उम्मीद पर खरी नहीं उतरी फ़िल्म ‘अज़हर’

फ़िल्म समीक्षा-अज़हर 

रेटिंग- **/5

अमित द्विवेदी

निर्माता- एकता कपूर/सोनी पिक्चर्स नेटवर्क्स
निर्देशक- टोनी डिसूज़ा
पटकथा- रजत अरोड़ा
संगीत- प्रीतम/ अमाल मलिक
कलाकार- इमरान हाशमी, प्राची देसाई, नरगिस फाकरी, लारा दत्ता, कुलभूषण खरबंदा

भारतीय क्रिकेट टीम के पूर्व कप्तान मोहम्मद अज़हरुद्दीन के जीवन संघर्ष पर फ़िल्म बनाने की बात जब दुनिया के सामने आई, तभी से लोग ये कयास लगा रहे थे कि फ़िल्म में किन-किन पहलुओं को प्रमुखता से फ़िल्म में स्थान दिया जाएगा। यह तो तय ही था कि फ़िल्म में अज़हर की आप बीती दर्शाई जाएगी। हुआ भी वही, अज़हर के निजी जीवन और क्रिकेट करियर की कई चीज़ों को फिल्माया भी गया है। अज़हर में जो फिल्माया गया है, उसकी कहानी कुछ यूँ है-

कहानी-
अज़हर का जन्म होता है तो उनके नानू (नाना) उनका नामकरण करते हैं और कहते हैं कि ये हमारी क़ौम और मुल्क़ का नाम रोशन करेगा। अज़हर के नाना की तमन्ना थी कि उनका नाती 100 क्रिकेट टेस्ट मैच खेले। कुछ सीख और नसीहतें देते हैं अज़हर के नाना जो उन्हें जीवन संघर्ष में बड़ा काम आता है। नाना की वजह से अज़हर के मन में क्रिकेट को लेकर जूनून पैदा हुआ , क्रिकेट टीम में सेलेक्शन के साथ ही अज़हर की जिंदगी में पहली पत्नी नौरीन (प्राची देसाई) की भी एंट्री होती है और कुछ सालों के बाद एक्ट्रेस संगीता (नरगिस फाकरी) से भी अजहर दूसरा निकाह करता है।

अज़हर अपने करियर के पीक पर होते हैं, तभी मैच फिक्सिंग के एक आरोप ने सबकुछ ध्वस्त कर दिया। जितनी शोहरत थी, उतनी ही बदनामी भी हुई। तम्मम ज़िल्लतें सहने के बाद अज़हर ने निर्णय लिया कि एसोसिएशन के लाइफ टाइम बैन के खिलाफ वे कोर्ट में जाएंगे। अपने दोस्त रेड्डी से मुलाक़ात कर वे उन्हें केस लड़ने के लिए मना लेते हैं। और तकरीबन 8 साल के बाद अज़हर को न्याय मिलता है।  अज़हर की आजतक की ज़िंदगी में घटित हुई इन तमाम ऊँच-नीच को दर्शाने की कोशिश की गई है फ़िल्म अज़हर के माध्यम से।

पटकथा-अभिनय-
निर्देशक टोनी डिसूज़ा ने फ़िल्म को पूरी तरह से सिनेमाई अंदाज़ में ढालने की कोशिश की है। लेकिन अज़हर की भावनाओं को दर्शकों से जोड़ नहीं पाए। कई दफा पटकथा कमज़ोर और उबाऊ लगने लगती है। तारतम्य बरकरार रख पाने में असफल नज़र आती है फ़िल्म की क्रिएटिव टीम। फ़िल्म के संवाद को लेकर भी कुछ ख़ास मेहनत नहीं की गई है। प्राची देसाई ने बेहतर काम किया है और काफी हद तक नरगिस फाकरी ने भी बढ़िया काम किया है।

वक़ील की भूमिका में कुणाल रॉय कपूर बेहद कमज़ोर और मज़ाकिया नज़र आए। हाँ, कुलभूषण खरबंदा ने कम समय में अपनी छाप छोड़ी है। लारा दत्ता ने अपनी अभिनय क्षमता को एक बार फिर साबित किया है।

निःसंदेह, फ़िल्म और भी बेहतर बनाई जा सकती थी। अज़हर की ज़िन्दगी के कई अहम पहलुओं पर भी निर्देशक ने गौर नहीं किया। ऐसा लगता है कि फ़िल्म अज़हर, अज़हरुद्दीन की बेगुनाही को सिद्ध करने के लिए ही बनाई गई है।

संगीत
फ़िल्म का संगीत काफी सराहा गया है। इसके कर्णप्रिय गानों ने आम जनमानस को काफी प्रभावित किया है।

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