से अरविंद, दर्शकों के साथ अंतर्मन की एक लंबी यात्रा पर चलते हैं, जो एक अन्वेषण है।”
1979 में बेस्ट फ़िल्म का क्रिटिक्स अवार्ड फ़िल्मफ़ेयर के द्वारा, इसी फ़िल्म को दिया गया और सच में यह फ़िल्म, अपने आप में एक “अन्वेषण” है।
(लेखक जाने-माने साहित्यकार, फ़िल्म समालोचक, स्तंभकार, व शिक्षाविद हैं.)
देखें फ़िल्म-