यात्रावृत्त- छप्पन भोग

डॉ. जितेंद्र पाण्डेय,

अपने-अपने कमरों से निकलकर लोग निर्धारित जगह पर इकट्ठा होने लगे। प्रशासन का बैंड पथक भी धीरे-धीरे सक्रिय हो रहा था। उत्सवी रंग में रंगे लगभग दो सौ लोग मंदिर की परिक्रमा के लिए तैयार थे। कुछ लोग सामान्य कपड़ों में थे, तो कुछ अवसर विशेष के नाते पारंपरिक परिधान में सजे-संवरे। दर्प, मस्ती, आस्था और भक्ति में डूबे लोग बैंड की मधुर संगीत पर थिरकने लगे। अधिकांश लोग अपने दोनों हाथ ऊपर उठाए थे। बिलकुल प्रणाम वाली मुद्रा। क्षण विशेष को अपने-अपने मोबाइल में कैद करने की ज़द्दोज़हद हो रही थी।

“कितना रोमांचक है नज़ारा ! जिन हाथों को श्रद्धा और भक्ति में जुड़े रहना चाहिए, वक़्त ने उन्हीं हाथों में मोबाइल पकड़ा दिया। है न सर ?” कंधे पर हाथ रखते हुए मेरे एक साथी ने कान में जोर से चिल्लाया। “हूं” रुमाल से पसीना पोछते हुए मैंने प्रतिक्रिया दी। इस समय तकनीकी-चर्चा उचित नहीं लगी। मन आस्थामय हो चला था, परिक्रमा के दौरान रह-रहकर “छप्पन भोग” का काल्पनिक बिंब मन में उभरने लगा, उभरे भी न क्यों ? “छप्पन भोग” का  श्रीनाथजी से पुराना नाता जो ठहरा! माना जाता है कि छप्पन भोग  की विधिवत शुरुआत 1615 संवत् में मार्गशीष शुक्ल पूर्णिमा के दिन गोवर्धनधारक श्रीनाथजी को समर्पित करके हुई। इसके अलावा कई रोचक कथाएं भी 56 भोग से जुड़ी हैं। एक कथा के अनुसार, मां यशोदा भगवान कृष्ण को आठों प्रहर भोजन करवाती थीं। ब्रजवासियों को इंद्र के प्रकोप से बचाने के लिए भगवान ने एक सप्ताह तक गोवर्धन पर्वत को अपनी उंगली पर उठाए रखा। इस अवधि में प्रभु ने अन्न का एक दाना भी नहीं लिया। घनघोर वर्षा थम जाने के बाद कृष्ण ने गोवर्धन को यथास्थान रख दिया। सात दिनों तक कान्हा को भूखा रहने की सर्वाधिक पीड़ा मां यशोदा को हुई। ब्रज वासियों ने भी अपनी अनन्य भक्ति का परिचय दिया। मां यशोदा सहित पूरे ब्रजमंडल ने एक सप्ताह की भरपाई करने की ठान ली। अतः आठ प्रहर के हिसाब से सात दिनों के लिए कुल (8×7=56) छप्पन प्रकार के व्यंजन तैयार किए गए – 1. भक्त (भात), 2. सूप (दाल), 3. प्रलेह (चटनी), 4. सदिका (कढ़ी), 5. दधिशाकजा ( दही-शाक की कढ़ी), 6. सिखरिणी (सिखरन), 7. अवलेह (शरबत), 8. बालका (बाटी), 9. इक्षु खेरिणी (मुरब्बा), 10. त्रिकोण (शर्करायुक्त), 11. बटक (वड़ा), 12. मधु शीर्षक (मठरी), 13. फेणिका (फेनी), 14. परिष्टाश्च (पूरी), 15. शतपत्र (खजला), 16. सधिद्रक (घेवर), 17. चक्राम (मालपुआ), 18. चिल्डिका (चोला), 19. सुधाकुण्डलिका (जलेबी), 20. धृतपूर (मेसू), 21. वायुपूर (रसगुल्ला), 22. चन्द्रकला (पगी हुई), 23. दधि (महारायता), 24. स्थूली (थूली), 25. कर्पूरनाड़ी (लौंगपूरी), 26. खंड मंडल (खुरमा), 27. गोधूम (दलिया), 28. परिखा, 29. सुफलाढ्या (सौँफयुक्त), 30. दधिरूप (बिलसारू), 31. मोदक(लड्डू), 32. शाक (साग), 33. सौधान (अधानौ अचार), 34. मंडका (मोठ), 35. पायस (खीर), 36. दधि (दही), 37. गोघृत, 38. हैयंगपीनम (मक्खन), 39. मंडूरी (मलाई), 40. कूपिका (रबड़ी), 41. पर्पट (पापड़), 42. शक्तिका (सीरा), 43.  लसिका (लस्सी), 44. सुवत, 45. संघाय (मोहन), 46. सुफल (सुपारी), 47. सिता (इलायची), 48. फल, 49. ताम्बूल, 50. मोहन भोग, 51. लवण, 52. कषाय, 53. मधुर, 54. तिक्त, 55. कटु और 56. अम्ल। भगवान कृष्ण ने भी छककर इन व्यंजनों का भोग लगाया।

दूसरी मान्यता के अनुसार, श्री भगवान का आसन कमल पर है। कमल की तीन परतें हैं। पहली परत में आठ, दूसरी में सोलह और तीसरी परत में बत्तीस पंखुड़ियां होती हैं। इस प्रकार इनका भी  योग (8+16+32=56) छप्पन है, जिनकी छप्पन भोग से साम्यता है। एक अन्य कथा में राजसूय यज्ञ के बाद द्वारिकाधीश भगवान श्रीकृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न दिग्विजयी होने के लिए बड़ी यात्रा पर निकले थे। इसी दौरान उनकी मुलाकात परशुराम से हुई। प्रद्युम्न की विनयशीलता से परशुराम काफी प्रभावित हुए। अतः उन्होंने भी छप्पन भोग अर्पित किया था। पुष्टिमार्गीय सिद्धांत चौरासी लाख योनियों में विश्वास करता है। उनका मानना है कि इन योनियों में मनुष्य-योनि कर्म प्रधान है। यदि इस योनि को चौरासी लाख योनियों में से घटा दें, तो शेष 8399999 लाख बचेंगी। इन अंकों का योग भी छप्पन (8+3+9+9+9+9+9=56) है। इसलिए इन योनियों के कर्म फल (जीवन-मरण का चक्र) से मुक्ति के लिए प्रतीकात्मक रूप में कृष्ण को छप्पन भोग अर्पित करने का विधान है।

पाकशास्त्र के अनुसार रसोइयां छह प्रकार के रस (कटु, तिक्त, कषाय, अम्ल, लवण और मधुर) से नाना प्रकार के व्यंजन तैयार कर सकता है। भोजन बनाते समय यदि इन रसों का विवेकपूर्ण इस्तेमाल किया जाए, तो तैयार व्यंजन जायकेदार और स्वास्थ्यप्रद होगा, साथ ही भोजन में गुणवत्ता इतनी उम्दा होगी कि त्रिदोष (वात, पित्त और कफ) खुद-ब-खुद संतुलित हो जाएगा। पाकशास्त्र की सभी नियमावलियों को ध्यान में रखते हुए ‘छप्पन भोग’ तैयार किया जाता है। वैज्ञानिक दृष्टि से भी भगवान को अर्पित भोग भक्तों के लिए अमृत तुल्य होता है।

हमारी परिक्रमा कब की पूरी हो चुकी थी। अगले ही पल हम श्रीनाथजी के गर्भगृह में खड़े थे। मंदिर को ‘श्रीनाथजी की हवेली’ के नाम से भी जाना जाता है। आँखें विग्रह पर ठहर गईं। गोवर्धन उठाने के समय की भंगिमा। बायां हाथ ऊपर और दाहिना कमर पर, आराम की मुद्रा में। इन्हें देवदमन भी कहा जाता है। ‘गर्गसंहिता’ के गिरिजाखंड में लिखा है – “श्रीनाथं देवदमनं वदिष्यन्ति सज्जनाः।” भक्तों के लिए श्रीनाथजी के आठ दर्शन (मंगला, श्रृंगार, ग्वाल, राजभोग, उथापन, भोग, संध्या और शयन) प्रतिदिन सुलभ हैं। नाथद्वारा पुष्टिमार्गीय वैष्णव सम्प्रदाय की प्रधान पीठ है। इस सम्प्रदाय के अन्य मंदिर पाकिस्तान, रूस (वोल्गा), न्यू हवेल, न्यू जर्सी, फोनिक्स, अरिजोना, फ्लोरिडा, कैलिफोर्निया आदि देशों में भी है। नाथद्वारा राजस्थान राज्य के राजसमंद जिला में स्थित है। यह उदयपुर से 48 किलोमीटर दूर उत्तर पूर्व में है।

श्रीनाथजी के वर्तमान विग्रह का प्राकट्य गोवर्धन पर्वत पर हुआ था। सदू पांडे की हजार गायों में से एक गाय नंदराय जी के गोवंश की थी। धूमर नाम की यह गाय प्रतिदिन अपराह्न में गोवर्धन पर्वत पर जाती थी। वहां एक स्थान पर खड़ी हो जाती और उसके थनों से दूध की धारा झरने लगती। गाय का पीछा करने पर सदू पांडे के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। उन्हीं दिनों बल्लभाचार्य छत्तीसगढ़ के चंपारण में अपनी यात्रा पर थे। उन्हें एक अलौकिक प्रेरणा मिली। यात्रा की दिशा बदलकर वे आन्योर गांव आ गए, जहां सदू सपरिवार रहता था। बल्लभाचार्य उसे लेकर गोवर्धन पर्वत पर गए। वहां उन्हें पहली बार श्रीनाथजी के मुखारविंद का दर्शन मिला। पास के मंदिर में ही उन्होंने विग्रह की स्थापना करवाई। हिंदी के भक्तिकालीन ‘अष्टछाप’ कवियों का संबंध यहीं से था। कुम्भनदास श्रीनाथजी के चरणों में बैठकर संगीत-साधना करते थे। कृष्णदास प्रबन्धन में एक अधिकारी थे। सूरदास के अधिकांश पद श्रीनाथजी के सानिघ्य में लिखे गए। सूर की काव्य-ख्याति यहीं से फैली। अकबर की बेगम श्रीनाथजी की परम भक्त थीं। वे प्रतिदिन मंदिर के पूजा-अर्चना में शामिल होती थीं। दुर्भाग्य की बात यह थी कि अकबर के ही वंशज औरंगजेब के कारण श्रीनाथजी गोवर्धन छोड़ने के लिए विवश हो गए। बल्लभाचार्य-कुल के विट्ठलदासजी उन्हें रथ में बिठाकर सपरिवार नाथद्वारा ले आए। यहां तक आने में चार वर्ष लग गए थे। यह समय विट्ठलदासजी और उनके परिवार के लिए काफी संघर्षपूर्ण था।

इसी बीच श्रीनाथजी का जयघोष करता हुआ भीड़ का एक रेला आया और एक झटके में मैं गर्भगृह के बाहर। घूम-घूमकर देखने लगा वहां का दूधघर, गहनाघर, पानघर, मिश्रीघर, पेड़ाघर, फूलघर, रसोईघर, खर्चाभंडार, अश्वशाला, बैठक ….। एकदम हवेली जैसी बनावट है इस मंदिर की। इसी बीच भाई राकेश कुमार, रोहित और संतोष आते दिखाई दिए।

“आप यहां घूम रहे हैं ? छप्पन भोग में जाना नहीं है क्या ? उत्साह ज़ाहिर करते हुए संतोष ने एक साथ कई प्रश्न दाग दिए। “ओह ! तो छप्पन भोग की प्रक्रिया शुरू हो गई ? सूचना देने के लिए आप तीनों का आभार है भाई” कहते हुए मैंने स्वयं को उस स्थान की तरफ धकेला जहां सबको इकट्ठा होने के लिए कहा गया था।

“रुकिए…..रुकिए……।” रोहित ने जोर देकर चिल्लाया। “जी……..कहिए।” अपने को नियंत्रित करते हुए मैंने झुंझलाकर पूछा। “आप तो बंडी ही नहीं पहने हो?” मुस्कुराते हुए रोहित ने कहा।
” बंडी…….?”
” हाँ……. बंडी। बिना इसे पहने आप छप्पन भोग में भाग नहीं ले सकते।” मेरे उत्साह पर ठंडा पानी उलीचते हुए राकेश जी ने सही जानकारी मुहैया करा दी। “प्रयास करने में क्या जाता ?” मन को समझाते हुए आगे बढ़ गया। सामने नयनाभिराम दृश्य था। पुरुष बंडी (छप्पन भोग के लिए वस्त्र-विशेष) और स्त्रियां साड़ी पहने छप्पन भोग ढोने में व्यस्त। राजेश भाटिया अपने परिवार और सगे-संबंधियों के साथ कंधे पर मिष्ठानों की टोकरी रखे तेजी से आ-जा रहे थे, साथ ही व्यवस्थापकों को ज़रूरी हिदायतें देना नहीं भूलते, इतना बड़ा आयोजन जो इनके सौजन्य से था। अपने सिर  और कन्धों पर टोकरी रख, लोग स्वयं को धन्य समझ रहे थे। किसी के टोकरी से पूरी बाहर गिर पड़ती तो किसी का घी से बना बड़ा लड्डू। एक दूसरे को सम्भालते और आगे बढ़ते रहते। पूरा वातावरण फूलों की खुशबू और छप्पन भोग से मह-मह कर रहा था। ब्रजभूमि जैसा एहसास। समृद्धि और  ऐश्वर्य का साम्राज्य। दरिद्रता का नामोनिशान नहीं। लगता था नंदबाबा का महल साकार और सवाक् हो उठा है। दूसरे ही क्षण मन आधुनिक नंद बाबाओं पर केंद्रित होने लगा। इनके शीश महल शस्य श्यामला धरती की उर्वरता को लगातार अपनी ओर खींच रहे हैं। भूमि के पालक – ‘जवान और किसान’ लाचार। हाय ! बावरा मन भी किन चीजों का रोना लेकर बैठ गया ! इधर भोग की प्रक्रिया अंतिम दौर में थी। चारों ओर चहल-पहल, मुड़कर पीछे देखा तो एक वयोवृद्ध पुजारी, प्रौढ़ दम्पत्ति को ज्योतिष का ज्ञान पिला रहे थे। श्रद्धावनत युगल मूर्ति के पास बैठा इनका सत्रह वर्षीय पढ़ाकू बेटा एक किताब से जूझ रहा था। बीच-बीच में चेहरा उठाकर पुजारी को देखता जाता। पूरी यात्रा के दौरान इसकी नज़रें एक अंग्रेजी उपन्यास में गड़ी रहीं। बचपन से “किताबी कीड़ा” वाला मुहावरा पढ़ता और सुनता आ रहा हूँ, आज देख भी लिया।

कमरे में आराम करने के लिए मैं मंदिर परिसर से बाहर आ गया। गली में दुकानें पिछवायियों और पेंटिंग्स से भरी पड़ीं थीं। फुटपाथ पर गुप्ती, चाकू व मध्यम आकार के कटार खुलेआम बिक रहे थे। शाम में मंदिर का प्रसाद ठेलों पर सज जाता। असली घी के ये प्रसाद निहायत कम दामों में खरीदे जा सकते हैं। सुबह-सुबह खोमचों पर बनती हरबलयुक्त कांटेदार चाय बेहद जायकेदार लगती। यहां के लोग इसे पीकर अपनी दिनचर्या में लग जाते। व्यस्त और मस्त। कमरे तक आते-आते मैं थक गया था। बिस्तर पर पड़ते ही आँखें बंद होने लगीं। साथ ही अवचेतन मन में कुछ मटमैली आकृतियां उभरने लगीं। वे अपने सिरों पर टोकरियाँ रखे बड़ी तेजी से मेरी तरफ बढ़ रही थीं। वही मंदिर वाला दृश्य, किंतु धुंधला-धुंधला सा। दूसरे ही पल चीजें साफ-साफ दिखाई देने लगीं। अरे ! यह क्या ? ये लोग तो धूल-मिट्टी से सने नर-कंकाल हैं। टोकरियों में छप्पन भोग नहीं , ईंट और पत्थर हैं। इन्होंने मुझे चारों ओर से घेर रखा था। इनका सम्मिलित रुदन मुझे डराने लगा। मैं भागना चाहता था, दूर…..बहुत दूर।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.