हत्याओं के प्रति राज्य सरकारों की भूमिका

उमेश चतुर्वेदी | Navpravah.com

विपक्षी खेमे की ओर से भारतीय जनता पार्टी पर अरसे से आरोप रहा है कि वह संसदीय लोकतंत्र की बजाय अध्यक्षात्मक यानी राष्ट्रपति प्रणाली की पक्षधर है। संघवाद यानी Federalism का भी उसे विरोधी बताया जा रहा है। कानून और व्यवस्था भारतीय संविधान के मुताबिक राज्यों का विषय है।

संघवाद का तकाजा है कि राज्यों में कानून-व्यवस्था की हालत बिगड़ती है तो अधिक से अधिक संविधान के अनुच्छेद 355 के तहत केंद्र सरकार संबंधित राज्य सरकार को व्यवस्था सुधारने के लिए ताकीद तक कर सकती है। कर्नाटक के मुख्य मंत्री रहे एस आर बोम्मई की सरकार की बर्खास्तगी के बाद सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसला दिया, उसके बाद अनुच्छेद 356 के इस्तेमाल की गुंजाइश भी कम हो गई, जिसके जरिए कानून-व्यवस्था की खराब हालत को लेकर केंद्र सरकारें राज्य सरकारों को बर्खास्त करती रही हैं। यानी राज्यों को अब पहले से कहीं ज्यादा स्वायत्तता और निर्भय होकर काम करने की आजादी मिल गई है।

ऐसे हालात में अव्वल तो होना यह चाहिए कि जिस राज्य में अपराध होता है, उस राज्य में चाहे सामान्य इंसान मारे जा रहे हों या पत्रकार, उस राज्य सरकार को ही जिम्मेदार ठहराया जाता। बेशक वह हत्या कथित तौर पर विचारधारा के विरोध में ही क्यों ना हो रही हो। लेकिन उत्तर प्रदेश के दादरी में अखलाक की हत्या के बाद से उठे वितंडावादी स्वरों के बीच संघवाद की इस अवधारणा को ना सिर्फ विपक्षी राजनीतिक दल, बल्कि विद्वत्त समाज ने भी भी पीछे छोड़ दिया। तब से यह परिपाटी बन गई है कि हत्याएं चाहें जिस राज्य में हो रही हों, उसके लिए वहां की राज्य सरकार की बजाय केंद्र सरकार और उस पर काबिज पार्टी की विचारधारा को जिम्मेदार ठहराया जाने लगा है।

लेकिन सवाल यह है कि ऐसे आपराधिक कार्यों को न रोक पाने के लिए संबंधित राज्य सरकार की नाकामी क्यों ना मानी जाय। विचारणीय है कि अगर इन हत्याओं के लिए केंद्र सरकार सीधे राज्यों से रिपोर्ट भी मांगने लगेगी तो हत्याओं के विरोध में हल्ला-हंगामा कर रही सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक ताकतों को फिर से संघवाद पर ही खतरा नजर आने लगेगा। इस पूरी कवायद में एक तत्व का हाथ जरूर नजर आ रहा है, जिसे हम अंग्रेजी में सेलेक्टिवनेस कहते हैं।

ऐसे में सवाल यह है कि क्या राज्य सरकारें फेल नहीं हैं? अगर हैं तो क्या वे खुद-ब-खुद संघवाद को खतरे में नहीं डाल रही हैं। जरूरत है कि हाल के दिनों में हुई हत्याओं, उनके खिलाफ उपजे जनरोष और उसके जरिए हो रही बहसों को इस नजरिए से भी देखा और समझा जाए।

 

(उक्त आलेख वरिष्ठ पत्रकार उमेश चतुर्वेदी जी की फ़ेसबुक वॉल से साभार उद्धृत है।)

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