पुस्तक समीक्षा: एक कर्मयोगी की जीवन-गाथा है “अर्घ्य”

डॉ. जितेन्द्र पाण्डेय | Navpravah.com

पंडित बैजनाथ तिवारी की जीवन- गाथा पर आधारित ग्रंथ “अर्घ्य” ब्लूम्सबरी जैसे प्रतिष्ठित अंतर्राष्ट्रीय प्रकाशन की सद्यः प्रकाशित कृति है। लेखक पवन बख्शी की गहन जांच पड़ताल और उनके लेखकीय प्रतिबद्धता को दर्शाती यह पुस्तक हमारे समय का एक अद्वितीय दस्तावेज है। मूल्यों के क्षरण के दौर में इस प्रकार की पुस्तक का समाज में आना नई पीढ़ी के लिए किसी प्रकाश-स्तंभ से कम नहीं।

लेखक पवन बख्शी के अलावा यह कृति सामूहिक प्रयास की सुंदर परिणति है। पुस्तक का आवरण आकर्षक कलेवर में अत्यंत रमणीक बन पड़ा है। पुस्तक के पृष्ठ आवरण पर कई भाषाओं में पंडित बैजनाथ तिवारी का नाम अंकित है। संभवत: यह उनके भाषाई ज्ञान का द्योतक होगा। पुस्तक में पहला अर्घ्य सावित्री तिवारी ‘आज़मी’ के द्वारा ‘थे वह ससुर हमारे’ शीर्षक से दिया गया है। यही पुस्तक की प्रस्तावना और प्रवेश-द्वार भी प्रतीत होता है । इसके उपरांत रंगीन छवियों का सिलसिला शुरू होता है, जिसमें पुस्तक-नायक के सगे-संबंधियों की स्मृतियां संगृहीत हैं। ‘आह्वान’ शीर्षक के अंतर्गत लेखक पवन बख्शी ने पंडित बैजनाथ तिवारी की संघर्षपूर्ण जीवन-यात्रा का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया है। पुस्तक का दूसरा अर्घ्य राजेंद्र तिवारी ने अर्पित किया है। ‘पूज्य! हो समर्पित अर्घ्य हमारा’ शीर्षक में उन्होंने पुस्तक में योगदान देने वाले सभी महानुभाव के प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित की है।

‘आजमगढ़: जन्मभूमि और कर्मभूमि’ शीर्षक के अंतर्गत जनपद की समृद्ध विरासत के साथ-साथ इस मिट्टी में जन्मे ऋषियों-मनीषियों से लेकर अद्यतन साहित्यकारों और कलाकारों का परिचय उपलब्ध है। इसके बाद आरंभ होता है, एक कर्मयोगी की जीवन यात्रा का विस्तृत आख्यान। पूर्वजों द्वारा रीवा से पांती तक के स्थांतरण की जद्दोजहद से स्वयं सिद्ध है – ‘नहि मनुष्यात् श्रेष्ठतरं हि किंचित्’ अर्थात् सृष्टि में मनुष्य से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं। इसी क्रम में पंडित जी और और उनकी अर्धांगिनी श्रीमती जैराजी देवी के साथ-साथ तत्कालीन परिवेश का बड़ा ही सजीव चित्रण पुस्तक के लेखक ने किया है। ‘शिक्षा: अध्ययन से अध्यापन’ शीर्षक के अंतर्गत बैजनाथ जी की शैक्षणिक यात्रा का रोमांचक वर्णन मिलता है। टहर वाजिद पुर से लेकर काशी हिंदू विश्वविद्यालय तक की पढ़ाई में पंडित जी ज्ञान और अनुभव के आवें में कुंदन की तरह निखरते रहे। तदुपरांत उन्होंने अध्यापन के लिए मध्यप्रदेश के बुरहानपुर शहर की तरफ रुख किया। वहां के अनुभव से लैस हो, अलीगढ़ की जातीय हिंसा का दंश झेलते हुए वे खुरासों
पहुंचे। यहीं पर उन्होंने अपने कुछ साथियों के साथ खुरासो रेलवे स्टेशन को आग के हवाले करके अपनी देश भक्ति का परिचय दिया था। इसका प्रमाण गयादीन जायसवाल इंटर कॉलेज खुरासो के प्रधानाचार्य हीरालाल यादव द्वारा उपलब्ध कराया गया जो पुस्तक में मौजूद है।

पंडित बैजनाथ तिवारी एक आदर्श शिक्षक थे। शिक्षा विहीन क्षेत्र में शिक्षा की अलख जगाने का पुनीत कार्य इस महान शिक्षाविद ने किया। पुस्तक के कई अध्यायों में तिवारी जी के परिश्रम, लगन और ईमानदारी की बात बताई गई है। कड़क अनुशासन के कई उदाहरण उनके शिष्यों द्वारा साझा किए गए हैं। इस प्रक्रिया में मुंशी दीनानाथ लाल श्रीवास्तव और डॉक्टर श्री भगवान तिवारी का नाम विशेष रुप से उल्लेखनीय है। पंडित जी के जीवन के कुछ अनछुए पहलुओं को हास्य विनोद के रूप में टटोलने की सफल कोशिश की गई है। पुस्तक में बताया गया है कि पंडित बैजनाथ तिवारी गांधी-दर्शन और महामना पं. मदन मोहन मालवीय के विचारों को अपने जीवन में आत्मसात किया था। यही कारण है कि उन्होंने स्वच्छता को सर्वाधिक महत्व देकर अस्पृश्यता का घोर विरोध किया। बदलते वक्त पर उनकी पैनी नज़र थी।

“माजी पांती की यादें-तिवारी जी की बातें” शीर्षक आलेख के अंतर्गत लेखक की गहन छानबीन और कठिन श्रम का उदाहरण मिलता है। इस अध्याय में पवन जी ने जितेंद्र मोहन तिवारी, अनीता तिवारी, नरसिंह तिवारी, दयाशंकर तिवारी, दशरथ तिवारी, केशव प्रसाद उपाध्याय, लीलावती तिवारी, बाबू जंग बहादुर सिंह, दीनानाथ लाल श्रीवास्तव, बाबू रघुनाथ सिंह, मंगला प्रसाद राय, हीरालाल यादव, अनिल उपाध्याय, रामधनी पांडेय, बृजेश सिंह, श्री भगवान तिवारी कटोही, सुरेली राम, राजेंद्र तिवारी, रामाश्रय तिवारी, श्रीमती शीला तिवारी, श्रीमती सावित्री तिवारी, शिवजोर राम प्रजापति, कृष्ण मुरारी सिंह, चंद्रशेखर पांडेय और राजनाथ पांडेय के अंतर्मन को टटोला है। सबने एक स्वर में स्वीकार किया है कि पंडित बैजनाथ तिवारी का चरित्र आज की युवा पीढ़ी के समक्ष आदर्श हैं। उनके ऋण से हमारा समाज मुक्त नहीं हो सकता।

पुस्तक में लेखक के अलावा परिवारजनों ने भी अपने अपने-अपने शब्द-सुमन अर्पित किए हैं। इस क्रम में रामाश्रय तिवारी का ‘हमार काका : मेरे काका अर्थात् पिता मेरे आदर्श’, राजेंद्र तिवारी का ‘काका ने किया था, अपनी मृत्यु के बाद का वर्णन’, जितेंद्र मोहन तिवारी का ‘कठोर हृदय में छिपी कोमलता और स्नेहपूर्ण सागर की वह भावना’, श्रीमती शीला तिवारी का ‘हमारे बाबूजी समय के बड़े पक्के थे’, सावित्री तिवारी का ‘अश्रुपूरित आंखों से हम बाबूजी को जाते देखते रहे’, अनीता तिवारी का ‘मैंने तो मात्र अपना फर्ज पूरा किया है,’ साधना मिश्रा का ‘हमारे बाबा बाबा आवाज लगाते – ‘हे बहिनी !’, डॉक्टर संध्या तिवारी का ‘वह एक महान व्यक्ति थे, मुझे गर्व है कि वह मेरे बाबा थे’, डॉक्टर शालिनी पांडे का ‘एक जोड़ा मजबूत कंधे,’ नीलम दुबे का ‘बैजनाथ तिवारी: मेरे बाबा जी’, पूनम जालान का ‘जा अइसन पोती ना पइबा’, दीपक तिवारी का ‘आवा बाबू! चुम्मा दै द्या’, राहुल तिवारी का ‘मैं उनके पहरावे से बहुत प्रभावित था’ विवेक तिवारी का ‘न जाने किस खिड़की से जैसे बाबा झांककर नजर रख रहे हों’ और आशीष तिवारी का ‘संघर्ष भरा जीवन था उनका’ शीर्षक से लेख मर्मस्पर्शी हैं। इन लेखों को पढ़ते हुए आंखें नम हो आती हैं। सबके जीवन में उनके पिता का, ससुर का और बाबा का स्नेहिल दुलार था। तिवारी जी के विराट जीवन में प्रत्येक के लिए जगह थी।

राजेंद्र तिवारी ने ‘बाबूजी के अभिन्न संगी-साथी’ शीर्षक लेख में मौनी जी महाराज से लेकर श्री राम सिंगार यादव तक की भावनाओं का शब्दांकन बड़े ही सरल और प्रभावी ढंग से किया है। इनसे गुज़रते हुए ऐसा लगता है मानो ये अंतरंग संगी-साथी खुद-ब-खुद अपनी पीड़ा बयां कर रहे हों। बाबूजी की जीवन-गाथा की कल्पना इन्हीं के मन में पैदा हुई थी। वर्षों बाद यह ‘अर्घ्य’ के रूप में हमारे सामने फलित हुई। कल्पना से यथार्थ की इस यात्रा में अनेकों खट्टे-मीठे अनुभवों से राजेंद्र जी को गुजरना पड़ा। पुस्तक के फ्लैप पर उन्होंने लिखा है, “इस पुस्तक की सामग्री संकलन हेतु ऐसे बहुत से लोगों से हमारा संपर्क हुआ, जिन्हें हम बाबू जी के जीवन काल में नहीं मिले थे। कुछ ऐसे लोग भी मिले जिनसे बाबूजी के बारे में जानने की बहुत उम्मीद थी, लेकिन हमारे प्रयास असफल रहे। वहीं कुछ ऐसे लोग भी मिले, जिनसे इतना अधिक मिला कि जितनी कि हमें आशा भी न थी।”

परिशिष्ट की सामग्री पुस्तक को अधिक प्रामाणिक और पारदर्शी बनाती है। चाहे ‘पंडित बैजनाथ तिवारी-एक वाक्य में’ हो, बोलते चित्र हों, बोलती डायरी हो या पंडित बैजनाथ तिवारी के प्रशासनिक शिष्यों व उनसे जुड़े शिक्षाविदों द्वारा अर्पित श्रद्धांजलि, सबमें बाबू जी की शानदार छवि उभरती है। विवेक तिवारी का यात्रा संस्मरण ‘मेरी बुरहानपुर यात्रा’ अधिक सजीव व सार्थक बन पड़ी है। विवेक जी की इस यात्रावृत्त को पढ़कर लगता है कि बुरहानपुर का समूचा परिवेश रील की नाईं आंखों के सामने चल रहा हो। इनके लेखन की शैली पाठकों के मन और मस्तिष्क पर अमिट छाप छोड़ती है। इसी तरह आजमगढ़ के इतिहास में तिवारी जी की भूमिका में डूबकर माथा गर्व से ऊँचा और सीना चौड़ा होता जाता है। साथ ही इस जनपद के चप्पे-चप्पे से पाठक रूबरू होता है। आज़मग़ढ को आतंक की नर्सरी कहने वाली मीडिया को इस पुस्तक का अध्ययन अवश्य करना चाहिए। नज़रिया बदल जाएगा।

पुस्तक में अंतिम अर्घ्य लेखक पवन बख्शी ने स्वयं अर्पित किया है। पंडित बैजनाथ तिवारी के संपूर्ण व्यक्तित्व का सार प्रस्तुत करते हुए लेखक की स्वीकारोक्ति है, “जिस प्रकार अंतरिक्ष में जब कोई सितारा टूटता है, तो वह अपने पीछे पुनर्जन्म के पिंड छोड़ जाता है। ठीक उसी प्रकार महान व्यक्तित्व के धनी पुरुष निधन के बाद अमर हो जाते हैं। इतिहास साक्षी है कि निरंतर आक्रमणों के कारण भारत संकट से घिरा रहा, परंतु यहां के आध्यात्मिक लोग रचनात्मक विचारों की खान रहे हैं। सत्य के प्रति उनके प्रेम ने ऐसे विचारों और आदर्शों को जन्म दिया, जिन्होंने देश को निरंतर ऊर्जा प्रदान की तथा अपने सृजनात्मक अभिव्यक्ति में उन्होंने सुव्यवस्था और भाईचारे पर जोर दिया और उन्हीं देदीप्यमान व्यक्तियों के मध्य का व्यक्तित्व है-‘पंडित बैजनाथ तिवारी’।”

निष्कर्षतः ‘अर्घ्य’ एक ऐसी नायाब पुस्तक है, जिसमें साहित्य की लगभग सभी विधाएं एक साथ मुखर हैं। इसमें आद्यंत रोचकता बनी रहती है। काल के तीव्र प्रवाह में फिसलते एक महान शिक्षाविद् और बेहतरीन समाज सुधारक को शाब्दिक अमरता देकर तिवारी परिवार ने राष्ट्र हित में अपनी बेजोड़ हिस्सेदारी दर्ज़ की है। भावी पीढ़ी पंडित बैजनाथ तिवारी की जीवटता, कर्तव्यनिष्ठा, अनुशासनप्रियता और सेवाभाव से प्रेरणा लेती रहेगी। ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ का पाठ पढ़ाती यह पुस्तक ऐतिहासिक महत्त्व की अधिकारी है। अस्तु।

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