अमित द्विवेदी । Navpravah.com
“देखा जब स्वप्न सवेरे” डॉ. जितेन्द्र पाण्डेय का सद्यः प्रकाशित यात्रावृत्तांत है । इस पुस्तक में कुल पंद्रह स्थानों की यात्रा का रोमांचक वर्णन है । लेखक रामेश्वरम से कश्मीर तक की केवल भौगोलिक यात्रा ही नहीं करता है बल्कि सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और दार्शनिक यात्राएं भी समानांतर चलती हैं । एक जोड़ी तटस्थ आँखें हर वक़्त सतर्क और सावधान हैं । बिना किसी चश्मे के ‘आँखों देखी’ से लेकर ‘कागज की लेखी’ के मध्य संतुलन साधा गया है ।
इस पुस्तक में संस्मरणकार ने अपने गहन अध्ययन का आसव निचोड़ कर रख दिया है किंतु ज्ञान की नीरसता रंचमात्र भी नहीं । सर्वत्र काव्य-रस अबाध प्रवाहित है । प्रकृति-चित्रण में जयशंकर प्रसाद से लेकर महाकवि कालिदास तक का काव्य-सौंदर्य देखने को मिलता है । “स्पंदन” शीर्षक का यह प्रसंग देखें, “वन प्रदेश की श्यामल हरीतिमा अपने-आप में रमणीय है । यहां आकर प्रकृति-प्रेमी बच्चों की तरह चहकने लगते हैं । पसरी हुई नीली घाटियां मन को बरबस अपनी ओर खींचती हैं । सुदूर रजत-रेख-सा गिरता झरना अपनी मस्ती में गुनगुनाता रहता है । यहां की अमराइयों में गुठलियां बाँझ नहीं बल्कि धरती का ‘हिरण्यगर्भा रूप’ अपने सर्वोत्तम रूप में मौजूद है ।” डॉ. पाण्डेय के शैली की यह विशेषता है कि यदि पाठक ने एक बार इस पुस्तक का रस चख लिया तो अतृप्त मन की प्यास उसे बेचैन कर देगी । दिलो-दिमाग़ में नशा-सा उतरने लगेगा । संजीव निगम ने अपने मनोगत में लिखा है, “इस यात्रावृत्त पुस्तक की भाषा अपने विषय के अनुरूप कभी अल्हड़ बरसाती नदी की तरह तो कभी धीर गंभीर अथाह पानी वाली नदी की तरह बहती चली जाती है ।” पुस्तक के प्रारंभ में निगम जी के ‘मनोगत’ को पढ़कर मन चंचल हो उठता है । चैन, एक सिटिंग में पढ़कर ही मिलता है ।
देखा जाय तो इस पुस्तक में संतुलन स्थापित करने की कोशिश की गई है । यदि इसमें भारतीय साहित्य, संगीत, संस्कृति और शिल्प के वैभव का गुणगान है तो “छप्पन भोग” के मज़दूरों की पीड़ा, “स्पंदन” के मोनू का दर्द और “भय बिनु होय न प्रीति” के आठ वर्षीय बालक की छटपटाहट भी है । पर्यावरण को बचाने की चिंता लेखक के लगभग सभी यात्रावृत्तों में मौजूद है । वृत्तकार इतना व्यथित है कि आधुनिक विकास को कटघरे में खड़ा करते हुए लिखता है – “प्रकृति से दूर भागता मनुष्य विकास की कौन-सी परिभाषा गढ़ने में व्यस्त है ? समझ से परे है । इतिहास साक्षी है कि मानवीय उत्थान के लिए राम, कृष्ण, ईसा, बुद्ध, महावीर आदि महापुरुषों ने भी महलों को छोड़ अपना अधिकांश जीवन प्रकृति के बीच गुज़ारा ।” लेखक की यह वेदना “गंगा का मौन हाहाकार” शीर्षक में अधिक मुखरित हुई है ।
“देखा जब स्वप्न सवेरे” पुस्तक में यथार्थ की खुरदरी जमीन के साथ कल्पना की स्वप्निल उड़ान भी है । अंध श्रद्धा का विरोध और वैज्ञानिक दृष्टि का समर्थन “झरती आस्थाएं” शीर्षक यात्रावृत्त में किया गया है – “आंतरिक शांति को ढूंढ़ने के लिए हम बाहर दौड़ते हैं और यह ठहरी मृगमरीचिका । तुलसी, कबीर, मीराबाई, सूरदास आदि भक्त कवियों का सार एक तरफ, हमारा तर्क एक तरफ । अतार्किक विचारों की परिधि में हम कैद हैं । विवेक पर अंधश्रद्धा की काली पट्टी पड़ी है ।” इस प्रकार इस पुस्तक में तथ्य परक आंकड़े, अकाट्य साक्ष्य तथा लेखक की दूरदृष्टि का परिचय मिलता है ।
कुल मिलाकर यह पुस्तक एक ऐसा दस्तावेज़ है जिसमें स्थान विशेष की परत-दर-परत को बड़े सलीके से पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया गया है । पाठक को कहानी, कविता, उपन्यास, आत्मकथा आदि का ज़ायका एक ही जगह मिल जाएगा । पढ़ने के बाद मन तृप्त हो जाएगा किंतु प्यास नहीं बुझेगी । यह संस्मरण क्षणिक उत्तेजना का अल्प विस्तार नहीं बल्कि विराट का सूक्ष्म अणु है । स्फुरण और प्रसरण होता जाएगा….
लेखक : डॉ. जितेन्द्र पाण्डेय
पुस्तक : देखा जब स्वप्न सवेरे (यात्रावृत्त)
प्रकाशक : परिदृश्य प्रकाशन, मुंबई
मूल्य : 175/-