‘एड्स’ बीमारी या कलंक?

AnujHanumat@Navpravah.com

आज पूरा विश्व एड्स दिवस मना रहा है। एक दौर में जन स्वास्थ्य के लिए सबसे खतरनाक माने जाने वाले हयूमन इम्यूनोडिफिसिएंसी वायरस (एचआईवी)/एड्स के मामलों में यूनिसेफ की रिपोर्ट के मुताबिक़ वैश्विक स्तर पर गिरावट देखने को मिली है। 29 साल की जंग के बाद भारत में भी एचाआईबी/एड्स के मामलों में कमी दर्ज की गई है। देश में इस तरह का पहला मामला मामला 1996 में दर्ज किया गया था। इसके खिलाफ सफलता से उत्साहित सयुंक्त राष्ट्र ने वैश्विक रूप से इस वाइरस और एड्स बीमारी से पूरी तरह से निजात पाने के संकल्प के साथ इस साल की थींम ‘एचआईबी पीड़ितों की संख्या शून्य तक ले जाना’ निर्धारित की है।

साल 2014 की रिपोर्ट के अनुसार 3.99 करोड़ लोग पूरे विश्व में एड्स से पीड़ित हैं और वर्ष 2014 तक 12 लाख लोगों की एड्स से मौतें हो चुकी हैं।  पिछले 15 वर्षों में एड्स के मामलों में 35% कमी आई है और पिछले एक दशक में एड्स से हुई मौतों के मामलों में 42% कमी आई है। अगर हम भारत की स्थिति की बात करें तो पूरे विश्व में एचआईवी पीड़ितों की आबादी के मामलें में हमारा देश पूरे विश्व में तीसरा स्थान रखता है। यहाँ 15-20 लाख लोग एड्स से पीड़ित हैं और 1.50 लाख लोग वर्ष 2011-2014 के बीच इसकी वजह से मर चुके हैं। हमारे देश में कुल एड्स पीड़ितों में 40% महिलाएं शामिल हैं।
पीड़ितों में किशोरों की सर्वाधिक संख्या चिंताजनक-
विश्व में एचआईबी से सबसे अधिक किशोर 10-19 वर्ष से पीड़ित है। यह संख्या 20 लाख से अधिक है। वर्ष 2000 से अब तक किशोरों के एड्स से पीड़ित होने के मामलों में तीन गुना इजाफा हुआ है। यह दावा यूनीसेफ की ताजा रिपोर्ट में किया गया है जो कि चिंता का विषय है। एड्स से पीड़ित दस लाख से अधिक किशोर सिर्फ छह देशों में ही रह रहे हैं, इनमे दक्षिण अफ्रीका, नाइजीरिया, केन्या, भारत, मोंजाबिक और तंजानिया हैं। माँ से नवजात को होने वाले एचआईबी संक्रमण से मुक्त पहला देश क्यूबा बन गया है।

एड्स के प्रति जागरूक करने के मकसद से 1988 से हर वर्ष एक दिसम्बर को विश्व एड्स मनाया जाता है । एड्स को तमाम जागरूकता, अभियानों के बावजूद अब भी एक संक्रमण नहीं, बल्कि सामाजिक कलंक के रूप में देखा जाता है। घर-परिवार और समाज से लेकर कामकाज की जगहों तक में एचआईवी/एड्‌स से ग्रस्त लोग अपमान, प्रताड़ना और भेदभाव के शिकार हो रहे हैं।

हैरत और दुख की बात तो यह है कि ऐसा बर्ताव केवल नादान और अज्ञानी लोग ही नहीं कर रहे, बल्कि डॉक्टरी पेशे से जुड़े वे व्यक्ति भी कर रहे हैं, जिन पर एचआईवी से पीड़ित लोगों की देखभाल और सहायता की जिम्मेदारी है। आए दिन ऐसे अस्पतालों या डॉक्टरों की खबरें आती रहती हैं, जो एचआईवी से पीड़ित व्यक्तियों के इलाज या देखभाल के लिए साफ इनकार कर देते हैं। भारत सरकार के राष्ट्रीय एड्‌स नियंत्रण संगठन (नाको) के मुताबिक लगभग 18 प्रतिशत एचआईवी पॉजिटिव लोग अपने पड़ोसियों से भेदभाव के शिकार होते हैं, जबकि नौ प्रतिशत को समुदाय या शिक्षण संस्थान के स्तर पर अपमान व प्रताड़ना का शिकार होना पड़ता है। यही वजह है कि 74 प्रतिशत एचआईवी पॉजिटिव व्यक्ति अपने कामकाज की जगह पर अपनी बीमारी की बात छिपाकर रखते हैं। इस भेदभाव में लिंग का भी खास दखल दिखाई देता है। पुरुषों की तुलना में महिलाओं को ज्यादा कहर झेलना पड़ता है। एचआईवी का संक्रमण होने पर उन्हें घर छोड़ने के लिए कह दिया जाता है। पत्नियां अपने एचआईवी पॉजिटिव पति की देखभाल करने में संकोच नहीं दिखातीं, जबकि पति कम ही मामलों में सहायक साबित होते है।

जानकारी पर गलतफहमियां हावी-

इन सारे भेदभाव की जड़ है एचआईवी/एड्‌स के बारे में फैली तरह-तरह की गलतफहमियां। हमारे देश में एड्‌स का पहला मामला लगभग 21 साल पहले चेन्नई में पाया गया था। आज एचआईवी/एड्‌स के साथ जिंदगी गुजार रहे लोगों की तादाद 25 लाख से ऊपर बताई जाती है। इस बीच विभिन्न संचार माध्यमों का इस्तेमाल करके लोग एचआईवी/एड्‌स को छुआछूत का रोग मानते हैं। ऐसी गलतफहमी के बने रहने की वजह क्या है? दरअसल समस्या यह है कि आज भी हमारे समाज में एचआईवी/एड्‌स का जिक्र आते ही लोग सशंकित हो जाते हैं और बात पर रुख पलट देते हैं।

कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्हें लगता है कि एचआईवी पॉजिटिव व्यक्‍ति को देखने से ही उन्हें संक्रमण हो जाएगा। इस डर को भगाने के लिए हमें इसके बारे में जागरूकता फैलानी होगी। पश्चिमी देशों में एचआईवी पीड़ितों के प्रति किसी के मन में कोई द्वेष नहीं होता, क्योंकि वहां के लोगों को इसके बारे में भरपूर जानकारी है। ऐसे कई रोग हैं, जो इंसान को प्रभावित करते हैं और उसे पीड़ित करते हैं। ऐसा नहीं है कि कोई पीड़ित इसीलिए होता है क्योंकि उसे एचआईवी संक्रमण है। अगर आप देखें तो एचआईवी अपने आप में कोई रोग नहीं है। यह एक ऐसी स्थिति है, जिसमें हमारे शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता में कमी आ जाती है। इससे शरीर कमजोर होता है और रोगों से लडऩे की उसकी क्षमता क्षीण हो जाती है।

एचआईवी एड्स महज एक मेडिकल समस्या नहीं है, यह सामाजिक संकट बनती जा रही है। एक समय लोग सोचते थे कि भारत जैसे देश में यह रोग तेजी से नहीं फैलेगा, क्योंकि यहां सामाजिक नियम बड़े कड़े हैं। जाहिर है कि यह बात गलत साबित हुई। आज अगर ग्रामीण इलाकों के लोग भी इस रोग की चपेट में आ रहे हैं तो उसका मतलब यह है कि समाज के ऐसे कई पहलू हैं जिनको हमने नहीं समझा है।

अगर एचआईवी से पीड़ित लोग अपनी जीवन ऊर्जाओं को तीव्र अवस्था में कायम रखें तो भले ही उनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता को पूरी तरह वापस न लाया जा सके, लेकिन उसे काफी हद तक बढ़ाया जरूर जा सकता है।
अंततः समझदारी से रहना ही इस समस्या का एकमात्र हल है। यह भी महत्वपूर्ण है कि जो लोग एचआईवी से संक्रमित हैं, वे अपनी जिम्‍मेदारी समझें और सावधानी से चलें। अगर एचआईवी से पीड़ित लोग अपनी जीवन ऊर्जाओं को तीव्र अवस्था में कायम रखें तो भले ही उनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता को पूरी तरह वापस न लाया जा सके, लेकिन उसे काफी हद तक बढ़ाया जरूर जा सकता है। अगर रोगी अपने खानपान के अलावा काम करने के तरीके और जीवन के दूसरे पहलुओं का भी ख्‍याल रखे, तो वह रोगों से लडऩे की अपनी क्षमता को बढ़ा सकता है। अगर कोई कष्ट में है तो यह महत्वपूर्ण नहीं होता कि उसकी वजह क्या है। आप ऐसा नहीं कह सकते कि एक पीड़ा बड़ी है और दूसरी छोटी। यह सोचना सही नहीं है कि अगर कोई कैंसर से पीड़ित है तो उसे प्यार देना चाहिए और अगर किसी को एड्स है तो उसे प्यार नहीं देना चाहिए। जब सुनामी आई तो हर कोई मदद के लिए आगे आ रहा था। मुझे समझ में नहीं आता कि एचआईवी की समस्या का सामना करने के लिए भी लोग उसी तरह से सामने क्यों नहीं आ रहे हैं। जाहिर सी बात है कि करुणा सोच – समझकर या चुनाव करके नही दिखाई जाती। याद रखिए एड्स का सरकारी विज्ञापन इस बीमारी की भयावहता बिलकुल सही तरीके से बयां करता है। ‘एड्स की जानकारी ही बचाव है’। एक बार यह बीमारी हो जाए, तो फिर उसका कोई इलाज नहीं। इसलिए बेहतर है कि इस बीमारी से दूर ही रहा जाए। एड्स संक्रमित सुई, असुरक्षित यौन संबंधों, संक्रमित खून चढ़ाने और गर्भवती मां से होने वाले बच्चे को होता है। इनमें से काफी को हम रोक सकते हैं ।

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