डॉ० कुमार विमलेन्दु सिंह | Cinema Desk
सभी देश, काल और परिस्थितियों में कहानियों का विशेष महत्व रहा है। कहानियां , कई आविष्कारों का आधार रहीं है और कई मान्यताओं की संस्थापक भी। कुछ कहानियां तो ऐसी हैं कि उनकी उम्र के बारे में किसी को नहीं पता।
कब से खरगोश, चाँद पे बैठा है, या कब से मुर्गा हमें सुबह उठाने की कोशिश करता आ रहा है या कब से सूरजमुखी, सूरज के प्रेम में है, इन सवालों का जवाब आज तक किसी को नहीं पता। ये भी नहीं पता कि ऐसा क्या हुआ था कि खरगोश रास्ते में सो गया और कछुआ जीत गया? क्या कछुआ जीत जाने के बाद हमेशा खुश रहा ? क्या फिर खरगोश कभी उस से नहीं मिला ? ऐसे सवाल हमेशा ज़ेहन में आते रहे और इन्हीं कहानियों को, अलग-अलग कलेवर में, कहानीकार परोसते रहे। मराठी नाटककार , एस० जी० सथ्ये ने भी खरगोश और कछुए की इस कहानी को अपने नाटक “ससा अणि कसव” में एक नए अंदाज़ में दिखाया और वहीँ से उठा कर, प्रतिभाशाली फिल्मकार , सई परांजपे ने 1983 में फिल्म बनायी, और फिल्म का नाम था “कथा”।
फिल्म में जो किरदार थे वे खरगोश और कछुए की प्रवृत्ति लिए मनुष्य थे और उनकी यही प्रवृत्तियां उनके जीवन में घटने वाली घटनाओं और उनके भविष्य का निर्धारण करते नज़र आये हैं। नसीरुद्दीन शाह (राजाराम), एक मेहनती और सीधा सादा आदमी होता है, जो एक साधारण नौकरी करता है और अपने पड़ोस में रहने वाली दीप्ति नवल (संध्या सबनीस) से प्रेम तो करता है लेकिन उसे बता नहीं पाता। जीवन एक धीमी गति के साथ और ऐसी ही परिस्थितियों के साथ उस चॉल में चल रही होती है जहां राजाराम और संध्या रहते है।
कोई भी किरदार उस माहौल को बदलने के लिए कुछ नहीं करता है। लेकिन उन सब के मन में एक परिवर्तन की आशा ज़रूर होती है। सब जीवन की एकरसता के आगे सर झुका कर अपनी अपनी ज़िन्दगी जी रहे होते है कि अचानक प्रवेश होता है , बाशु का, जो कि राजाराम का मित्र होता है। वो चॉल में आता है और धीमे से उस माहौल को अचानक से तेज़ कर देता है। अपने और अपनी सफलताओं की झूठी कहानियां सुना कर वो सब का मन मोह लेता है और राजाराम के ही ऑफिस में एक बड़े पद पर नौकरी भी ले लेता है, संध्या भी उसके धोखे में पड़कर उस से प्रेम करने लगती है और उसके माता पिता बाशु से उसकी शादी कराने को भी तैयार हो जाते हैं।
इन सब घटनाओं के बीच, राजाराम का जीवन आंशिक अभिव्यक्ति और कठोर निराशा के बीच डोलती रहती है, लेकिन वो अपनी प्रवृत्ति, यानि कि सहनशील होना, प्रेम करते रहना, नहीं छोड़ पाता, वहीँ दूसरी ओर उसका मित्र बाशु भी अपनी आदतें नहीं छोड़ पाता और ऑफिस के मालिक की ही पत्नी और बेटी दोनों के साथ प्रेम प्रसंग में होता है। एक दिन वो पकड़ा जाता है और ये वही दिन होता है, जिस दिन संध्या के माता पिता शादी के लिए बाशु की प्रतीक्षा कर रहे होते है। बाशु नहीं आता है और इस बात से आहत, संध्या का हाथ राजाराम थामने को तैयार हो जाता है। संध्या इसके बाद बताती है कि बाशु के साथ उसके सम्बन्ध बहुत अंतरंग रहे होते हैं और बहुत हद तक संभव है कि वो गर्भवती भी हो चुकी है, उस से। राजाराम फिर भी उसे अपना लेता है।
फिल्म में राजाराम की लगातार प्रतीक्षा और संयम उसे अपने प्रेम के साथ जोड़ ज़रूर देता है, लेकिन इस प्रश्न के साथ कि इतने प्रतीक्षा और संयम के बाद जो उसे प्राप्त होता है, क्या उसके लिए इतनी तपस्या सही थी? बाशु जब अपनी झूठी कहानियों के बल पर सब कुछ हासिल करता चला जाता है तो यह प्रमाणित भी करता चला जाता है कि प्रशंसा और चापलूसी से किसी को भी जीता जा सकता है और किसी को भी पीछे धकेला जा सकता है। जब बाशु ये दिखाता है कि कंपनी के मालिक की तरह, उसे भी गोल्फ पसंद है तो उसके माध्यम से यह दिखाया जा रहा होता है कि आने वाले समय में, सौंदर्य, वीरता और बुद्धिमत्ता के सारे पर्याय, वही निर्धारित करेंगे जो धनी होंगे और जो श्रम करेंगे इन्हें धनी बनाये रखने के लिए, वे अपने उत्थान के सबसे ऊंचे स्थल पर भी, प्रशंसक मात्र बन पाएंगे।
“फिल्म का निर्देशन सई परांजपे ने किया है और फिल्म का सार्थक संगीत, राजकमल ने दिया है। ये २ घंटे २१ मिनट की एक पूरी फिल्म है। सई परांजपे की 1980 में आयी फिल्म को रिलीज़ करने में, बासु चटर्जी ने देरी कर दी थी, जिस से सई नाराज़ थीं। इसीलिए, इस फिल्म में उन्होंने फ़ारुक़ शेख का नाम बाशु रखा था, जो कि एक निगेटिव किरदार था।”
खरगोश और कछुए का वही पुराना क़िस्सा, एक नए अंदाज़ में, हमारे लिए कई सवाल, कुछ जवाब और ढेर सारा मनोरंजन लेकर “कथा” के रूप में सामने आया और जब भी भारत में, बेहतरीन फिल्मों की बात होगी, इस फिल्म की भी बात ज़रूर होगी।
(लेखक जाने-माने साहित्यकार, फ़िल्म समालोचक, स्तंभकार, व शिक्षाविद हैं.)
देखें फ़िल्म–