डॉ० कुमार विमलेन्दु सिंह | Cinema Desk
स्त्री को शक्ति की संज्ञा देकर, निश्चिंत हो चुके मानव समाज को बहुत सी आशाएं होती हैं उससे। हमारे देश में यह एक आश्चर्यजनक सत्य है कि शक्ति का स्वरूप मानी गई स्त्रियों पर ही सबसे अधिक शक्ति प्रयोग किया जाता रहा है और इस अत्याचार से प्रभावित और प्रताड़ित स्त्री जब अपनी सुरक्षा और सुविधा के लिए कोई कदम उठाती है तो इसके फलस्वरूप जो कठिनाई होती है और समस्या होती है, उसके लिए भी स्त्री को ही उत्तरदायी ठहराया जाता है।
परिस्थितियां, एक जाल की भांति स्त्री जीवन को जकड़ती रहती हैं। कुछ इसी तरह का जीवन रहा, हंसा वाडकर का, जो 1940 के दशक में, फ़िल्मी दुनिया का एक विख्यात नाम थीं। अपने संस्मरण उन्होंने, “सांगत्ये ऐका” की किताब में लिखे। 1977 में आई फ़िल्म, “भूमिका”, इन्हीं संस्मरणों पर आधारित थी।
यह एक असाधारण फ़िल्म, इस कारण से थी, क्योंकि, इसमें, ये बहुत सुन्दर से प्रदर्शित किया गया कि स्त्री का मन और उसका स्वभाव, “दान” ही जानता, समझता और करता है, उसकी स्थिति, अवस्था या जगह चाहे कुछ भी हो, हर भूमिका में दान की ही उसका स्वभाव रहा है। फ़िल्म में स्मिता पाटिल (उषा) जब छोटी होती हैं तो उन्हें एक पालतू मुर्गे से लगाव होता है, लेकिन उनकी मां (सुलभा देशपांडे), जो कि एक देवदासी होती हैं, उस मुर्गे को मार कर, अपने गुरू के लिए खाना पकाती हैं, स्मिता पाटिल (उषा) को भी परोसा जाता वही पका हुआ मुर्गा, लेकिन वे खाना छोड़कर भाग जाती हैं।
“ये कोई मामूली सीन नहीं था, इस में पूरे फ़िल्म की कहानी और स्त्री के चरित्र के सौंदर्य को सांकेतिक रूप से दिखाया गया था। स्मिता पाटिल जब छोटी होती हैं, तभी से अमोल पालेकर (केशव दलवी) उसे अजीब दृष्टि से देखते हैं। जब स्मिता पाटिल (उषा) के घर की स्थिति खराब होती है, तो अमोल पालेकर (केशव दलवी), उनकी मदद करता है और मुंबई जाकर, उषा को एक बड़ी हिरोइन बनवाने की कोशिश करता है, सफल भी होता है, लेकिन उसका उद्देश्य अपने हितों को साधना होता है। स्मिता पाटिल (उषा), के साथ अमोल पालेकर (केशव दलवी) विवाह भी करता है और उसके बाद, उसे बहुत प्रताड़ित करता है।”
इन सब से त्रस्त होकर उषा, अनंत नाग (राजन), नसीरुद्दीन शाह(सुनील वर्मा) और अमरीश पुरी (विनायक काले) के संपर्क में आती है, सब अपने हिसाब से, उससे कुछ न कुछ ग्रहण करते हैं लेकिन उसके बदले, उषा को बस बदनामी मिलती है और कुछ अजीब सा कदम उठाकर वो वापस अमोल पालेकर (केशव दलवी) के पास ही चली जाती है। इसका कारण, पीड़ा के चरम के अलावा, और कुछ भी नहीं हो सकता।
इस फ़िल्म का निर्देशन, श्याम बेनेगल ने किया था। श्याम बेनेगल ने सत्यदेव दुबे और गिरीश कर्नाड के साथ मिल कर इस फ़िल्म के संवाद भी लिखे। इस फ़िल्म का संगीत, वनराज भाटिया ने दिया था और मजरूह सुल्तानपुरी और वसंत देव के गीत थे। भानुदास दिवाकर और रमणिक पटेल का संपादन था और सिनेमैटोग्राफ़ी गोविंद निहलानी का था।
ललित बिजलानी और फ़्रेनी वरियावा के द्वारा निर्मित ये फ़िल्म, स्त्री हृदय के विशाल और अथाह स्वरूप को बहुत ही सुन्दर तरीक़े से दिखाती है।
(लेखक जाने-माने साहित्यकार, फ़िल्म समालोचक, स्तंभकार, व शिक्षाविद हैं.)
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