उत्तर दिसि सरयू बह पावन..

डॉ. जितेंद्र पाण्डेय@नवप्रवाह.कॉम,

Jitendra Pandeyअलसुबह बारिश की बूंदा-बांदी ने सरयू-तट को गीला कर दिया था।असावधानी से चलने के कारण कई श्रद्धालु फिसल-फिसल कर गिर रहे थे। सधे हुए कदमों से भी आगे बढ़ना मुश्किल हो रहा था।किसी प्रकार नदी में प्रवेश किया।पानी का बहाव इतना कि पैर एक जगह टिकते ही नहीं। कमर तक पानी में डुबकी लगाकर बाहर निकल आया। ठंडी हवाओं ने बदन में कंपकंपी – सी पैदा कर दी।सतत प्रवाहमान सरयू जी के लिए अंतःकरण से सदिच्छाएं फूटने लगीं।सरस सलिला का सौम्य विस्तार देखकर गोस्वामी तुलसीदास की पंक्ति अनायास जिह्वा पर आ गई- “उत्तर दिसि सरयू बह पावन”।

सरयू जी को प्रणाम करके अयोध्या की तरफ अभिमुख हुआ। मन में रामलला के बचपन का बिम्ब उभरने लगा। घुटनों के बल चलते चारों भाई , पैजनियों की रुन-झुन , माताओं का अगाध स्नेह , चौथेपन में राजा दशरथ का पुत्र-मोह आदि चित्रवत मानसपटल पर फिरने लगा।रामचरितमानस की पूरी कथा असम्बद्ध रूप से स्मरण हो आई।

स्नानादि के बाद राम की पैड़ी से होते हुए हम हनुमानगढ़ी की ओर बढ़ने लगे।सहयात्री अपने ही थे। यशवंत जी ने बताया -“पाण्डेयजी,आप हर जगह घरों में एक छोटा-सा मंदिर पाएंगे लेकिन अयोध्या में आपको मंदिरों में घर मिलेंगे।यहां के महंत ? बाप रे बाप ! किसी राजे-महाराजे से कम नहीं। छप्पन व्यंजनों का छककर भोग लगाते हैं। बिल्कुल वीआईपी कल्चर। बिना पूर्व अनुमति के आप उनका दर्शन नहीं कर सकते।चौबीसों घंटे सीसीटीवी की निगरानी।” कार की स्टेयरिंग को तेजी से घुमाते हुए संतोष सिंह ने चुटकी ली – कहिए ज़नाब , गाड़ी हनुमानगढ़ी के बजाय अखाड़ों की तरफ मोडूं?” “न न संतोष जी , महंत-दर्शन फिर कभी।फ़िलहाल हनुमंतलाल का दर्शन कराइए।”अखाड़ों को देखने की प्रबल इच्छा को दबाते हुए मैंने निवेदन किया। मंदिरों में दर्शन की प्रक्रिया आरम्भ हुई। चंद चढ़ावे की कीमत पर दुनिया के सारे सुखों को बटोर लेने की प्रार्थना में सभी तल्लीन हो गए।

मंदिर-दर-मंदिर मत्था टेकते , मनौती करते, कुछ बुदबुदाते और आगे बढ़ जाते। कदम-कदम पर क्षण-विशेष को कैमरे में कैद करने की ज़द्दोज़हद मेरी कमजोरी है। हनुमानगढ़ी में क्लिक करते समय पता चला कि संतों की सशस्त्र सेना यहीं रहती है। बताया गया जब भी अयोध्या पर आक्रमण हुए संत-सेना नने वीरता से मुकाबला किया।

अयोध्या की गलियों में चलते हुए भारतीय संस्कृति की अक्षुण्य विरासत यत्र-तत्र बिखरी मिली।कहीं प्रभावशाली उपस्थिति के साथ तो कहीं ‘कुछ शेष चिह्न हैं केवल , मेरे उस महामिलन’ के रूप में। अपनी परत-दर-परत में अयोध्या की धरती ने आर्यों के वैभवशाली इतिहास को बड़ी सावधानी से छिपा रखा है।इतिहास का वृहत् कालखंड सर्वत्र करवट-सा लेता प्रतीत हुआ।

अयोध्या में बंदरों का आतंक सर्वविदित है।उनकी नज़र भक्तों के हाथों से लटकती हुई थैलियों पर बनी रहती है।झपट्टा मारते और पलक झपकते ही प्रसाद की थैली उनके हाथ में।हमें भी उनके आतंक का शिकार होना पड़ा।प्रसाद-मोह छोड़ हम रामजन्म भूमि की ओर बढ़ चले।चाक-चौबंद सुरक्षा ऐसी कि परिंदा भी अपनी मर्ज़ी से पंख न फड़फड़ा सके।सुरक्षा घेरों में प्रवेश करने से पहले

मोबाइल,पर्स,कैमरा,बेल्ट,कंघी आदि सिक्योरिटी में जमा करना पड़ा।कमांडों के अलग-अलग दस्ते सभी चौकियों पर तैनात थे।सघन जाँच का सिलसिला शुरू हुआ।तीन फीट चौड़े और आठ फीट ऊँचे लौह-जाल से होकर एक किलोमीटर से अधिक की यात्रा करनी थी।हर मोड़ पर जाँच।सुरक्षा का इतना पुख्ता इंतजाम मन को कचोटने लगा।एक ऐसे महापुरुष के जन्मस्थली को विवादास्पद बनाना कितना दुर्भाग्यपूर्ण है जिसने सभी आदर्शों को जिया।वह एक संप्रदाय विशेष से कैसे हो सकता है ? ‘निर्मल-मन’ की शर्त रखने वाले प्रभु राम की जन्मभूमि तो सांस्कृतिक धरोहर के रूप में समस्त देशवासियों को स्वीकार करनी चाहिए।भारत की समृद्ध परम्परा की खूबसूरती की विकृति देखकर मन बोझिल हो गया।

मानवता के पोषक रामलला को तिरपाल के नीचे पाकर भारतीय राजनीति का स्याह चेहरा भी सामने आया। इंसान को मज़हबों में बांटकर उनमें घृणा और अविश्वास पैदा करना सत्ता-सुख के लिए अनिवार्य शर्त-सी बनती जा रही है।सही है-” राजनीति देवकन्या नहीं बल्कि विषकन्या की आत्मजा है।”मर्यादापुरुषोत्तम सहित राम दरबार के सामने हाथ जुड़े और नेत्र सजल हो आए।तभी भक्तों का एक रेला आया और हठात् सुरक्षा रास्ते से बाहर कर दिया गया।

चिलचिलाती धूप में एक लम्बा चक्कर लगाकर हमारी टोली प्रसाद,फोटो,माला,सिन्दूर,चूड़ी,खिलौने आदि खरीदने में व्यस्त हो गई।लोगों की आस्था एवं भावनाओं को भुनाते दुकानदार हर पल व्यावसायिक पैतरा बदल रहे थे।धर्म भीरु भक्तों को उनके चंगुल से निकल पाना मुश्किल ही नहीं असंभव था।दूसरी तरफ टूरिस्ट गाइड लोगों को अलग-अलग जत्थों में बांटकर अयोध्या-महात्म्य समझा रहे थे।वे पूरी तरह धर्माचार्य की भूमिका में सक्रिय थे।लोग स्वीकारात्मक मुद्रा में लगातार सिर हिलाए जा रहे थे।पर्यटकों को लुभाने वाले मनमोहक शब्दों का गुलदस्ता इतना विश्वसनीय था कि गोया वे कोई टूरिस्ट गाइड नहीं बल्कि व्यासपीठ पर विराजमान आध्यात्मिक गुरु हों।

अयोध्या की सड़कों से लेकर संसद के गलियारों तक सभी मस्त।वर्तमान की चिंता भविष्य पर हावी नज़र आ रही है। धूमिलाना तेवर में कहें तो ‘घोडा पीया जा रहा है , कुत्ता खाया जा रहा है।’अपने-अपने वर्तमान को स्वर्णिम बनाने की होड़ मची है।बिल्कुल ,जंगल-न्याय।संचित ज्ञान-विज्ञान के भारतीय स्रोत और उनसे जुड़ी भौगोलिक परिस्थितियां या तो इन टूरिस्ट गाइडों की मोहताज़ हैं या ऊँची टीआरपी की जुगाड़ में संलिप्त मीडिया की।

बाबाओं की फलती-फूलती दुकान से जनमानस लगातार ठगा जा रहा है। दसकों पहले भारतीय ज्ञान-विज्ञान पर चलाया गया विदेशी हंटर आज भी हमें लहूलुहान कर रहा है।इनके प्रति भारतीयों में अविश्वास का बीज बो दिया गया है। इन्हें आउटडेटेड मानकर दरकिनार करने का सिलसिला बदस्तूर जारी है। दरकिनार की बात तो दूर,लोग खुलेआम अपना विरोध दर्ज़ करा रहे हैं। इनके मन और मस्तिष्क में यह भर दिया गया है कि संस्कृत पढ़कर इनकी संतान दुनिया के साथ कदम से कदम मिला कर नहीं चल पाएगी। अपनी अस्मिता से अंजान इन भोले-भालों को यह नहीं मालूम कि पूरी दुनिया के वैज्ञानिक भारतीय वेदों की प्रमाणिकता पर अपनी मुहर लगा रहे हैं। आविष्कार-जगत में ये अधिक विश्वसनीय और तथ्यपूर्ण हैं।

आवश्यकता है कि इस प्रकार की अद्यतन जानकारी को युवा पीढ़ी से परिचित कराया जाय।मेरा मानना है कि शिक्षा ही इसका सर्वोत्तम माध्यम है। हमारे प्राचीन ग्रन्थ मात्र भारत के ही नहीं बल्कि समष्टि की अनमोल धरोहर हैं। इन पर उच्च स्तरीय कमेटी का गठन व प्रामाणिक शोध कार्य की महती आवश्यकता है। दुनिया में भौतिक और आध्यात्मिक प्रगति के लिए भारतीय ज्ञान-विज्ञान के महत्त्वपूर्ण स्रोतों को शैक्षिक धारा से जोड़ना ही होगा। इस कार्य के लिए दुनिया के सभी थिंकर टैंकों को एकजुट होकर सामने आना पड़ेगा।

ओह ! मैं भी क्या-क्या सपने बुनने लगा ? प्रसाद की एक दुकान के सामने खड़ा होकर इतना बड़ा क्रन्तिकारी परिवर्तन ! समाज , संस्कृति और शिक्षा पर इतना गहरा मंथन ! न , बाबा न।ध्यान भंग हुआ। पुरुष अपनी खरीददारी कब का कर चुके थे।महिलाएं कॉस्मेटिक की दुकान पर अब भी व्यस्त थीं।सौंदर्य-सामग्री को चुनने में विलम्ब करती महिलाएं दल के मुखिया का पारा लगातार बढ़ा रही थीं।मैं भी कुछ अपने इस्ट -मित्रों के लिए लेता , लोग गाड़ी में बैठ चुके थे।कुछ भी न खरीद पाने का ग़म मुझे कम किन्तु मेरी सहधर्मिणी को अधिक था।पति के साथ शॉपिंग न कर पाने का मलाल चेहरे पर साफ दिखाई दे रहा था।गाड़ी सरपट घर की तरफ दौड़ पड़ी।पुनः स्मरण हो आया – “उत्तर दिसि सरयू बह पावन।”

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.