डॉ० कुमार विमलेन्दु सिंह | Cinema Desk
1973 में, स्वीडेन की मीडिया ने, एक बैंक डकैती के बारे में लिखते हुए, “स्टॉकहोल्म सिन्ड्रोम”,इस संज्ञा का प्रयोग, एक मानसिक स्थिति को दर्शाने के लिए किया। घटना ये थी, कि बैंक में डकैती के दौरान अपराधियों ने, चार लोगों को बंधक बना लिया था और जब छूटने के बाद बंधकों से अपराधियों को दंड दिलवाने की बात की गई, तो एक आश्चर्यजनक बात हुई। बंधकों ने न केवल अपराधियों को पहचानने से मना कर दिया, सहानुभूति भी जताई उनके लिए। ये मानसिक स्थिति जहाँ प्रताड़ित, प्रताड़ना देने वाले का समर्थन करने लगे, बहुत भयावह है और पूर्ण आत्मसमर्पण है शोषित या प्रताड़ित का।
ठीक ऐसी ही मानसिक स्थिति के फलस्वरूप, उपनिवेशवाद का शिकार हुए देश और वहां की शासित जनता, शासकों के प्रत्ययों को, जैसे कि वीरता, सौन्दर्य आदि को ही प्रशंसनीय मानने लगती है। शासित, शासक जैसा बनना चाहता है और उसका अनुकरण करने लगता है। ऐसा ही मनोवैज्ञानिक चित्रण, शासितों का, 1985 में आई फ़िल्म, “मैस्सी साहिब” में किया गया।
फ़िल्म के मुख्य कलाकार, रघुबीर यादव (मैस्सी साहिब) होते हैं, जो धर्म परिवर्तन कर के इसाई बन गए होते हैं। स्वतंत्रता के पहले और बाद, जितने धर्मांतरण हुए, सब के पीछे, जो मुख्य मनोवैज्ञानिक तथ्य था, वो था, शासकों के बीच गिने जा सकने की लालसा, अतः जो वर्ग जितना अधिक दमन झेल चुका था और जितना दूर था अपने सांस्कृतिक परिचय से, वो उतना ही जल्दी परिवर्तित हुआ।
रघुबीर यादव (मैस्सी साहिब) के साथ भी ऐसा ही हुआ, वे स्वयं को शासकों का प्रतिनिधि समझने लगे और सैला (अरूंधति रॉय) से चर्च में शादी भी की, सैला का भाई वीरेन्द्र सक्सेना (पासा), इस शादी का गवाह भी बना। रघुबीर यादव (मैस्सी साहिब), चार्ल्स ऐडम्स (बैरी जॉन) के कार्यालय में क्लर्क होते हैं और चार्ल्स डिस्ट्रिक्ट कलेक्टर। चार्ल्स ऐडम्स (बैरी जॉन), सड़क बनाना चाहते हैं लेकिन पैसों की कमी होती है, इस स्थिति में रघुबीर यादव (मैस्सी साहिब) युक्ति लगाते हैं और ग्रामीणों को कभी डरा कर, कभी किसी अलग तरीके से, ये काम करवा लेते हैं। बाद में जब इसकी जांच होती है, तो रघुबीर यादव (मैस्सी साहिब) फंस जाते हैं और चार्ल्स ऐडम्स (बैरी जॉन), जिनके लिए उन्होंने, सारा श्रम किया होता है, पल्ला झाड़ लेते हैं। रघुबीर यादव (मैस्सी साहिब), विषम परिस्थितियों का सामना करते हुए, हत्या के आरोप में फंस जाते हैं और कुछ समय बाद, दुखद अंत के भागी बनते हैं।
फ़िल्म का निर्देशन, प्रदीप कृशन ने किया और NFDC ने इसका निर्माण किया। यह फ़िल्म, जोइस कैरी के उपन्यास, “मिस्टर जॉनसन” पर आधारित थी। सिनेमैटोग्राफ़ी, आर०के०बोस का था और संगीत वनराज भाटिया ने दिया था।
“इस फ़िल्म को कई पुरस्कार मिले और रघुबीर यादव को भी। इनकी खूब प्रशंसा हुई। इनके पहले, सिद्धार्थ बसु को इस रोल के लिए चुना गया था, लेकिन नियति ने यह रघुबीर यादव के लिए ही रखा था।”
किन परिस्थितियों में एक व्यक्ति, जो शासित है, अपना सब छोड़ एक नए परिवेश से तुरंत जुड़ जाता है, किस मानसिकता के प्रभाव में, वह अपने शासक का ही अनुकरण करने लगता है, ऐसे प्रश्नों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करती है ये फ़िल्म और बताती है कि अपना सब छोड़ कर, सब नया ले लेने से भी कोई दूसरे वांछित वर्ग में, पूर्णतया स्वीकार्य नहीं हो सकता। ये विश्लेषण, बहुत सारे धर्मों के प्रसार युग का इतिहास भी समझाता है। अरूंधति रॉय के अलावा सभी का अभिनय अद्भुत है। अरूंधति रॉय ने इस फ़िल्म के बाद मैन बूकर प्राईज़ जीत कर, अलग विधा में अपना सामर्थ्य दिखाया। ये फ़िल्म हमेशा याद रखी जाएगी।
(लेखक जाने-माने साहित्यकार, फ़िल्म समालोचक, स्तंभकार, व शिक्षाविद हैं.)
देखें फ़िल्म का प्रोमो-