एक गुलशन था जलवानुमां इस जगह- यात्रा संस्मरण

JitendraPandey@Navpravah.com

उस ऐतिहासिक खंडहर का परिसर पर्यटकों की सरगर्मी से पुनः जीवंत होने लगा।शांति बनाए रखने और मोबाइल बंद रखने के निर्देश जारी हो गए।इसी गहमा-गहमी  में जगजीत सिंह की मखमली आवाज़ उभरने लगी -” एक गुलशन था जलवानुमां इस जगह , रंग-ओ-बू जिसकी दुनिया में मशहूर थी।बेगमों की हंसी गूंजती थी यही , शाह की शानोशौकत में भरपूर थी।”साथ ही रंगीन प्रकाश-पुंज के साथ-साथ महानायक अमिताभ बच्चन का गम्भीर घोष उभरने लगा। अद्भुत कमेंट्री , संगीत , संवाद और प्रकाश के समवेत मिश्रण में गोलकुण्डा का इतिहास उतरने लगा।सोते हुए इतिहास का स्रोत रिस-रिस कर टलमल कर रहा था।तारों से भरे आकाश के नीचे सदियां बोल रही थीं।ध्वनि और प्रकाश के सम्मिलित प्रभाव से हम जान पाए कि चार मील के दायरे में फैले गोलकुण्डा फोर्ट की गाथा सन् 1364 से शुरू होती है।आठ द्वारों और 87 बुर्जों से सुसज्जित यह किला ऊँची-ऊँची चारदीवारियों  से घिरा है।मूसी नदी के किनारे बसा यह दुर्ग ग्रेनाइट पहाड़ी के तीन परकोटों पर बना है। शुरूआती दौर में यह वारंगल के काकतिया और देवगिरि के यादव वंश के अधीन रहा ।इस काल में भारतीय शिल्पकारी अपने वैभव पर थी।किले के भित्तियों पर कमल, पुष्प , पत्र , कलियां स्वस्तिकार स्तम्भ शीर्ष आदि विशिष्ट चिह्न बने हैं। ध्वनि-प्रसारक तकनीकी का बेजोड़ उदाहरण यहां देखने को मिलता है।मुख्य द्वार के निकट बने एक गुम्बद के नीचे से  जब ताली बजाई जाती है तो यह 400 मीटर ऊपर बने दरबार तक सुनाई देती है।सम्भवतः यह तकनीकी सुरक्षा की दृष्टि से विकसित की गई होगी।

1518 के आसपास कुतुबशाही शासक अस्तित्त्व में आए।सुलतान कुतुबशाह ने किले का विस्तार करना शुरू किया।कुतुबशाही वास्तु शैली में अनेकों निर्माण कराए गए।तारामती , प्रेमामती , हयात बख्शी बेग़म और भागमती के महल भी यहीं हैं।अनेक मधुर और रोमांटिक प्रेम कथाओं का सम्बन्ध इन्हीं महलों से था।इनके अलावा शाही महल ,सभागार , बारूदखाना , शाहीहरम के खंडहर तथा बाटिकाओं , बीथियों और जलाशयों का वैभवशाली रूप चारों ओर बिखरा है। क़ुतुबशाही की प्रारम्भिक राजधानी गोलकुण्डा हीरों का विश्व बाज़ार- थी।मुसलीपट्टम यहां का विश्व प्रसिद्ध बन्दरगाह है।नृत्य , संगीत , कला और साहित्य का यह स्वर्णिम काल था।हैदराबाद का संस्थापक मुहम्मद कुली उर्दू कविता का आदि कवि था।उसे उर्दू कविता के जन्मदाता के रूप में जाना जाता है।राजदरबार में उर्दू साहित्य के पनपने और विकसित होने की उर्वर जमीन भी उसी ने  मुहैया कराई थी।28 जनवरी 1627 ई. के एक छद्म युद्ध में औरंगज़ेब ने इस किले को जीत लिया।एक बार फिर एक भरी-पूरी संस्कृति को  मटियामेट करने की क्रूर कोशिशे हुईं। गोलकुण्डा फोर्ट मुगलों के अधीन आ गया।लगभग एक शताब्दी बाद हिन्दू राजा शिवाजी ने बीजापुर और गोलकुण्डा की सल्तनत में अपना हस्तक्षेप करना शुरू कर दिया।महाकवि भूषण ने शिवाजी की ऐसी कोशिशों के बारे में लिखा है – ” बीजापुर, गोलकुण्डा आगरा दिल्ली कोट । बाजे-बाजे रोज़ दरवाजे उधरत है।”टूरिस्ट गाइड ने हमे बताया कि गोलकुण्डा का कोहिनूर हीरा ब्रिटेन की राजशाही मुकुट का शान था ।

इसी तरह लगभग डेढ़ घण्टे तक हम गोलकुण्डा के प्रांगण में बैठे इतिहास के वैभव और पतन के महानद में डूबते- उतराते रहे।हम अपनी – अपनी थकान भूल तरोताज़ा महसूस कर रहे थे। हमारी सहयात्री श्रीमती संध्या पिसाल ने कहा ” इतनी लम्बी यात्रा तय करने के बाद मैं तो भूल ही गई कि हम थके भी हैं।गोलकुण्डा के इतिहास की इतनी खूबसूरत प्रस्तुति नायाब थी।” आज ही हम दोपहर एक बजे  शताब्दी एक्सप्रेस से सिकन्दराबाद उतरे थे।हमारी इस यात्रा का जिम्मा “ऐडवेंचर ग्रुप” को सौंपा गया था।लगभग तीन बजे हम मानसरोवर चार सितारा होटल में पहुंचे।जल्दी-जल्दी तैयार होकर हम गोलकुण्डा फोर्ट की तरफ बढ़ चले।यहां आकर हम तृप्त थे क्योंकि भारतीय इतिहास के एक वृहद कालखण्ड को नज़दीक से देख पाए थे।

दूसरे दिन सुबह तकरीबन दस बजे हम रामोजी फिल्म सिटी पहुंचे।टिकट आदि औपचारिकता के बाद 2000 एकड़ में फैले इस विस्तृत भूखण्ड में हमने विधिवत प्रवेश किया।अंदर, बस से उतरने के  बाद पता चला कि शोज़ शुरू होने वाले हैं।झटपट  थिएटर में आ विराजे । ‘रामोजी फ़िल्म सिटी’ के मालिक रामोजी राव के परिचय से शो शुरू हुआ ।इसमें फ़िल्म-निर्माण से सम्बंधित उन सभी चीजों पर प्रकाश डाला गया जिसके विषय में आमतौर पर लोगों में कौतूहल बना रहता है।बतौर डेमो हमारी एक साथी  श्रीमती शमशाद पठान को बसंती के रोल में प्रस्तुत किया गया।इन्हें एक बग्घी में बिठाकर नेपथ्य में एक आदमी से बग्घी को हिलाने के लिए कहा गया।बाद में विकसित तकनीकी की सहायता से डाकुओं के डर से बग्घी पर सवार बसंती (जो कि श्रीमती शमशाद स्वयं थीं) को भागते हुए दिखाया गया जो दर्शकों को बिल्कुल वास्तविक लगा।इसी तरह फ़िल्म- निर्माण से सम्बंधित कई बारीकियों को अलग-अलग सभागृहों में बिठाकर समझाया गया।

भरपूर मनोरंजन से सुसज्जित रामोजी फ़िल्म सिटी की हैसियत विश्व-स्तर की है।यहां 20 विदेशी और 40 देशी फिल्मों का निर्माण एक साथ हो सकता है।मशहूर फिल्म निर्माता और मीडिया बैरॉन रामोजी राव ने 1996 में इसकी नींव रखी थी।हिंदी , मलयालम , तेलुगु , तमिल , कन्नड़ , मराठी , बांग्ला आदि भाषाओँ में सौ से अधिक फिल्मों का निर्माण यहां हो चुका है।फिल्म निर्माण उपकरण , ऑडियो प्रोडक्शन , फिल्म प्रोसेसिंग , कॉस्ट्यूम डिज़ाइन लोकेशन जैसे कई प्रभागों  में बंटी यह फिल्म सिटी अपनी खूबसूरती में बेजोड़ है।हैदराबाद आने वाले पर्यटकों के लिए रामोजी फिल्म सिटी आकर्षण का एक कारण भी है।खुले- लाल रथनुमा कोच में गाइड उसी स्टूडियो में  दुनिया की सैर कराते हैं। जापानी गार्डेन , ईटीवी प्लेनेट , ताल , कृत्रिम जलप्रपात , हवाई अड्डा , अस्पताल , रेलवे स्टेशन , चर्च , मंदिर . शॉपिंग काम्प्लेक्स आदि से रू-बरू कराता  हुआ हमारा गाइड चुटीली भाषा में मनोरंजन भी कर रहा था। हैदराबादी तहज़ीब समेटे स्टूडियो का एक-एक लोकेशन दिखाता हुआ उसे किसी न किसी फिल्म से लिंक कर देता।फिल्मी- ज्ञान से लवरेज़ हम “हुसैन सागर लेक” की तरफ बढ़े।

हुसैन सागर झील हैदराबाद और सिकन्दराबाद के मध्य स्थित है।छोटी-छोटी जल-तरंगों पर पड़ते हज़ारों प्रकाश-वृत्त गोधूलि की बेला से भोर होने तक झिलमिल-झिलमिल करते रहते हैं।शाम होते ही सैलानी क्रूज़ पर सवार हो इस विहंगम दृश्य को सहेज लेना चाहते हैं।हम भी एक क्रूज़ पर सवार हुए।मनोरंजन के सभी साधनों से यह सुसज्जित था।धीरे-धीरे डीजे का कानफोड़ू संगीत शुरू हुआ।साथ ही छह नवयुवक और नवयुवतियों का एक समूह क्रूज़ के एक छोटे से स्टेज पर प्रकट हुआ।वे पूरी स्टैमिना से फिल्मों के अद्यतन गीतों पर नाचने लगे।न मेकअप न ही कोई विशेष कॉस्ट्यूम।पसीने से  तर-बतर।अपने कर्म को तरज़ीह देते ये कलाकर अति साधारण कपड़ों में कुछ थके से नज़र आए।सम्भवतः उस दिन की अपनी ड्यूटी के अंतिम दौर में हों।जल्दी ही उस नृत्य और संगीत से अपने को अलग कर मैं क्रूज़ के पिछले हिस्से में आ गया।नज़रें झील पर तैरते दर्ज़नों क्रूजों पर पड़ीं।कमोबेश सभी  पर डीजे की संगीत बज रहा था और सैलानी अविराम थिरक रहे थे।हम झील के बीचों बीच स्थापित महात्मा बुद्ध की प्रतिमा से गुज़र रहे थे।प्रतिमा पर तीन रंगों में गिरता प्रकाश बुद्ध की शांति को मुखर कर रहा था।कोई खलल नहीं। 18 मीटर ऊँची यह प्रतिमा रॉक ऑफ गिब्राल्टर पर स्थापित है।कहा जाता है कि 350 टन की इस मूर्ति को यहां तक लाते समय नाव पलट गई ।बाद में तकनीकी सहयोग से इसे सन् 1992 में स्थापित किया जा सका।धीरे-धीरे क्रूज़ किनारे लगी।लुम्बिनी पार्क में संगीतमय फव्वारों को देखते हुए हम अपनी बस की तरफ बढ़े।

रास्ते में रात्रि -भोजन के मेनू की चर्चा करते हुए मांड्रे जी ने बताया कि हैदराबादी बिरयानी और पुलाव यहां का शाही व्यंजन है।लज़ीज़ इतना कि बस उंगलियां चाटते रहें।मांसाहारी लोग शाही कबाब , दम का मुर्ग , मुर्ग , मेथी और शाही कोरमा सर्वाधिक पसंद करते हैं जबकि शाकाहारी पर्यटक मिर्ची का सालन , बघारे बैगन और शाही दही बड़े चाव से खाते हैं।भोजन के बाद मीठे में शाही कोरमा , खीर , फिरनी या कबाबी  मीठा परोसा जाता है।यहां आने वाले सैलानी बेकरी के उत्पाद जरूर अपने साथ ले जाते हैं।मांड्रे साहब की आंखों की चमक साफ-साफ बता रही थी कि आज के डिनर में ये सभी व्यंजन अवश्य होंगे।

अगले दिन सुबह हम सालारजंग म्यूज़ियम देखने गए।इस म्यूज़ियम में स्त्री की वह मूर्ति सबके आकर्षण का केंद्र बनी । चेहरे पर पड़ा झीना घूंघट वास्तविक लगता था।प्रतिमा को बड़ी बारीकी से तराशा गया था।बताया गया इसे रोम से मंगाया गया है।दो मंजिला इस इमारत में देश-विदेश से एकत्रित 30 हज़ार से अधिक कलाकृतियां संग्रहीत हैं।निज़ाम के प्रधानमंत्री सालारजंग के शौक को जानकर आश्चर्य होता है कि एक अकेला व्यक्ति मूर्तियों , चित्रों , परिधानों , पांडुलिपियों , हथियारों आदि का इतनी प्रचुर मात्रा में कैसे संग्रह कर सकता है ? हमारे पहुंचने के तुरन्त बाद “क्लॉक शो” शुरू हुआ किन्तु समयाभाव के कारण हम खरीददारी की तरफ बढ़ गए।शॉपिंग के शौकीनों के लिए पर्ल सिटी (हैदराबाद) बिलकुल माकूल जगह है।वस्त्र , आभूषण तथा हस्तशिल्प (बीदर आर्ट , निर्मल आर्ट इत्यादि) की विविधता लोगों को आकर्षित करती है।हैदराबादी ढंग से बनी माला , नथ , टीका , लाचा , कर्णफूल , बाजूबन्द स्त्रियों की पसन्द हैं।इनके अलावा वेंकटगिरि , पोचम्पल्लि , धर्मावरम सिल्क और जामदानी साड़ियों की अनेक किस्में यहां के बाज़ार में भरी पड़ी हैं।

हमने अपनी शॉपिंग सालारजंग म्यूज़ियम के पास ही की।बाद में पता चला कि लाड बाज़ार , सुल्तान बाज़ार , नामपल्ली, बशीर बाग और आबिद एरिया ऐसे व्यावसायिक हब हैं जहां हर वस्तुओं के अनेकों विकल्प आसानी से मिलते हैं।

उसी दिन हम देश का सबसे बड़ा चिड़ियाघर ” नेहरू प्राणी उद्यान” पहुंचे।मुख्य द्वार पर ही हमें वहां के एक ऑफिसर से उलझना पड़ा ।वह सभी पर्यटकों और ट्वायकार्ट चालकों से बदसलूकी कर रहा था।किसी प्रकार हमें एक ट्वायकार्ट मिली।चालक ने उस ऑफिसर की ज़्यादती पर रोष व्यक्त करते हुए बताया-“इसने सबके नाक में दम कर रखा है।अगर आप लोग इसकी शिकायत बड़े अधिकारी से करें तो शायद सुना जाय।” लगे हाथ हम इस पुण्य काम को अंजाम देते हुए आगे बढ़ गए।इस चिड़ियाघर में दुर्लभ प्रजाति के जानवर और पक्षी मौजूद हैं।ऐडवेंचर ग्रुप के टीम लीडर और हमारी यात्रा के प्रबन्धक यूसुफ़ भाई बड़े चाव से एक-एक जानवर का परिचय करवा रहे थे।उनका जैवकीय ज्ञान क़ाबिले तारीफ था।इन्हीं की अनुकम्पा से हमारी यात्रा आरामदेह व सुरक्षित थी।नाना प्रकार के देशी-विदेशी जानवरों को देखते हुए हम आगे बढ़ रहे थे।मन में ख्याल आया – “मनुष्य ईश्वर की सर्वोत्तम रचना है।मनोरंजन के नाम पर जीवों को कैद करना कितना उचित है ? काश ! इन बेजुबानों के दर्द की  एक लिपि होती। ये भी न्याय की फ़रियाद कर पाते । मनुष्य ने अपने अधिकारों की रक्षा के लिए  कचहरियां तो बना ली किन्तु इनका क्या ? कुछ सौभाग्यशाली पशु-पक्षियों के अलावा बाकी न्याय की अनंत प्रतीक्षा में रत।” दूसरी तरफ  विलुप्तप्राय प्राणियों का संरक्षण करता मानव देवतुल्य लगा। इन्हीं विचारों में डूबता-उतराता मैं चिड़ियाघर से बाहर निकल आया।

यात्रा के अंतिम दिन हैदराबाद के सेंट्रल मॉल में मामूली शॉपिंग की गई।बड़े-बड़े सुडौल पत्थरों से अभी-अभी दिल्लगी शुरू ही हुई थी कि अलविदा कहने का वक़्त आ गया।विजयवाड़ा सहित अनेक दर्शनीय स्थलों को न देख पाने का मलाल किन्तु भरपूर ताज़गी और स्फूर्ति के साथ उस नवाबी शहर से हम विदा हुए।

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